बचपन में किये हुए ट्रेन के सफर कभी-कभी बहुत याद आते हैं। ट्रेन में सफर का
मतलब होता था, आज का स्लीपर
क्लास। न इतनी सुविधा थी और न ही ऐसे ऐशो-आराम। बिस्तर के अलावा रास्ते में खाने
की पूरी सामग्री और पीने का पानी भी साथ लेकर ही चलते थे। आईआरसीटीसी, केटरिंग, ऑन-लाइन ऑर्डर (IRCTC, catering,
online order) आदि जैसी कोई सुविधा नहीं थी,
और-तो-और पानी की बोतलें भी नहीं मिलती थीं। लंबे सफर में कई बार प्लेटफॉर्म पर ही
मंजन-ब्रश ही नहीं, स्नान किया हुआ भी याद है। साथ-साथ सफर
करने वालों से अनेक बातें होतीं, खाना आपस में बंटता और कई
बार तो अच्छी-ख़ासी दोस्ती और परिचय हो जाता जो वर्षों तक चलता। हमसफर पर हमें पूरा भरोसा और
विश्वास होता। आज की तरह नहीं कि एक-दूसरे का खाना नहीं लेते-देते। शंका से देखते
हैं कि पता नहीं क्या होगा, क्या मिलाया होगा? पूरी इंसानियत और भाई-चारे के साथ पूरा सफर तय होता।
यह वह वक्त था जब हम सभी
ज़्यादातर ट्रेन में ही सफर करते थे। हवाई सफर बहुत महंगा था और सिर्फ अमीर और बड़े
लोगों को ही नसीब था। हम लोगों का कोलकाता से इलाहाबाद जाने की कार्यक्रम बना, त्रिवेणी संगम में स्नान करने के लिये। हमारे
माता-पिता, हमारे दो भाई और एक बहन।
मेरी उम्र शायद उस वक्त 12 साल की रही होगी। डिब्बे में ज़्यादा भीड़ नहीं थी,
एक मंडली थी जो शादी के बाद दूल्हे-दुल्हन के साथ जा रही थी। सभी गाड़ी में बैठते ही
नाश्ता पानी करने और कराने में लग गये थे। वो नाश्ता हम लोगों के पास भी भेजा गया
लेकिन पापा ने “भैया हम भी खाना लाये हैं खराब हो जायेगा”, कह कर मना कर दिया। धीरे-धीरे लगा हम सब भी
उसी बारात का हिस्सा बन गये हैं बिना किसी आमंत्रण के। तब भाईचारा दिलों में
ज़्यादा था, कौन क्या है कैसा है ये आंकड़े नहीं लगाये जाते थे। वैसे भी
एक साथ सफ़र करने वाले सब हमसफर से बन जाते थे – सोच-सोच का फर्क है,
कभी जोड़ता है कभी
तोड़ता है।
गाड़ी हमारी हावड़ा से चलकर रास्ते में बखतियारपुर में भी रुकती थी।
माँ पूरी-सब्जी लेकर आयी ही थी, हम
लोगों ने खाना शुरू किया। बखतियारपुर से हमारी ट्रेन आगे बढ़ने लगी तभी एक बूढ़ी
माई जो पैसा मांगने वाली फ़कीर थी, चुपचाप हर सीट के पास
जाकर कुछ मांग रही थी। कोई मना कर देता था तो आगे बढ़ जाती थी कोई कुछ दे देता तो ‘सुखी रहो’ कह कर आगे बढ़ जाती।
वो हमारी सीट के पास भी आयीं तो माँ ने उनको कुछ पूरी और
सब्जी खाने को दे दी, तो उन्होंने चैन से वहां बैठकर खाई और माँ को बहुत सारी दुआएं भी दीं,
हमारे पास पानी भी था। उस समय मिट्टी की सुराही लेकर हम लोग
चलते थे,
पानी ठंडा हो जाता था। माँ ने पीतल के गिलास में माई को पानी दिया जिसे उन्होंने
अपने लोटे में डाल के पी लिया। वो, हमारी सीट से लग कर बैठ गयी थी, माँ से बोली - बिटिया
हम अगले स्टेशन पे उतर जे हैं और फिर पूछा ‘बिटिया कहां जा
रही हो?’ माँ ने उन्हें बताया कि हम लोग इलाहाबाद जाएंगे
त्रिवेणी, गंगा स्नान करने। तो बूढ़ी माई बहुत खुश हो गयी।
अच्छा-अच्छा गंगा मैया के पास। भगवान भला करे। कहते-कहते वो उठीं और आगे बढ़ गयीं।
थोड़ी देर बाद वह वापस हमारे पास आयी और उन्होंने जितने पैसे लोगों से पाये थे
उनको कागज़ की पुड़िया में लपेट कर माँ को दिया और बोलीं, ‘बिटिया त्रिवेणी
में जब जाओ तो गंगा मैया को दे दियो और कह दियो सरस्वती ने भेजो है। बिटिया हम तो
कभी जा ना पाएंगे हमें कौन लेकर जा है। हम तो अकेले हैं ऐसे ही चलत-फिरत ट्रेन
मेंई मर जे हैं। हम तो ना पहुंच पाएंगे गंगा मैया तक, तो
बिटिया तुम हमाई तरफ से उनखों जे भेंट पहुंचा दियो और प्रसाद लेकर के चढ़ा दैयो।’ माँ ने उनको पैसे लौटा दिये,
उनसे कहा, ‘नहीं नहीं अम्मा हम चढ़ा
देंगे प्रसाद और कह देंगे कि सरस्वती ने भेजा है प्रसाद।’
माई फ़कीर तो थीं लेकिन स्वाभिमानी थी बोली, ‘नहीं-नहीं बिटिया ऐसे
तो पाप पड़ जाएगो, सरस्वती ने पैसा नई भेजो, गंगा मैया को तुरंत पता चल जे है। बिटिया हम झूठे बन जे हैं। बिटिया देखो
तुम जे पैसा ले लो। इनको प्रसाद ले के गंगा मैया को भेंट करियो और तब बोल दियो कि
सरस्वती ने भेजो है, पांव हम अबै पड़ ले रए।’ बूढ़ी माई ने सर पे पल्लू ठीक करके हाथ में पल्लू का छोर पकड़ के ज़मीन
को तीन बार सर रख के नमन किया। माँ की आंखों में आंसू आ चुके थे उन्होंने बूढ़ी
माई की दी हुई पैसों की पुड़िया को अपने बटुए में अच्छे से रख लिया और बोली कि हां-हां
माँजी हम ज़रूर गंगा मैया तक पहुंचा देंगे। प्रसाद भी चढ़ा देंगे और बोल भी देंगे
कि सरस्वती ने भेजा है। बूढ़ी माई रोने लगी, ‘हां हां बिटिया आज तो
भाग खुल गये हमाये। हम सोचेंगे कि हमने त्रिवेणी नहा लई। भगवान भला करे तुम्हार
बिटिया सदा सुहागन रहो।’ अगले स्टेशन पर वह माँ के पांव छू, उतर गयीं।
माँ खिड़की से हाथ निकाल कर
उनको आवाज़ दे रही थी कि चिंता ना करना माँजी हम ज़रूर प्रसाद चढ़ा देंगे। माई ने
चलती गाड़ी से माँ के हाथ छूते हुए कहा, ‘सरस्वती-सरस्वती। बिटिया नाम ना भूल जाना, उनको बोल देना सरस्वती ने भेजो है। चलती
ट्रेन से उनका हाथ छूट गया था।
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