शुक्रवार, 17 मई 2024

निवाला

          

 

          वैसे तो कोरोना-काल को अब हम भूलने लगे हैं लेकिन उसकी खट्टी-मीठी यादें अभी भी हमारे जेहन में कैद हैं। उन्हें याद कर कभी आँखों में आँसू तो कभी होठों पर मुस्कुराहट आ जाती है।  बहुतों ने दूसरों की चिता पर अपनी रोटियाँ सेंकी तो ऐसे लोग भी थे जिन्होंने अपनी चिता जला कर दूसरों के लिये रोटियाँ सेकीं। किसी ने दूसरे का निवाला छीना तो किसी ने अपना निवाला दूसरे के मुंह में डाला। ऐसी ही एक घटना है जिसे याद कर आँखों में आँसू भी आते हैं और होठों पर मुस्कुराहट भी।

          रात भर बेचैन रहा, करवटें ही बदलता रहा, नींद नहीं आई। बड़ी मुश्किल से सुबह कुछ निवाले मुंह में डाल घर से अपने शोरूम के लिए निकला। आज किसी के पेट पर पहली बार लात मारने जा रहा हूँ। यह बात अंदर ही अंदर कचोट रही थी। जिंदगी में यही फलसफा रहा है मेरा, यही सीखा है अपने माँ-बाप से,  कि अपने आस-पास किसी को रोटी के लिए तरसना ना पड़े। पर इस विकट-काल में अपने पेट पर ही आन पड़ी थी। दो साल पहले ही अपनी सारी जमा पूंजी लगाकर कपड़े का शोरूम खोला था, मगर दुकान की बिक्री, अब आधी से भी कम हो गई थी। अपने शोरूम में दो लड़के और दो लड़कियों को रखा था मैंने, ग्राहकों को कपड़े दिखाने के लिए। महिला विभाग (लेडीज डिपार्टमेंट) की दोनों लड़कियों को निकाल नहीं सकता। एक तो कपड़ों बिक्री इन्हीं की ज्यादा है। दूसरे वे दोनों बहुत गरीब हैं। दो लड़कों में से एक पुराना है और वह घर में इकलौता कमाने वाला  है। जो नया लड़का है दीपक, मैंने विचार उसी पर किया है। शायद उसका एक भाई भी है, जो अच्छी जगह नौकरी करता है। और वह खुद, तेजतर्रार और हँसमुख भी है। उसे कहीं और भी काम मिलने की उम्मीद ज्यादा है। इन पांच महीनों में मैं बिलकुल टूट चुका हूँ। स्थिति को देखते हुए एक कर्मचारी को कम करना मेरी मजबूरी है। इसी उधेड़बुन में दुकान पहुंचा।

          चारों आ चुके थे। मैंने चारों को बुलाया और बड़ी मुश्किल से अपने आँसू को रोकता उदासी से कमजोर आवाज में बोल पड़ा, “देखो दुकान की अभी की स्थिति तुम सब को पता है, तुम लोग समझ रहे होगे कि मैं तुम सब को काम पर नहीं रख सकता।

          उन चारों के माथे पर चिन्ता की लकीरें मेरी बातों के साथ गहरी होती चली गई। मैंने पानी से अपने गले को तर किया और आगे कहा, “मुझे किसी एक का हिसाब आज करना ही होगा। दीपक तुम्हें कहीं और काम ढूंढना होगा।”

“जी अंकल”, उसने धीरे से कहा। उसे पहली बार इतना उदास देखा था। बाकियों के चेहरे पर भी उदासी की छाप स्पष्ट नजर आ रही थी। एक लड़की जो शायद दीपक के मोहल्ले में ही रहती है, कुछ कहते-कहते रुक गई।

“क्या बात है बेटी? तुम कुछ कह रही थी?”

