हमारे प्राचीन ग्रन्थों के कई पात्र जिन्हें सदियों से हम आदर्श चरित्र के रूप में मानते रहे, प्रेरणा के स्त्रोत के रूप में जिनकी चर्चा करते रहे, आधुनिक युग में उन्हें कटघरे में बैठाया जाता है। और ठीक इसके उलट भी, त्याज्य चरित्रों के प्रति सहानुभूति दर्शाई जा रही है, उस ग्रंथ के रचयिताओं को कटघरे में बैठाया जाता है, कि उन्होंने उनके साथ अन्याय किया है। लेकिन वहीं जब किसी योग्य पात्र को समुचित सम्मान प्राप्त नहीं होता तब हमें उनकी जीवन यात्रा पर दृष्टिपात करना होता है। जब कोई विद्वान इस पर विचार करता है तो वह कारण भी ढूंढ ही लेता है।
कौरवों की सभा में भीष्म ने
द्रौपदी का भयंकर अपमान देखकर भी जिस प्रकार मौन धरण किया था उसके लिए उन्हें आजतक
क्षमा नहीं किया गया। हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि एक बार उनके परम-मित्र ने इस घटना का जिक्र करते हुए उन्हें
कहा कि देश की दुर्दशा देखते हुए भी जिस प्रकार द्विवेदी जी और उन जैसे साहित्यकार
चुप्पी साधे बैठे हैं तो ‘भविष्य’
उन्हें क्षमा नहीं करेगा। द्विवेदी जी
अभिभूत हो गए, पापबोध से ग्रस्त हो गए। सोचने लगे भविष्य की
कौन कहे वर्तमान ने भी तो क्षमा नहीं किया। और भविष्य की कोई सीमा भी नहीं है।
पाँच हजार वर्ष बीत गये और बेचारे भीष्म को आज तक क्षमा नहीं किया गया। कमबख्त
भविष्य बड़ा निर्दयी है। कई दिनों तक बेचैन रहने के बाद उन्हें अहसास हुआ कि वे
हिन्दी साहित्य के भीष्म नहीं हैं, उनसे ज्यादा ज्ञानी-गुणी, बुजुर्ग, प्रतिभा सम्पन्न लोग हैं, तब उन्हें इस ‘भविष्य’ से कोई
डर नहीं है। यह सोच कर कि वे न तीन में हैं न तेरह में,
यथार्थ बोध हुआ और राहत मिली। लेकिन भीष्म उनके दिलो-दिमाग पर छाए रहे।
एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा। मित्र का उलाहना द्विवेदी जी के दिलो-दिमाग पर छाया हुआ था ही कि उन्हें एक बहुत पुरानी शांतिनिकेतन की घटना स्मरण हो आई। वे और आचार्य क्षितिमोहन प्रातः टहल रहे थे कि उनकी नजर गुरुदेव, रवीन्द्र नाथ ठाकुर पर पड़ी। दोनों लपकते हुए उनके पास जा पहुँचें। अभिवादन का दौर समाप्त होते ही गुरुदेव ने द्विवेदी जी से पूछ लिया, “तुमने कभी विचार किया है, भीष्म को कभी अवतार नहीं माना गया और श्री कृष्ण को ही अवतार क्यों माना गया?” द्विवेदी जी क्या जवाब देते, सकपकाते हुए बोल पड़े – नहीं कभी सोचा नहीं है, लेकिन आज जब आप ने पूछ लिया तो सोचूंगा। लेकिन इस संबंध में ‘क्या सोचूँ?’ कुछ सुझाव दें। गुरुदेव हँसते हुए बोले, “शर-शय्या पर पड़े-पड़े उन्होंने नर-संहार देखा होगा, अपना पूरा जीवन उनकी आँखों के सामने से गुजरा होगा, उस पर विचार भी किया होगा।“
द्विवेदी जी ने देखा भीष्म पड़े हैं
और उनकी आँखों के सामने उनका पूरा जीवन एक चलचित्र के समान घूमने लगा। एक विकट
प्रतिज्ञा जिसके कारण देवव्रत से भीष्म बन गये। लेकिन वह प्रतिज्ञा क्यों की? अपने पिता की गलत आकांक्षाओं की
पूर्ति के लिए! और उस प्रतिज्ञा से जिंदगी पर चिपटे रहे! सही दृष्टिकोण से विश्लेषण
किया जाए तो चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य के बाद कुरुवंश का रक्त तो समाप्त हो गया, वह रहा ही कहाँ? केवल कानूनी तौर और मान्यता के
आधार पर ही तो! जब अपने भाइयों के लिए कन्याओं का अपहरण कर लाये और एक कन्या को
केवल अविवाहित रहने पर मजबूर ही नहीं किया बल्कि उसे समझाने तक सीमित नहीं रहे
उससे युद्ध भी किया। कर्तव्य छूट गया लेकिन अपनी प्रतिज्ञा में बंधे रहे।
“सत्यस्य
वचनं श्रेयः सत्याद्पि हितं वदेत” यद्यपि
सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का
कल्याण हो।
लेकिन भीष्म चूक गए। भीष्म ने
दूसरे पक्ष, सत्याद्पि
हितं वदेत, की
उपेक्षा की। वह 'सत्यस्य वचनम्' को 'हित' से अधिक महत्व दे गये। श्रीकृष्ण ने ठीक इससे उलटा आचरण किया।
प्रतिज्ञा में 'सत्यम वचनम्' की अपेक्षा 'हितम्' को अधिक महत्व दिया। सबके हित या कल्याण को अधिक जरूरी
समझा। क्या भारतीय सामूहिक चित्त ने भी उन्हें पूर्वावतार मानकर इसी पक्ष को अपना
मौन समर्थन दिया है? एक बार गलत-सही जो कह दिया, उसी से चिपट जाना 'भीषण'
हो सकता है, हितकर नहीं। भीष्म
ने 'भीषण' को ही चुना था, हितकर को नहीं।
भीष्म
ही नहीं द्रोण भ, द्रोपदी का अपमान देखकर चुप रह गये? द्रोण गरीब अध्यापक थे, बाल-बच्चे वाले थे। गरीब ऐसे कि गाय भी नहीं पाल सकते थे। बेचारी
ब्राह्मणी को चावल का पानी देकर दूध मांगने-वाले बच्चे को फुसलाना पड़ा था। उसी
अवस्था में फिर लौट जाने का साहस कम लोगों में होता है। लेकिन भीष्म तो पितामह थे।
उन्हें धन की क्या फिक्र? भीष्म को क्या परवाह थी। भीष्म की चुप्पी समझ में नहीं आती।
इतना सच जान पड़ता है कि भीष्म में
कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमज़ोरी थी। वह उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे। यद्यपि
वह जानते बहुत थे, तथापि सही निर्णय लेने में चूक
जाते थे। उन्हें अवतार न मानना ठीक ही हुआ।
आज
भी ऐसे विद्वान मिल जाएंगे,
ज्ञानी मिल जाएंगे जो जानते बहुत
हैं, करते कुछ भी नहीं। करने वाला इतिहास निर्माता होता है, सिर्फ सोचते रहने वाला इतिहास के भयंकर रथ-चक्र के नीचे पिस
जाता है।
इतिहास का रथ वह हांकता है, जो सोचता है और सोचे को करता भी है।
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