(कहानी नहीं, उन सच्ची घटनाओं में से एक है यह, जिनमें जात-पाँत के होते हुए भी इन्सानों में सच्ची इन्सानियत का जज्बा उझक-उझक कर झलकता है और होठों पर बरबस मुस्कान और मोहब्बत की लकीरें खींच जाती है। इंसान इंसान होता है, वह न हिन्दू है न मुसलमान, न सिक्ख, न ईसाई। वह न गरीब है न धनवान। इंसान की पहचान सिर्फ और सिर्फ उसके कर्मों से होती है। जात-पांत से परे सब उसी एक ही कुम्हार की रचना है जिसने सब को गढ़ा है।)
मैं एक किसान का लड़का हूँ,
मगर मैंने खुद कभी हल नहीं चलाया। मेरे पिताजी खेती का काम
अच्छी तरह से जानते थे। हमारे पड़ोसी भी खेती से ही अपना गुज़ारा करते थे। हमारे और
उनके खेत पास-पास थे। अतः हमारे बीच अच्छा संबंध था। मेरे पिताजी उनको अपने भाई की
तरह मानते थे। हम सब उन्हें चाचा कह कर पुकारते थे। वे दोनों अलग-अलग संप्रदाय के
थे, लेकिन हमें इसकी जानकारी नहीं थी, न हमें बताया गया न हमने कभी महसूस किया। चाचा भी हमारे साथ अपने बच्चों
का-सा ही बरताव करते थे। अक्सर, फसल के दिनों में मेरे पिता
और चाचा बारी-बारी खेतों की रखवाली करते, और इस तरह पैसा और वक़्त दोनों बचा लिया करते थे।
जब कभी हम मुँह
अँधेरे अपने खेत पर जाते, तो दूर से ही चिल्ला कर पुकारते- "चाचा,
सो रहे हो या जाग रहे हो?" वे खेत में से जवाब देते– “आओ बेटा,
आओ ! आज मैंने बहुत अच्छी-अच्छी ककड़ियाँ और मीठे-मीठे
खरबूजे तोड़ी हैं। आओ,
ले जाओ"। अक्सर चाचा अपनी प्लेट में
रोटी रख कर हमारे घर आते और मुझे आवाज देकर कहते “बेटा,
जरा देखो तो तुम्हारे घर कोई साग तरकारी बनी है?"
मैं दौड़ा-दौड़ा माँ के पास जाता और तरकारी,
अचार और दूसरी अच्छी-अच्छी खाने की चीजें थाली में ले आता
और उनकी प्लेट में रख देता। चाचा वहीं बैठ कर बड़े मजे से खाते। मेरे इस बरताव से
अक्सर उनकी आँखों में प्यार के आंसू छलछला आते।
इस तरह मेल-मोहब्बत वर्षों बीत
गये,
और दोनों परिवारों में आपसी भाईचारा बढ़ता गया। इस बीच मेरे पिताजी गुज़र गये। अब तो चाचा
हमें पहले से भी ज़्यादा प्यार करने लगे। मेरे बड़े भाई हमेशा उनकी सलाह से काम
करते,
और चाचा भी उन्हें सच्ची सलाह देते।
एक बार, पहले संप्रदाय के जानवर चरवाहों की लापरवाही से दूसरे संप्रदाय के बगीचे में घुस गये और बहुत से पेड़-पौधे चर गये। उन्हें यह बात बहुत बुरी मालूम हुई और उन्होंने गाँव के चरवाहों की खासी मरम्मत की और जानवरों को हांक का अपनी ओर ले जाने लगे। चरवाहों ने यह खबर गांव में पहुंचायी। जानवरों के मालिक अपनी लाठियाँ संभाल कर मौकाये वारदात पर पहुंच गये। बात बिजली की तरह सारे गाँव में फैल गयी, और आसपास के दोनों संप्रदाय के लोग एक दूसरे से लड़ने के लिए मैदान में जमा होने लगे। घण्टों तू-तू, मैं-मैं होती रही और लाठियों के चलने की पूरी तैयारी हो गयी। समझौते की सब कोशिशें बेकार साबित हुई। सबों ने लाठी, पत्थर, ईंट वगैरह जो भी चीज मिली, जमा कर ली। वे लड़ने और मरने मारने पर तुल गये।
चाचा भी अपने बेटों और पोतों
के साथ वहां मौजूद थे। उन्होंने झगड़ा मिटाने की बहुत कोशिश की, मगर किसी ने उनकी न सुनी। उन मवेशियों में हमारे मवेशी भी थीं, इसलिए मेरे भाई भी वहाँ पहुंच गये थे। औरतों और बच्चों को
छोड़ कर सारा गाँव वहाँ जमा हो गया था। औरतें बेचारी हैरान थी और सोचती थी – मर्दों का क्या
होगा?
मुझे भी झगड़े का पता चल गया।
मैंने किताबें एक कोने में पटकी, माँ मना
करती रही,
मगर मैं मैदान की तरफ भाग लिया, और तेज़ी से उस जगह पहुँच गया जहाँ लोगों की भीड़ जमा थी।
देखा तो मालूम हुआ कि चाचा अपने बेटों और पोतों के साथ सामने वाले दल में सबसे आगे
खड़े थे। मैंने बड़ी मासूमियत से उनसे पूछा- " चाचा, आप किस तरफ हैं?"
चाचा ने फ़ौरन अपने एक बेटे
के हाथ से लाठी ली,
और वे मेरे पास आ खड़े हुए और मुझे गोद में उठा लिया।
उन्होंने अपने बेटों से कहा- "इसका पिता आज ज़िन्दा नहीं है, इसलिए मैं इसके साथ रह कर ही लड़ूँगा। तुम उस तरफ़
रहो।" चाचा को दूसरी तरफ़ जाते देख कर सब लोग दंग रह गये। कुछ देर तक वहाँ
सन्नाटा छाया रहा। सब शर्मिन्दा हो गये और बिना कुछ बोले अपने-अपने घरों की ओर चल
पड़े। चाचा के पीछे-पीछे हम सब भी अपने-अपने घर लौट आये।
उस दिन तो मैं समझ ही न पाया
कि इतना बड़ा झगड़ा एकदम कैसे ठण्डा पड़ गया। लेकिन आज मैं इस चीज़ को अच्छी तरह
समझता हूँ,
क्योंकि आज मैं इन्सानियत से परिचित हो गया हूँ।
चाचा अब इस दुनिया में नहीं
रहे। लेकिन मैं उन्हें कभी नहीं भूलूँगा। किसी भी दो संप्रदाय में मार-पीट, दंगे की खबर सुनता हूँ तो आँखों में आँसू आ जाते हैं और बरबस
बड़बड़ा उठता हूँ " चाचा! आप किस तरफ हैं?" और मुझे अपने प्यारे चाचा की मानों सदियों से सुनी आ रही वही भीनी-भीनी ख़ुशबू
लिये आवाज़ सुनायी देती है— “बेटा, तेरा चाचा दुनिया की नज़रों में भले सो चुका हो, लेकिन तेरी हर पुकार पर हमेशा की तरह दौड़ कर, तुझे अपनी बाँहों में भर, तुझे हर
मुश्किल से पार लगा देगा।"
अगर हवा देनी ही है तो
इंसानियत को हवा दीजिये, हैवानियत को नहीं।
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