जी हाँ, हमें दिखा लेकिन हमने देखा नहीं, हमें
सुना लेकिन हमने सुना नहीं। यह एक बड़ी त्रासदी है लेकिन सच्चाई भी यही है। होता तो
आँखों के सामने ही है लेकिन हम उसे देखते नहीं, आवाज तो
कानों में जाती है लेकिन हम सुनते नहीं।
कुछ वर्षों
पहले एक मूवी आई थी ओएमजी (ओ माइ गॉड) अक्षय कुमार और परेश रावल की। एक दिन परेश
बड़ा परेशान सा अपने घर में अकेला बैठा है। तभी सामने सोफ़े पर, सफ़ेद लिबास में किसी अनजान व्यक्ति को मुसकुराते हुए बैठा देख
वह चौंक उठता है और पूछता है कि वह कौन है? वह अपने को भगवान
श्री कृष्ण बताता है।
“अच्छा तो तुम भगवान श्रीकृष्ण हो! कहाँ है, तुम्हारा मोरपंख कहाँ है? कहाँ है
तुम्हारी बांसुरी, पीताम्बर, मोतियों
की माला?”, परेश गुस्से मैं पूछता है।
वहीं परेश रावल के विवाह की एक फोटो दिखा कर कृष्ण पूछता है, “तुम्हारे सर की पगड़ी, बदन पर अचकन, फूलों की बड़ी सी माला, कहाँ है?”
परेश लापरवाही से जवाब देता है, “ये
तो मेरी शादी की फोटो है, यह पोशाक हर समय नहीं पहनता।“
श्री कृष्ण कहते हैं, “वाह!
जैसे तुम अलग-अलग रूप में रहते हो मैं भी अलग-अलग समय पर अलग-अलग रूप में रहता
हूँ। हर समय एक ही रूप में नहीं रहता?” और इस प्रकार बात आगे
बढ़ती है।
जब हम अपने
सनातन धर्म में 33 कोटि देवी-देवता की बात करते हैं तो उनके उतने ही स्वरूप भी तो
होंगे! उनके दर्शन अलग-अलग रूपों में हो ही सकते हैं। यही नहीं जब उनके गण किसी
कार्य को सम्पन्न कर सकते हैं तो हर कार्य के लिये ठाकुर को स्वयं दौड़ने की क्या
आवश्यकता है?
अगर हम सचेत हैं तो ईश्वर के
दर्शन हमें कई रूपों में प्रायः होते ही रहते हैं। यह बहुत सहज और सरल है। ऐसे ही
दर्शन की घटी साधारण सी असाधारण घटनाएँ हमारी
ही जुबान में :-
1. मेरा स्वास्थ्य कुछ नरम चल रहा था। कोई सुधार नहीं हो रहा था। आखिर मैंने अनेक
स्वयं रक्त परीक्षण करवाये। शाम तक रिपोर्ट आने की प्रतीक्षा कर रहा था। उस दिन जब
आश्रम की “SABDA” पुस्तकों की दुकान में बैठा था, एक अंजान वृद्ध सज्जन आये, अपने बैग से फोटो कॉपी के
दो पन्ने देते हुए कहा कि इसे जरूर से पढ़ें, इनमें सोडियम, विटामिन बी
और डी के बारे में बहुमूल्य जानकारियाँ हैं और उसे ध्यान से पढ़ने की हिदायत देकर
चले गये। मैंने उसे वहीं टेबल पर छोड़ दिया। रात को रिपोर्ट आई। इन्हीं तीन, सोडियम, विटामिन बी और डी की कमी थी। दिखा, सुना और ईश्वर के
इस स्वरूप को नमन किया।
2. कई उपचार करने के बाद भी विशेष सुधार नहीं हुआ। डॉक्टर से फोन पर बात हुई, डॉक्टर ने शनिवार को सुबह हास्पिटल बुलाया। शारीरिक कमजोरी के
कारण हॉस्पिटल तक इतनी दूर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। मैं बार-बार मन में दोहरा
रहा था, “कैसे जाऊँ, नहीं जाऊंगा लेकिन दिखाना भी जरूरी है, क्या करूँ?” शुक्रवार की शाम को फोन आया कि हॉस्पिटल नहीं जाना है क्योंकि डॉक्टर
खुद ही आश्रम आ रहे हैं। मेरी आँखों में आँसू आ गये। मैंने कल्पना भी नहीं की थी
कि ऐसा भी हो सकता है! दैवीय कृपा ही तो थी।
3. एक आध्यात्मिक प्रश्न परेशान कर रखा था। उत्तर मिल नहीं रहा था और मन था कि
बार-बार उस प्रश्न पर आकर अटक रहा था। दीदी ने समाधि स्थल पर जाने कहा। उधर जा ही
रहा था कि एक परिचित ने पुकार कर बुलाया, ‘पहले इधर आइए, जरूरी काम है’।
मैं लौटा और उनके बगल में बैठ गया। तभी बेंच के सामने बनी फूलों की क्यारियों को
लांघ कर एक सज्जन हमारी तरफ बढ़े। उन्हें अनेक बार वहाँ देखा है। लेकिन उनसे कभी
दुआ-सलाम तक नहीं हुई। हमारे पास आकर मेरे मन में चल रहे द्वंद्व का उत्तर दे, जैसे आए थे वैसे ही वापस भी चले गए। मेरा मन शांत हो गया, उद्विग्नता समाप्त हो गई, चित्त प्रसन्न हो गया। ईश्वर की वाणी सुनी, एक
अलग स्वरूप में ईश्वर के दर्शन हुए।
देखने और सुनने का कार्य आँख
या कान नहीं करते, ये तो केवल प्रवेश द्वार हैं। इनके पीछे
कोई और ही है जो सुनता है, देखता है। अगर हम सजग हैं, सचेतन हैं तभी देख और सुन पाते हैं अन्यथा केवल तस्वीर देखते हैं, शब्द सुनते हैं।
हमें पल-पल
उनके दर्शन होते हैं, उनकी
आवाज सुनाई देती है लेकिन हम देखते नहीं, सुनते नहीं। देखें तो दिखाई पड़े, सुने
तो सुनाई पड़े।
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