पानी के झरने तो बहुत देखे-सुने होंगे आपने, लेकिन क्या है आत्मविश्वास का झरना? ऐसा नहीं है कि आपने देखा या सुना नहीं है। लेकिन आंख और कान के साथ दिमाग भी खोलें तभी दिखे भी और सुने भी।
रामायण
भी सुनी है आपने और महाभारत भी। बुद्ध, महावीर और गांधी का नाम
भी सुना है आपने। लेकिन अमिट को नहीं जानते और न ही मुरलीकांत पेटकर को जानते हैं? नहीं जानते हैं न?
राम
ने लंकापति रावण पर आक्रमण किया और सीता को छुड़ा लाये। लेकिन क्या आपने इस बात पर कभी
विचार किया कि न तो अयोध्या से कोई सहायता ली और न ही मिथिला से कोई सहायता मांगी? कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अपनी पूरी चतुरंगिणी सेना शत्रुओं को सौंप दी। क्या
मिला राम और कृष्ण को? अपना पूरा राज्य त्याग कर बुद्ध और
महावीर अहिंसा का पाठ पढ़ाते रहे – किस लिये? गांधी – दक्षिण
अफ्रीका में रेल से प्लेटफ़ार्म पर फेंक दिये जाने के बाद दूसरे दिन ही वापस उसी
मुद्दे पर बग्गी वाले से भिड़ गए। उनकी एक आवाज पर करोड़ों भारतवासी डंडों के सामने
अपना सर और गोलियों के सामने अपना सीना तान कर खड़े हो गए। ये हैं वे लोग जिनके
अंदर से आत्मविश्वास का झरना फूट कर बहता था।
भारतीय
नायक ने पुलवामा हमले के बाद, किसी की चिंता और परवाह किये बिना आतंकियों
के ही घर में घुस कर उन्हें मारा। और आज फिर पहलगाम के बाद निडर होकर फिर से बहुत
दूर तक उनके घर में घुसा, मारा और लौट आया। दहाड़ता रहा
कि पड़ोसियों से हमारी कोई दुश्मनी नहीं, लेकिन अगर मेरे दुश्मनों को कोई पनहा देगा, तो हम उन्हें छोड़ेंगे नहीं। उनकी गोद से छीन कर
उन्हें मारेंगे।
हम
इनकी प्रशंसा तो करते हैं, कुछ को अवतार मानते हैं लेकिन वैसा बनने की
कल्पना नहीं करते। अनेक साधारण लोग भी हैं, अमिट और मुरली की
तरह। हमारे जैसे ही, बल्कि हमारी तुलना में बेहद कमजोर।
लेकिन इनमें से भी फूटता था आत्मविश्वास का झरना। उन्होंने भी वह कर दिखाया जिसकी
हम कल्पना नहीं कर सकते।
अमिट
खुद बताते हैं कि बचपन में एक भयानक सड़क हादसे में अपने दोनों हाथ गँवा कर ही बच
पाया था। महीने भर 'आई.सी.यू' में रहना पड़ा, तीन-चार महीने
अस्पताल में और फिर शुरू हुई जीवन से उनकी जंग। शायद हादसे के साथ-साथ विधाता ने
उनके दिल और दिमाग़ पर आत्म-विश्वास का
रोगन लगा दिया। अमिट ने ठान ली - ज़िन्दगी न केवल जीऊँगा, बल्कि शान से, मस्ती से झूमते
हुए, जीवन का सफ़र
तय करूँगा। उन्होंने अपने हृदय में एक मन्त्र का जाप करना शुरू किया, "अमिट, मिटेगा नहीं।"