“अंकल जी, इसके भाई का भी काम कुछ एक महीने पहले छूट गया है। इसकी मम्मी बीमार रहती है,” अपने आँसुओं को बड़ी मुश्किल से रोकते हुए वह इतना ही बोल पाई।

नज़र दीपक के चेहरे पर गई। उसकी आँखों में जिम्मेदारी के आँसू थे, जिसे वह अपने हँसमुख चेहरे से छुपा रहा था। मैं कुछ बोलता कि तभी एक और दूसरी लड़की बोल पड़ी, “अंकल, बुरा ना माने तो एक बात बोलूं?

“हाँ हाँ बोल ना।”

“किसी को निकालने से अच्छा है, आप हमारे सबों के पैसे कुछ कम कर दो।”

मैंने बाकियों को तरफ देखा।  

“हाँ अंकल! हम कम में काम चला लेंगे।”

बच्चों ने मेरी परेशानी को आपस में बांटने का सोच मेरे मन के बोझ को कम कर दिया था।

पर तुम लोगों को ये कम तो नहीं पड़ेगा न?

नहीं अंकल! कोई साथी भूखा रहे ... इससे अच्छा है, हम सब अपना निवाला थोड़ा कम कर दें।

मेरी आँख में आंसू छोड़ ये बच्चे अपने काम पर लग गये, मेरी नजर में मुझसे कहीं ज्यादा बड़े बनकर।

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शुक्रवार, 10 मई 2024

अलमस्त पुजारी

 


                                                               चिंतन

           रानी रासमणि ने माँ काली की प्रेरणा से उनका एक विशाल मंदिर बनवाया। संत स्वभाव की रानी  ने माँ की पूजा-आराधना करने के विचार से बंगाल त्याग कर वाराणसी जाने का निश्चय किया और जाने की तैयारियां शुरू हो गई। लेकिन तभी प्रस्थान के एक दिन पहले रानी को सपने में माँने रानी से कहा कि रानी उस स्थान को छोड़ कर न जाये बल्कि  वहीं उनको स्थापित कर उनकी पूजा की व्यवस्था करें।  माँ स्वयं उनका प्रसाद ग्रहण करेंगी।  इस सपने से प्रेरित हो कर रानी ने वाराणसी जाने का मन त्याग कर इस मंदिर का निर्माण 1855 में करवाया।

          समस्या थी मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा और नियमित पूजा करने के लिए ब्राह्मण की। रानी रासमणि चूंकि शूद्र थी, उसके मंदिर में कोई ब्राह्मण प्राणप्रतिष्ठा करवाने के लिए राजी नहीं हुआ। जबकि संत स्वभाव की रासमणि इस डर से कि कहीं मंदिर अपवित्र न हो जाये, खुद कभी मंदिर के अंदर नहीं गयीं!  यह तो ब्राह्मण होने का लक्षण हुआ,  जो अपने को शूद्र समझे, वह ब्राह्मण, जो अपने को ब्राह्मण समझे, वह शूद्र लेकिन समाज तो अपनी समझ से चलता है। वह तो अपना पुश्तैनी अधिकार छोड़ना नहीं चाहता भले ही अपने कर्तव्य से च्युत हो जाये।

          रासमणि कभी मंदिर के पास भी नहीं गयी, बाहर से घूम आती थीदक्षिणेश्वर का भव्य मंदिर उसने बनवाया था, लेकिन पूजा करने के लिए कोई पुजारी नहीं मिल रहा थारासमणि शूद्र थीं इसलिए वह खुद पूजा कर नहीं सकती थीं। बड़ी समस्या थी।

          यह सोच सोच कर कि क्या मंदिर बिना पूजा के रह जायेगा, वह बड़ी दुखी थीफिर किसी ने खबर दी कि गदाधर नाम का एक अलमस्त ब्राह्मण लड़का है, लोगों को लगता है कि उसका दिमाग थोड़ा गड़बड़ है, लेकिन शायद वह राजी हो जाये! रानी को आशा की किरण दिखी तो उसने लोगों को गदाधर को बुलाने के लिये भेजा! रानी के भेजे लोगों ने गदाधर से मंदिर में पूजा करने के लिए पूछा और गदाधर तैयार हो गया। उसने एक बार भी नहीं कहा कि ब्राह्मण होकर मैं शूद्र के मंदिर में कैसे जाऊं? कहा, ठीक है, प्रार्थना जैसे यहां करते हैं, वैसे वहां करेंगे

