शुक्रवार, 21 मार्च 2025

... सत्याद्पि हितं वदेत


           

हमारे प्राचीन ग्रन्थों के कई पात्र जिन्हें सदियों से हम आदर्श चरित्र के रूप में मानते रहे, प्रेरणा के स्त्रोत के रूप में जिनकी चर्चा करते रहे, आधुनिक युग में उन्हें कटघरे में बैठाया जाता है। और ठीक इसके उलट भी, त्याज्य चरित्रों के प्रति सहानुभूति दर्शाई जा रही है, उस ग्रंथ के रचयिताओं को कटघरे में बैठाया जाता है, कि उन्होंने उनके साथ अन्याय किया है। लेकिन वहीं जब किसी योग्य पात्र को समुचित सम्मान प्राप्त नहीं होता तब हमें उनकी जीवन यात्रा पर दृष्टिपात करना होता है। जब कोई  विद्वान इस पर विचार करता है तो वह कारण भी ढूंढ ही लेता है।

          कौरवों की सभा में भीष्म ने द्रौपदी का भयंकर अपमान देखकर भी जिस प्रकार मौन धरण किया था उसके लिए उन्हें आजतक क्षमा नहीं किया गया। हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि एक बार उनके परम-मित्र ने इस घटना का जिक्र करते हुए उन्हें कहा कि देश की दुर्दशा देखते हुए भी जिस प्रकार द्विवेदी जी और उन जैसे साहित्यकार चुप्पी साधे बैठे हैं तो भविष्य उन्हें क्षमा नहीं करेगा।  द्विवेदी जी अभिभूत हो गए, पापबोध से ग्रस्त हो गए। सोचने लगे भविष्य की कौन कहे वर्तमान ने भी तो क्षमा नहीं किया। और भविष्य की कोई सीमा भी नहीं है। पाँच हजार वर्ष बीत गये और बेचारे भीष्म को आज तक क्षमा नहीं किया गया। कमबख्त भविष्य बड़ा निर्दयी है। कई दिनों तक बेचैन रहने के बाद उन्हें अहसास हुआ कि वे हिन्दी साहित्य के भीष्म नहीं हैं, उनसे ज्यादा ज्ञानी-गुणी, बुजुर्ग, प्रतिभा सम्पन्न लोग हैं, तब उन्हें इस भविष्य से कोई डर नहीं है। यह सोच कर कि वे न तीन में हैं न तेरह में, यथार्थ बोध हुआ और राहत मिली। लेकिन भीष्म उनके दिलो-दिमाग पर छाए रहे।


          एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा। मित्र का उलाहना द्विवेदी जी के दिलो-दिमाग पर छाया हुआ था ही कि उन्हें एक बहुत पुरानी शांतिनिकेतन की घटना स्मरण हो आई। वे और आचार्य  क्षितिमोहन प्रातः टहल रहे थे कि उनकी नजर गुरुदेव, रवीन्द्र नाथ ठाकुर पर पड़ी। दोनों लपकते हुए उनके पास जा पहुँचें। अभिवादन का दौर समाप्त होते ही गुरुदेव ने द्विवेदी जी से पूछ लिया, “तुमने कभी विचार किया है, भीष्म को कभी अवतार नहीं माना गया और श्री कृष्ण को ही अवतार क्यों माना गया?” द्विवेदी जी क्या जवाब देते, सकपकाते हुए बोल पड़े – नहीं कभी सोचा नहीं है, लेकिन आज जब आप ने पूछ लिया तो सोचूंगा।  लेकिन इस संबंध में क्या सोचूँ?’ कुछ सुझाव दें। गुरुदेव हँसते हुए बोले, “शर-शय्या पर पड़े-पड़े उन्होंने नर-संहार देखा होगा, अपना पूरा जीवन उनकी आँखों के सामने से गुजरा होगा, उस पर विचार भी  किया होगा।“

