शुक्रवार, 16 अगस्त 2024

अपेक्षा

  



          "यह मत पूछो कि तुम्हारा देश तुम्हारे लिए क्या कर सकता है, बल्कि यह पूछो कि तुम अपने देश के लिए क्या कर सकते हो।" 

ये पंक्तियाँ, अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी ने 20 जनवरी, 1961 को अपने उद्घाटन भाषण में कही थीं।  इस पंक्ति ने अमेरिकियों को सार्वजनिक सेवा और नागरिक कार्रवाई में भाग लेने के लिए प्रेरित किया और इसे उनके सबसे प्रसिद्ध उक्तियों में से एक माना जाता है। इस भाषण के निष्कर्ष ने 1961 में शांति सेना (पीस कॉर्प्स) की स्थापना को भी प्रोत्साहित किया। 

          ये पंक्तियाँ, महज एक पंक्ति नहीं, एक मंत्र है। यह वह समय था जब लोग इस कथन से प्रेरित होकर केवल देश ही नहीं बल्कि जीवन के अनेक मोड़ों पर दूसरे के लिए क्या किया की चर्चा करते थे। लोग अपेक्षाओं का त्याग कर दूसरे के कुछ लिए करने के लिए प्रेरित हो रहे थे। ऐसा नहीं है कि यह भावना केवल देश के संदर्भ में ही लागू होती है। जब हम दूसरों के लिए करना शुरू करते हैं तब जुड़ना शुरू होता है।  अपेक्षाएँ तोड़ने का काम करती हैं। परिवार के लिए कुछ करने के बजाय परिवार से कुछ अपेक्षाएँ रखने के कारण ही परिवार खंडित होने लगे, रिश्ते बिखरने लगे। जब अपेक्षा रखने के बजाय कुछ करना शुरू करें तब जुड़ाव होता है। अपेक्षा कटुता पैदा करती है और निःस्वार्थ सहायता प्रेम का पुष्प खिलाती है। लेने की चाह नहीं, देने की  भावना रखें। करवाने के बजाय, करने पर ध्यान दें। 

          प्रायः हमें देखने में आता है हम किसी की कोई सहायता करते अथवा किसी के प्रति सहानुभूति रखते हैं तो हम यह अपेक्षा पालते हैं कि वह किसी-न-किसी रूप में हमारे काम आ सके और इसी प्रयास में रहते हैं कि कब उससे कोई काम लिया जाये। यहीं कटुता का बीजारोपण हो जाता है। ऐसा तो बहुत कम ही देखने को मिलता है कि कोई अनायास ही किसी का मनचाहा कार्य कर दे।

          कहीं-न-कहीं किसी की विवशताएँ और सीमाएं भी होती हैं, अतः किसी को किसी पर ऐसे  काम के लिये दबाव डालना या मजबूर नहीं करना चाहिये कि न होने पर कटुता उत्पन्न हो। परिस्थितियाँ सदैव एक-सी किसी की नहीं रहतीं, सभी के जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते है। संबंधों में यदि निकटता है तो अपेक्षा ही नहीं बनती, इच्छा ही पर्याप्त है। जहाँ आत्मीयता होती है वहाँ यह भी ध्यान रखना होता है कि एक-दूसरे के लिए हम किस तरह काम आ सकें। संबंधों की गहराई में अपेक्षाएँ विलीन हो जाती हैं। दूरगामी परिणामों एवं अनुकूलताओं को ध्यान में रखते हुए संबंधों का निर्वाह करना हितकर रहता है।

          आपस में दूरी पैदा करती हैं अपेक्षाएँ। वैसे देखा जाए तो हमारे व्यक्तित्व व सामर्थ्य की कमजोरी को हमारी अपेक्षाएँ ही दर्शाती हैं। निःस्वार्थ भाव से की गयी किसी की सहायता, हमारे व्यक्तित्व को विराट बनाती है, लेकिन यदि उसमें अपेक्षा का बीजा रोपण हो गया तो ऐसी स्थिति उसके व्यक्तित्व को बौना बना देती है। छोटी-छोटी बातों की तो अपेक्षा पालनी ही नहीं चाहिये, जैसे कि किसी की कोई सहायता की तो उससे भी सहायता की आशा रखना, मैं ही उसके घर जाता हूँ वह कभी नहीं आता, मैं ही उसे फोन करता हूँ वह कभी नहीं करता ..... ऐसी भूल नहीं करनी चाहिये।

 

          संबंधों की घनिष्टता को कमजोर करती हैं अपेक्षाएँ। इससे बचना ही सबके लिए श्रेयस्कर होगा। आत्मबल को कमजोर करती है अपेक्षा। अपने सामर्थ्य को विस्तार देकर, निःस्वार्थ भाव से सदैव दूसरों के हित के काम करने से एक प्रभावशाली व्यक्तित्व का निर्माण होता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इससे दूसरों का ही नहीं बल्कि अपना भी भला होता है। यही मानवता का उद्देश्य है। उत्कृष्ट चिंतन और नैतिक मूल्यों की रक्षा के प्रति सचेष्ट रहने से आत्मबल का निर्माण होता है। परिवार टूटने के बजाय पूरा संसार ही अपना परिवार बन जाता है। इसके सामने सारे संबंध बौने प्रतीत होते हैं, अपेक्षाओं का कोई स्थान नहीं रह जाता।

          अपेक्षाओं को पालने से बचना होगा, तभी हम अपने अंदर एक तटस्थ आत्मबल का निर्माण कर सकते हैं तथा अपनी क्षमताओं और सामर्थ्य पर भरोसा करके अपेक्षाओं से दूर रह सकते हैं।

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