          घर के लोगों ने रोका, मित्रों ने भी कहा कि कहीं और काम दिला देंगे, काम के पीछे अपने धर्म को काहे खो रहा है? गदाधर ने कहा, नौकरी का सवाल ही नहीं है; भगवान बिना पूजा के रह जायें, यह बात जंचती नहीं; पूजा करेंगे

          लेकिन फिर एक नयी समस्या। रासणि को पता चला कि यह पूजा तो करेगा, लेकिन पूजा करने के लिए यह दीक्षित नहीं हैइसने कभी किसी मंदिर में पूजा नहीं की हैइसकी पूजा का कोई शास्त्रीय ढंग नहीं, विधि-विधान नहीं और इसकी पूजा भी अनूठी ही है; कभी करता है, कभी नहीं भी करता  कभी तो दिन भर करता है, कभी महीनों भूल जाता हैऔर भी गड़बड़ है; यह भी खबर आयी है कि यह पूजा करते वक्त पहले खुद भोग लगा लेता है अपने को, फिर भगवान को लगाता हैमिठाई वगैरह हो तो खुद चख लेता हैहताश रासमणि ने कहा, अब जैसा है, एक बार आने दो, कम से कम कोई आ तो रहा है

          गदाधर आया, लेकिन गड़बड़ियाँ शुरू हो गयींकभी पूजा होती, कभी मंदिर के द्वार बंद रहतेकभी दिन बीत जाते घंटा न बजता, दीया न जलता; और कभी ऐसा होता कि सुबह से प्रार्थना चलती तो बारह-बारह घंटे नाचता ही रहता पगला पुजारीरासमणि तो चुप रहीं लेकिन मंदिर के ट्रस्टी थे, उन्होंने बैठक बुलायी, पूछा, “भई, ये कैसी-किस तरह की पूजा है? किस शास्त्र में लिखा है ऐसा विधान?

          पुजारी हंसने लगा बोला,शास्त्रों से पूजा का क्या सम्बंध! पूजा तो प्रेम की अभिव्यक्ति है, अनुग्रहीत होने का भाव हैकृतज्ञ मन की भेंट है, यह औपचारिक हुई तो इसका कोई अर्थ नहीं, जब मन ही नहीं होता करने का, तो पूजा करना गलत होगा। भले ही कोई न पहचाने, लेकिन जिसकी पूजा की है, वह तो पहचान ही लेगा कि बिना मन के पूजा की जा रही हैतो भैया, मेरे लिये थोड़े ही पूजा कर रहा हूंजिसके लिए करता हूं, उसको मैं धोखा नहीं दे सकूंगाजब करने का मन ही नहीं हो रहा, जब भाव ही नहीं उठता, तो झूठे आंसू बहाऊंगा, तो परमात्मा पहचान लेगायह तो पूजा न करने से भी बड़ा पाप हो जायेगा कि भगवान को धोखा दे रहा हूंअपना यह है कि जब उठता है भाव तो इकट्ठी ही कर लेता हूं पूजादो तीन सप्ताह की अर्चना-आराधन एक दिन में निपटा देता हूं, लेकिन कान खोल कर सुन लो, बिना भाव के मैं पूजा नहीं करूंगा।”

          ट्रस्टियों ने कहा, “तुम्हारा कुछ विधि-विधान नहीं मालूम पड़ता, कहां से शुरू करते हो कहां अंत करते हो कुछ पता ही नहीं।”

          पुजारी बुरा मान गया कहा, “तो हम कोई अपनी मर्जी से करते हैं? वह जैसा करवाता है, वैसा हम करते हैं, हम अपना विधि-विधान उस पर थोपते नहीं, यह कोई क्रियाकांड नहीं है, पूजा है, यह प्रेम हैजिस रोज जैसी भावदशा होती है, वैसा होता हैकभी पहले फूल चढ़ाते हैं, कभी पहले आरती करते हैं, कभी नाचते हैं, कभी शांत बैठते हैं, कभी घंटा बजाते हैं, कभी नहीं भी बजाते हैं।”