          द्विवेदी जी ने देखा भीष्म पड़े हैं और उनकी आँखों के सामने उनका पूरा जीवन एक चलचित्र के समान घूमने लगा। एक विकट प्रतिज्ञा जिसके कारण देवव्रत से भीष्म बन गये। लेकिन वह प्रतिज्ञा क्यों की? अपने पिता की गलत आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए! और उस प्रतिज्ञा से जिंदगी पर चिपटे रहे! सही दृष्टिकोण से विश्लेषण किया जाए तो चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य के बाद कुरुवंश  का रक्त तो समाप्त हो गया, वह रहा ही कहाँ? केवल कानूनी तौर और मान्यता के आधार पर ही तो! जब अपने भाइयों के लिए कन्याओं का अपहरण कर लाये और एक कन्या को केवल अविवाहित रहने पर मजबूर ही नहीं किया बल्कि उसे समझाने तक सीमित नहीं रहे उससे युद्ध भी किया। कर्तव्य छूट गया लेकिन अपनी प्रतिज्ञा में बंधे रहे।

          “सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्याद्पि हितं वदेत”  यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो

लेकिन भीष्म चूक गए। भीष्म ने दूसरे पक्ष, सत्याद्पि हितं वदेत, की उपेक्षा की।  वह 'सत्यस्य वचनम्' को 'हित' से अधिक महत्व दे गये। श्रीकृष्ण ने ठीक इससे उलटा आचरण किया। प्रतिज्ञा में 'सत्यम वचनम्' की अपेक्षा 'हितम्' को अधिक महत्व दिया। सबके हित या कल्याण को अधिक जरूरी समझा। क्या भारतीय सामूहिक चित्त ने भी उन्हें पूर्वावतार मानकर इसी पक्ष को अपना मौन समर्थन दिया है? एक बार गलत-सही जो कह दिया, उसी से चिपट जाना 'भीषण' हो सकता है, हितकर नहीं।  भीष्म ने 'भीषण' को ही चुना था, हितकर को नहीं।

          भीष्म ही नहीं द्रोण भ, द्रोपदी का अपमान देखकर चुप रह गये? द्रोण गरीब अध्यापक थे, बाल-बच्चे वाले थे। गरीब ऐसे कि गाय भी नहीं पाल सकते थे। बेचारी ब्राह्मणी को चावल का पानी देकर दूध मांगने-वाले बच्चे को फुसलाना पड़ा था। उसी अवस्था में फिर लौट जाने का साहस कम लोगों में होता है। लेकिन भीष्म तो पितामह थे। उन्हें धन की क्या फिक्र? भीष्म को क्या परवाह थी। भीष्म की चुप्पी समझ में नहीं आती।  इतना सच जान पड़ता है कि भीष्म में कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमज़ोरी थी।  वह उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे। यद्यपि वह जानते बहुत थे, तथापि सही निर्णय लेने में चूक जाते थे। उन्हें अवतार न मानना ठीक ही हुआ।

          आज भी ऐसे विद्वान मिल जाएंगे, ज्ञानी मिल जाएंगे जो जानते बहुत हैं, करते कुछ भी नहीं।  करने वाला इतिहास निर्माता होता है, सिर्फ सोचते रहने वाला इतिहास के भयंकर रथ-चक्र के नीचे पिस जाता है।

इतिहास का रथ वह हांकता है, जो सोचता है और सोचे को करता भी है।



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शुक्रवार, 14 मार्च 2025

प्रबुद्ध निर्णय


 

(सुरेन्द्र लाल मेहता, अध्यक्ष भारतीय विद्या भवन के लेखन पर आधारित)

गेहूं की बाली में लगते रहे कीड़े

हम खामोश रहे

सफेद कपड़ों में कांपते रहे गांव

हम खामोश रहे

समुद्र में तूफान आया

हम खामोश रहे

ज्वालामुखी विस्फोट हुए

हम खामोश रहे

बादलों से आग की वर्षा हुई

हम खामोश रहे

उसने ली खींच म्यान से तलवार

हम खामोश रहे

कैसे लोग थे हम

हमें बोलने की छूट दी गयी

हम खामोश रहे !


विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कितना सटीक लिखा है। हम अभी भी “खामोश” ही हैं। क्या हमने खामोश रहने का निर्णय ले रखा है?  नहीं। फिर, ऐसा  हुआ क्यों? अभी भी ऐसा क्यों हो रहा है? क्योंकि हम कोई भी प्रबुद्ध निर्णय लेने में असफल रहे। ऐसा क्यों?