जब हम सकारात्मक सोच से लबरेज़ हो जाते हैं तो भगवान् भी आ खड़े होते हैं हमारा हाथ थामने, भले ही वे हाथ साबुत न हों। पहले अपने पैरों की उँगलियों में क़लम पकड़ कर छठी कक्षा की पढ़ाई की। जब हाथों के घाव भर गये तो अपनी बायीं कोहनी के ठूंठ से लटकते दो लोथड़ों के बीच क़लम पकड़ कर लिखने का अभ्यास शुरू कर दिया... महीने भर में सफल हो गया और क़लम पैर से निकल कर हाथों में आ गई। आज अमिट अंग्रेज़ी-साहित्य के सहायक प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। वैसे उनकी जिंदगी का संग्राम अभी बाकी है।
जीवन को देखने का सब का अपना नज़रिया है - अँधेरे-से-अँधेरे
घण्टे में भी बस साठ मिनट ही होते हैं। संसार में भगवान् ने असम्भव नाम की
कोई चीज़ ही नहीं बनायी... नामुमकिन, कठिन,
इत्यादि बिल्ले
तो हम मनुष्य यहाँ-वहाँ टाँगते फिरते हैं। जिसकी जरूरत है वह है, सच्चा-निष्कपट, एकनिष्ठ, समर्पण-भरा
प्रयास कि हम सफल होकर रहेंगे।
दूसरा
नाम है मुरली का - मुरलीकांत पेटकर। जहां अन्य खेलों में करोड़पति खिलाड़ियों पर सरकार
और कंपनियाँ, इनाम और रुपयों की वर्षा कर अपने आप को गौरवान्वित अनुभव करती
हैं वहाँ जिंदगी से लड़-लड़ कर मील का पत्थर साबित करने वालों को कोई नहीं पूछता।
बचपन
में ओलंपिक में स्वर्ण-पदक जीतने का सपना देखा था मुरलीकांत पेटकर ने। इस सपने ने
उन्हें कुश्ती के दंगल में उतार दिया। और फिर शुरू हुआ जीवन-संग्राम। सबसे पहले
अपने ही परिवार से। पिता चाहते थे बच्चा स्कूल जाए लेकिन वह पहुँच जाता था अखाड़े
में। घर से भाग कर पहुँच गए सेना के प्रशिक्षण शिविर में और उसके साथ ही कुश्ती के
अखाड़े से बॉक्सिंग रिंग में। लेकिन शायद यह
भी उनकी फिदरत में नहीं था। 1965 में भारत-पाकिस्तान की जंग में बुरी तरह घायल
हुए। रीड़ की हड्डी में फंसी गोली नहीं निकल सकी। परिणाम - पैरों से लाचार हो गये।
जब कहीं रास्ता नहीं सूझता तब दिव्य रोशनी, मंजिल दिखाती है। पता चला कि पैरालंपिक्स (विकलांगों
का ओलिंपिक्स) में तैराकी में उम्मीद है। बस फिर क्या था। लग गए इसकी तैयारी में।
लेकिन कठिनाइयों ने अभी पीछा नहीं छोड़ा था। आतंकवादियों के हमले के कारण उस वर्ष प्रतियोगिता
स्थगित हो गई। इसका मतलब था और एक वर्ष की प्रतीक्षा। मुरलीकांत ने हिम्मत नहीं
हारी, आत्मविश्वास बनाए रखा और अगले वर्ष 1972 में जर्मनी में आयोजित पैरालंपिक्स में
तैराकी में स्वर्ण-पदक जीत कर अपने सपनों को पूरा किया। 2018 में पद्मश्री और 2025
में अर्जुन पुरस्कार से नवाजा गया। यह था उनके आत्मविश्वास के झरने से बहता मीठा
पानी। 2024 में मुरलीकांत के जीवन पर कबीर खान ने बनाई बायोपिक ‘चंदू चैम्पियन’।
अपने बच्चों से यह कभी मत कहिए कि वे कुछ नहीं कर
सकते। उनमें अपार ऊर्जा है। सफलता की निशानी केवल पढ़ाई में अव्वल आना नहीं
है, मंज़िलें और भी
हैं, अगर आत्मविश्वास बरकरार है।
जीवन
जीने के दो ही तरीके हैं -
पहला, यह मानना कि कोई चमत्कार नहीं होता;
और
दूसरा यह मानना कि हर वस्तु एक चमत्कार है।
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