          ट्रस्टियों ने समझौता करते हुए कहा, “चलो, यह भी जाने दो, पर यह तो पाप है कि पहले भोग तुम खुद चखते हो, फिर भगवान को चढ़ाते हो, दुनिया में कहीं ऐसा सुना नहींतुम भोग खुद को लगाते हो, प्रसाद भगवान को देते हो

          पुजारी ने इनकार में सिर हिलाया, यह तो मैं कभी न कर सकूंगाजैसा मैं करता हूं, वैसा ही करूंगामेरी मां भी जब कुछ बनाती थी तो पहले खुद चख लेती थी, फिर मुझे देती थीपता नहीं, देने योग्य है भी या नहींकभी मिठाई में शक्कर ज़्यादा होती है, मुझे ही नहीं जंचती, तो भोग कैसे चढ़ाऊं? कभी शक्कर होती ही नहीं, मुझे ही नहीं जंचती, तो भगवान को कैसे प्रीतिकर लगेगी? जो मेरी मां मेरे लिये न कर सकी वह मैं परमात्मा के लिए नहीं कर सकता हूं” वह जाने के लिए उठ खड़ा हुआ।

          रानी ने सिंहासन से उतर कर फक्कड़ पुजारी के पैर पकड़ लिये- “आप ही करोगे पूजा”उनकी आंखों से आंसू बह रहे थेउस अलमस्त पुजारी को आगे जाकर देश ने रामकृष्ण परमहंस के नाम से जाना

          स्वामी विवेकानंद इन्हीं रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। इन्होंने ही विवेकानंद के प्रश्न पर पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था, “हां मैं तुम्हारी भगवान से बात करवा सकता हूँ, ठीक वैसे ही जैसे हम और तुम बात कर रहे हैं।”

          ऐसे प्रेम से जो भक्ति उठती है, वह तो रोज-रोज एकदम नयी ही होगीउसका कोई क्रियाकांड नहीं हो सकताउसका कोई बंधा हुआ ढांचा नहीं हो सकताप्रेम भी कहीं ढांचे में बंधा हुआ होता है? पूजा का भी कहीं कोई शास्त्र होता है? प्रार्थना की भी कोई विधि होती है? वह तो भाव का सहज आवेदन है, मुक्त तरंग है

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शुक्रवार, 3 मई 2024

 


गलत गलत है, भले ही उसे सब कर रहे हों।

                    सही सही है, भले ही उसे कोई न कर रहा हो।

                                                                                      दलाई लामा


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शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

आई एम ओके, यू आर ओके


                                               

(I am OK, you are OK)                                                                             मेरे अनुभव

              

किसी समय पॉण्डिचेरी के नाम से विख्यात स्थान का नाम अब पुडुचेरी हो गया है। लोग संक्षिप्त में इसे पौंडी भी कहते हैं। हम इस पचड़े में न पड़ कर इसे पुडुचेरी ही कहेंगे। इस स्थान को विश्व के मान चित्र में स्थान दिलाने का श्रेय श्रीअरविंद, श्रीमाँ और इनकी ही प्रेरेणा से बने और बसे औरोविल को जाता है।

          श्री अरविंद आश्रम, पुडुचेरी  एक चाहरदीवारी में समाया हुआ नहीं है। इसके अलग-अलग विभाग शहर के कई हिस्सों में फैले हैं। औरोविल तो लगभग 14 कि.मी. की दूरी पर है। इन विभागों में एक है सब्दा’, जी हाँ ‘SABDA’। इसे सब्द या शब्द  कहने या समझने की भूल मत कीजियेगा। SABDA यानी Shree Arvind Book Distribution Agency। शायद किसी समय इस विभाग से सिर्फ श्री अरविंद एवं श्री माँ से संबन्धित पुस्तकों का ही विक्रय / वितरण हुआ करता होगा लेकिन आज यहाँ से इसके अलावा आश्रम तथा आश्रम से जुड़े हुए कुटीर तथा हस्त शिल्प उद्योग की वस्तुओं का भी विक्रय होता है। ऐसे स्टोर पुडुचेरी के अलावा आश्रम की शाखाओं तथा अनेक केन्द्रों में भी हैं। इनके अनेक उत्पादों में एक है सुगंधित तेल (एसन्स ऑइल)। इस स्टोर में यह तेल अलग-अलग अनेक  खुशबू में उपलब्ध है।  