          जिस प्रकार जीवन के लिये सामान्य श्वास लेना एक आवश्यक प्रक्रिया है वैसे ही सफल जीवन के लिये प्रबुद्ध निर्णय लेना एक आवश्यक प्रक्रिया है।

          अधिकांश लोग सामान्य जीवन इसलिये जीते हैं क्योंकि वे अपने अधिकांश निर्णय प्रबुद्ध रूप से लेने से बचना चाहते हैं या लेना नहीं जानते। सामान्य तौर पर वे यह तय किये बिना ही, जीवन-रूपी नदी में कूद पड़ते हैं कि उन्हें जाना कहां है। उन्हें अपने लक्ष्य का पता ही नहीं होता। वे अपना कोई भी लक्ष्य निर्धारित करने में असफल रहते हैं। परिणामस्वरूप शीघ्र ही वर्तमान समय की घटनाओं, भय और चुनौतियों में फंस जाते हैं। जब वे जीवन-नदी में किसी चौराहे पर पहुँचते हैं, तब वे प्रबुद्ध रूप से यह तय नहीं कर पाते कि वे किधर जाना चाहते हैं या उनके लिये सही दिशा कौन-सी है। प्रायः वे धारा प्रवाह के साथ चलते हुए उन लोगों के समूह का हिस्सा बन जाते हैं जो स्व-निर्धारित मूल्यों के बजाय परिस्थितियों द्वारा निर्देशित होते हैं। परिणामस्वरूप, वे भ्रमित हो जाते हैं। वे इस अचेतन अवस्था में तब तक रहते हैं जब तक कोई तीव्र जल-प्रवाह की ध्वनि उन्हें जगा नहीं देती और उन्हें यह पता नहीं चलता कि वे एक झरने के कगार पर खड़े है। तब वे किसी ऐसे उपाय की तलाश करने लगते हैं जो उन्हें इस अशांत पानी में डूबने से बचा सके। लेकिन, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वे अपने जीवन में जिन भी संकटों का सामना कर रहे हैं, उन्हें कुछ सावधानी और समय पर लिये गये निर्णयों से टाला जा सकता था, जब ये संकट उनसे बहुत दूर थे।

          उन्हें इसकी अनुभूति ही नहीं है कि हमारा मस्तिष्क निर्णय लेने के लिए एक आंतरिक प्रणाली विकसित करता है। यह प्रणाली एक अदृश्य शक्ति की तरह काम करती है, जो हमारे जीवन के हर पल में, हमारे सभी विचारों, कार्यों और भावनाओं को अवचेतन रूप से निर्देशित करती है। यह प्रणाली विविध वंशावली, साथियों, शिक्षकों, जनसंचार माध्यमों और बड़े पैमाने पर जातीय संस्कृति जैसे स्रोतों से भी प्रभावित होती है। धीरे-धीरे हम इस सम्पर्क के अभ्यस्त हो जाते हैं। यह वह अनुकूलन है जो आगे का रास्ता तैयार करने या जानबूझकर किसी निर्णय के निलंबन हेतु, निर्धारित करने और प्रेरित करने के लिए उत्तरदायी होता है। हालांकि, हम जीवन में किसी भी क्षण, प्रबुद्ध निर्णय लेकर, इस प्रणाली को नष्ट भी कर सकते हैं। इसके लिये हमें सबसे पहले गलत निर्णय लेने के अपने डर पर काबू पाना होगा। क्योंकि साधारणतया डर ही वह कारण है जिसकी छाया में हम कोई निर्णय लेने से बचते हैं और अपने जीवन को परिस्थितियों द्वारा संचालित होने के लिये बिना किसी लगाम और दिशा-निर्देश के खुला छोड़ देते हैं।