          एक दिन एक महिला सब्दा के किसी स्टोर में आईं, उन्हें यही सुगंधित तेल लेना था। महिला, जहां इसकी शीशियाँ सजी थीं, वहाँ पहुंची, एक सरसरी नगाह से उन्हें देखा और फिर अपने पसंद की खुशबू का तेल खोजना शुरू किया। सब शीशियाँ पैकिंग में सील की हुई थीं। उन्हीं शीशियों के सामने बिना सील की हुई शीशियाँ भी रखी थीं। उन पर रौलर लगे थे ताकि तेल को अपने हाथ पर लगा कर खुशबू की परख की जा सके। महिला ने कई शीशियों की खुशबू को परखा, उन्हें एक खुशबू पसंद आई। महिला उस शीशी को लेकर स्टोर के एक कर्मचारी, प्रशांत के पास पहुंची और हाथ की शीशी दिखा कर कहा, मुझे इसकी एक शीशी चाहिये, लेकिन ये रोलर वाली नहीं चाहि‎‎ये सपाट मुंह वाली चाहि‎‎ये जिससे बूंदे टपकाई जा सकें।

          प्रशांत इस स्टोर में एक स्वयंसेवक के रूप से कई वर्षों से अपनी सेवा प्रदान कर रहे थे, एक प्रसन्नचित, कर्तव्यनिष्ठ, हंसमुख सेवक। कभी कोई तकरार होती मुसकुराते हुए, अपने खास अंदाज में कहते आई एएम ओके, यू आर ओके’, और तकरार समाप्त हो जाती। प्रशांत ने मेज की दराज से एक शीशी निकाली जिसका मुंह सपाट था और उस महिला को दिखा कर पूछा, क्या आपको ऐसी शीशी चाहिये?’

हाँ, हाँ ऐसी ही चाहिये।

आपने जहां से यह रोलर वाली शीशी उठाई है वहीं उसके पीछे रखी सीलबंद शीशी ले लीजिये’, प्रशांत ने सलाह दी।

महिला असमंजस में पड़ गई, नहीं, मुझे वे रोलर वाली नहीं सपाट मुंह वाली शीशी चाहि‎‎ये।

जी हाँ, वहाँ वैसी ही शीशियाँ हैं, यह तो केवल नमूने (सैम्पेल) के लि‎‎ये है।

महिला खिन्न होने लगी, आप भी अजीब हैं, मैं कह रही हूँ कि मुझे यह नमूने वाली नहीं चाहिये और आप मुझे बार-बार वहीं से लेने कह रहे हैं।

बहनजी मैं आप को कह रहा हूँ कि आपके हाथ की शीशी रोलर वाली नमूने की हैं लेकिन दूसरी सील की हुई शीशियाँ में रोलर लगे हुए नहीं हैं।

अभी तो आप ने कहा कि ये नमूने की शीशियाँ हैं, मुझे ये नमूने वाली नहीं चाहिये’, महिल ने फिर से दोहराया।

          “@#$%^ ......”

          “...... _&%#.....”

          दोनों एक दूसरे के समझाते रहे। दोनों समझाने में लगे थे, समझने का प्रयत्न नहीं कर रहे थे।  नतीजा, उनके बीच तकरार बढ़ गई। प्रशांत थक हार कर  महिला की उपेक्षा करता हुआ अन्य कागजों के पन्ने पलटने लगा। महिला को यह अपना अपमान महसूस हुआ। अब तक दोनों खीज और झुंझलाहट से भर चुके थे। आखिर प्रशांत ने कहा, देखिये मैडम, मैं आपको हर तरह से समझा कर हार चुका हूँ, मेरे पास अब कहने को कुछ नहीं है, आप अगर नहीं समझना चाहती हैं तो आप की जैसी इच्छा हो कीजिये। लेकिन महिला तुनक गई, आप समझ ही नहीं रहे हैं उल्टे मुझे दोष दे रहे हैं कि मैं नहीं  समझ रही हूँ, और तो और मेरा अपमान कर रहे हैं।

यह तो आश्रम की शांति और नीरवता थी जिस कारण दोनों ने अपनी आवाज को भरसक धीमा ही रखा, लेकिन  एक अन्य कर्मचारी, सुबीर, परिस्थिति की  नाजुकता को समझ कर वहाँ आ पहुंचा।  धीरे से मैडम से कहा, आप मेरे साथ आइये मैं आपको देता हूँ। सुबीर महिला को उसी तेल के सेल्फ के सामने ले गया। सामने लगी शीशी को उठाते हुए बताया कि इन रोलर वाली  शीशियों में तेल के सैम्प्ल्स रखे हैं ताकि ग्राहक इनकी महक का परीक्षण कर सकें, ये बेचने के लिये नहीं हैं और इनके पीछे जो ये जो पैक और सील कि‎‎ये हुए हैं इनमें यही तेल हैं लेकिन इनकी शीशी का मुंह सपाट है, इनमें रोल्लेर्स नहीं लगे हुए हैं, इनसे बूंद टपकाई जा सकती है।

ओह, अच्छा, बस इतनी सी बात है। समझाना तो आता नहीं और बहस करते हैं’, महिला ने प्रशांत को घूरते हुए कहा और आगे बढ़ गई।  

प्रशांत कुछ कहने को उद्यत हुआ तभी सुबीर उन दोनों के बीच आ कर प्रशांत की ओर मुसकुराते हुए कहा, आई एएम ओके, यू आर ओके। प्रशांत के ओठों पर भी मुस्कुराहट आ गई, महिला बिलिंग सेक्शन की तरफ चली गई।

          बात सामान्य सी ही थी बस समझ का फेर था। कहने के पहले ध्यान से सुनिये कि दूसरा क्या कहा रहा है, तब प्रश्न कीजिये। अगर सामने वाला  समझ नहीं रहा है तो फिर से समझाने के पहले यह समझि‎‎ये कि उसके समझने में कहाँ भूल हो रही है। अनेक मनमुटाव, कलह, झगड़े और-तो-और युद्ध का कारण भी यही समझ का फेर होता है। इससे बचिये।

          अगर, आई एएम ओके यू आर ओके पसंद नहीं है तो दिल को हलकी सी थपकी देते हुए ऑल इज़ वेल भी कह सकते हैं।

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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

नालायक


             

प्रायः यह देखने में आता है कि हमें बड़ी जल्दी रहती है किसी के बारे में भी अपनी एक धारणा बनाने की।, एक अनुमान लगाने की, बिना सोचे-समझे और विचार किये। विशेष कर जब बच्चे छोटे ही रहते हैं और स्कूल या कॉलेज में पढ़ रहे होते हैं। पढ़ने में कैसा है? प्रायः यही होता है उसके नापने का मापदंड। परीक्षा में कैसा कर रहा है, कक्षा में  तथा अध्यापकों के साथ उसका कैसा व्यवहार है? हम यह भूल जाते हैं कि जब वे विद्यालय और घर की सुरक्षा के कवच से निकल बाहर की दुनिया में प्रवेश करते हैं तब यथार्थ से उनका साक्षात्कार होता है। और यह मिलन उसके मानस को घड़ने में एक अहम भूमिक निभाता है।   प्रस्तुत घटना इसी पर रोशनी डालती है।

          अरे मास्टरजी, रेट तो डबल है, पर आधे में काम करवा दूंगा आपका’, वह धीमे से फुसफुसाया। क्या करूँ, बहुत दिक्कत है, ऊपर तक चढ़ावा देना पड़ता है - एकाएक उसके लहजे में बेशर्मी उतर आई और फिर आज तो 5 सितम्बर है, डिस्काउंट समझ लो आप ये मेरी तरफ से।