          इसमें कोई संदेह नहीं है कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी-न-कभी गलत निर्णय लेगा ही। हमें लचीला होने की आवश्यकता है, परिणामों को देखकर उनसे सीखना होगा। सफलता वास्तव में अच्छे निर्णय का परिणाम है। अच्छा निर्णय अनुभव का परिणाम होता है और अनुभव अक्सर बुरे निर्णय का परिणाम होता है। जब हम जीवन रूपी नदी में बह रहे हैं तो हम निश्चित रूप से कुछ उभरी हुई चट्टानों से टकराएंगे भी। यही यथार्थवाद है। जब कोई किसी चट्टान से टकराता है, तो असफलता हेतु स्वयं को दोषी मानने के बजाय, स्मरण रखें कि जीवन में असफलता जैसा कुछ नहीं होता, केवल परिणाम होते हैं। आशानुकूल परिणाम सफलता कहलाती है और विपरीत परिणाम, कभी-कभी तो आशा से कम परिणाम भी, असफलता कहलाती है। यदि वह परिणाम नहीं मिलता जो हम चाहते हैं, तो हमें इस अनुभव से सीखना चाहिये ताकि हम भविष्य में सटीक निर्णय लेने में समर्थ हो सकें।

          सफलता या असफलता कोई अनुभवहीन तथ्य नहीं है। मार्ग में आने वाले सभी छोटे-छोटे निर्णय ही समग्र रूप से लोगों के असफल होने का कारण बनते हैं। इसके विपरीत, सफलता भी छोटे-छोटे निर्णय लेने, स्वयं को उच्च मानक पर रखने के लिए प्रतिबद्ध होने, योगदान करने का संकल्प लेने और परिस्थितियों के अधीन होने के बजाय अपनी बुद्धि को जाग्रत करने की प्रतिज्ञा का परिणाम है। ये छोटे निर्णय ही जीवनानुभव बनाते हैं जिसे हम सफलता कहते हैं।

          चाहे हम अभी कितने ही गर्त में क्यों न हों, हमें ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिये। ईश्वर की ओर से देरी उनका अस्वीकार नहीं है। दीर्घकालिक लक्ष्य रखना और प्रयासरत रहना उचित है। जीवन में कोई भी मौसम हमेशा नहीं रहता क्योंकि पूरा जीवन रोपण, कटाई, आराम और कायाकल्प का चक्र है। सर्दी अनंत नहीं है। भले ही आज हमारे सामने चुनौतियां हों, हम वसंत-आगमन की आशा कभी नहीं छोड़ सकते।

          अगर आप 70-80 के भी हैं तो ऐसा मत सोचिये कि अब समय निकल चुका है, जब जागे तभी सवेरा। जो समय बचा है उस पर ध्यान केन्द्रित कीजिये। आज ही संकल्प लीजिये और प्रबुद्ध निर्णय लीजिये। असफलता का डर मन से निकाल दीजिये, जगत का सफलतम व्यक्ति भी अनेक बार असफल हुआ है। ईश्वर पर पूरा भरोसा रखिये, परिणाम न मिलने पर भी पूर्ण विश्वास से निर्णय लीजिये।

          अगर निर्णय लेना नहीं सीखे तो ऐसे ही गेहूं की बाली में कीड़े लगते रहेंगे, गाँव कांपते रहेंगे, तूफान आते रहेंगे, विस्फोट होते रहेंगे, आग की वर्षा होती रहेगी, म्यान से तलवार खींचती रहेगी और हम खामोशी से देखते-देखते मिट जायेंगे।  

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शुक्रवार, 7 मार्च 2025

सूतांजली मार्च 2025

 


चाहे कोई सफलता की किसी भी हद तक क्यों न पहुंचे,

जमीन से जुड़े रहना जरूरी है।

जब आप आसमान छूएँ, शांत रहें। मितव्ययी बनें। विनम्र रहें।

अमीर और मशहूर सम्मान पाते हैं।

कीमती और महंगी गाड़ियों से कृत्रिम नशा मिलता है।

लेकिन ओला / उबर से आपको निश्चित रूप से शांति मिलती है।

दिखावे से ज़्यादा सादगी को महत्व दें।

-    वेलुमनी (थायरोकेयर के संस्थापक)

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क्षमा

  महाभारत में द्रौपदी को एक उग्र , वीर और प्रतिशोधी महिला के रूप में दर्शाया गया है।   लेकिन श्रीमद्भागवतम् में द्रौपदी को अश्वत्थामा के प...