          सरकारी दफ्तर में अपने ही होनहार छात्र को कुर्सी पर बैठा देख मास्टरजी की बाँछें खिल उठीं थी काम आसानी से हो जायेगा लेकिन..... । मास्टर जी तनिक खिन्न हुए, फिर पसीना पोंछते हुए कुर्सी से उठ खड़े हुए। सरकारी दफ्तर के उस कमरे से बाहर निकले ही थे कि पीछे से उसी की फुसफुसाहट सुनाई दी ट्यूशन पढ़ा-पढ़ा कर बहुत माया जोड़ रखी है बुड्ढे ने, पेंशन मिलती है सो अलग, पर देने के नाम पर जेब फटी जा रही है

          मास्टरजी वहीं ठिठक गये। उन्होंने आगे सुना 'अंग्रेजी पढ़ाते थे यह हमें उन्हीं लड़कों को नंबर देते थे जो इनके यहां ट्यूशन पढ़ते थे। हमने भी पढ़ी ट्यूशन तब पास हुए। पर अब क्या करें, गुरुजी हैं, इसलिये लिहाज कर रहा हूँ। मास्टरजी बेहद थके-थके से बाहर आये। निर्णय लिया कि अपने इस विद्यार्थी का अहसान नहीं लेंगे, जितनी रिश्वत मांगता है, देकर अपना काम करवा लेंगे।

          बैंक से रकम निकलवा कर पासबुक समेत थैले में रखी और थैले को बड़ी एहतियात से स्कूटर की डिक्की में रखने जा ही रहे थे, कि मानो किसी चील ने झपट्टा मारा हो। मोटर साइकिल पर सवार वह शख्स, जो मुंह पर कपड़ा बांधे था पल-भर में उड़न-छू हो गया। मास्टरजी, पहले तो हतप्रभ से खड़े रह गये, फिर लड़खड़ा कर गिर पड़े।

          थाने में रपट लिखवा दी गई थी। घर में कोहराम मचा था। पर मास्टरजी एकाएक चुप्पी लगा गए थे। बस बिस्तर पर पड़े-पड़े छत को घूरे जा रहे थे। बड़ी मुश्किल से आंख लगी लेकिन एक डरावना सपना देखा और पसीने से तरबतर हो बिस्तर से उठ खड़े हुए। भोर हो चुकी थी। मन न होते हुए भी सैर को निकल पड़े। अभी नुक्कड़ तक ही पहुंचे थे कि एकाएक चिहुंक उठे। एक तेज गति से आ रही बाइक उन्हें छूती हुई निकल गई। वे फटी-फटी आंखों से देखते रह गए क्योंकि उनका वही थैला अब उनके पैरों के पास पड़ा था।

          धड़कते दिल से उसे खोला रकम, पासबुक सब सही सलामत थे। साथ में एक काग़ज़ का पुर्जा भी था, जिस पर बहुत आड़े-तिरछे तरीके से लिखा था - "सोर्री मास्साब, गलती हो गई। अगर हम भी टूसन पढे होते तो कहीं बाबू-वाबू लग ही जाते।'

          दिमाग पर बहुत ज़ोर लगाने के बाद भी वे यह याद नहीं कर सके कि यह कौन-सा नालायक छात्र था और मास्टरजी सोचते रह गये कौन नालायक निकला!

         क्या आप मास्टरजी की सहायता कर सकते हैं यह बताने में कि उनके इन दो विद्यार्थियों में कौन नालायक है और क्यों? नीचे दिये कोममेंट्स में अपने विचार दें ताकि उसे दूसरे भी पढ़ सकें और अपने-अपने कोममेंट्स दे सकें। 

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निवाला

                        वैसे तो कोरोना-काल को अब हम भूलने लगे हैं लेकिन उसकी खट्टी - मीठी यादें अभी भी हमारे जेहन में कैद हैं। उन्हें याद ...