शुक्रवार, 23 अगस्त 2024

साहस

  


प्रथम विश्व युद्ध का समय था। विश्व ने ऐसा भयानक युद्ध पहली बार देखा था। युद्ध-स्थल पर खाइयाँ खोदी गई थीं। सैनिकों को बमबारी से बचने के लिए इन्हीं खाइयों में रहना पड़ता था, जैसे वे इंसान नहीं कीड़े-मकोड़े हों। सैनिकों को इसमें रहने की मजबूरी थी। सैनिकों के पास अपने आप को यथासंभव सुरक्षित रखने के लिये इसके अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं था। उन्हें,  कभी-कभी, कई दिनों तक वहीं बंद रहना पड़ता था। कभी-कभी पन्द्रह दिन या उससे भी अधिक समय तक के लिए। सिपाहियों को अदला-बदली करने का कोई साधन नहीं था। यह एक अमानुषिक अवस्था थी। और-तो-और ऐसे सैनिक भी थे जिन्हें ऐसे ही छोड़ दिया गया था, क्योंकि बमबारी वगैरह के कारण उन्हें कोई राहत नहीं दी जा सकती थी। उन्हें राहत देने का अर्थ था नये सैनिकों को लाना और पुरानों को आराम देने के लिए वापस ले जाना। यह अवस्था, किसी के भी  पागल हो जाने के लिये पर्याप्त कारण थी। ख़ैर, इन लोगों में से कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने लौट कर अपनी ज़िंदगी के बारे में, जो कुछ हुआ, जो कुछ घटा उसके बारे में बताया।

          इनकी किताबें छपीं, कहानी-किस्से उपन्यास नहीं, उनके अनुभव की रिपोर्टें। वैसे ही एक सैनिक ने युद्ध की अपनी यादें लिखीं। उसने बताया कि वे बमबारी के दौरान दस दिनों तक वैसे ही एक खाई में रुके रहे। ऐसे भी थे जो वहीं समाप्त हो गये। दिस दिन बाद उन्हें पीछे वापस लाया गया और दूसरों ने उनकी जगह ले ली। स्वाभाविक रूप से उन्हें भर पेट भोजन नहीं मिला, पौष्टिक आहार नहीं मिला, सोने के लिये पर्याप्त स्थान और समय नहीं मिला। वे लंबे समय तक अंधेरे गड्ढों में रहे। वास्तव में यह एक अमानवीय जीवन था। जब वे वापस आये तब उनमें से कुछ अब अपने जूते भी नहीं उतार सकते थे क्योंकि पैर अंदर से इतने सूज गए थे कि उन्हें निकाला नहीं जा सका, उन्हें काट कर ही निकाला गया। उस समय गाड़ी, बस, ट्रक भी नहीं थीं अतः उन्हें पैदल ही वापस आना पड़ा, कुछ टूटे हुए, कुछ अधमरे हुए। वे फंस हुए थे।

          लेकिन, साहस की दृष्टि से यह युद्ध की सबसे खूबसूरत चीजों में से एक थी - क्योंकि वे रुके हुए थे, डटे हुए थे। दुश्मन खाइयों पर कब्ज़ा नहीं कर सका और आगे नहीं बढ़ सका। स्वाभाविक रूप से चारों ओर खबर फैल गई। जब वे एक गांव के पास पहुंचे तो उन्होंने देखा गांव के सभी लोग उनका स्वागत करने के लिए अपने घरों से बाहर आये हैं। उन पर फूलों की बरसात की गई, सड़कों पर फूलों की कतार लगा दी और उत्साह से नारे लगा रहे थे। वे सभी लोग जो खुद को खड़ा नहीं कर पा रहे थे, अपने को खींच भी नहीं सकते थे, अचानक वे सभी खुद को सीधा खड़ा करते हुए, अपने सिर उठाए हुए, ऊर्जा से भरे हुए दिखाई दिये, और सभी एक साथ शुरू हो गये, देश भक्ति के गीत गाने लगे और पूरे गाँव में गाते हुए चक्कर लगाया। वे, जो अभी तक शिकायतें कर रहे थे अब अपनी बहादुरी के किस्से सुनाने लगे। यह पुनरुत्थान जैसा लग रहा था।

          खैर, मैं यह सब इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि यह अकल्पनीय है। यह बहुत खूबसूरत भावना है, जो सबसे अधिक भौतिक चेतना में है! आप देखिए, अचानक, उन्हें यह एहसास हुआ कि वे नायक हैं, कि उन्होंने कुछ वीरतापूर्ण काम किया है, और इसलिए वे ऐसा नहीं दिखना चाहते थे कि वे लोग पूरी तरह से निराश हो गए हैं, अब किसी भी चीज़ के लिए अच्छे नहीं हैं। "यदि आवश्यक हुआ तो हम लड़ाई में वापस जाने के लिये तैयार हैं!" और वे इस प्रकार गीत गाते हुए वे आगे बढ़ गये। ऐसा लगता है कि यह अद्भुत था; मुझे इस पर यकीन है कि यह अलौकिक था, अद्भुत था, अविश्वसनीय था।

          हमारी दिल से निकली एक मुस्कुराहट, प्रशंसा के दो मीठे शब्द, आँखों का एक इशारा भी थके हुए को उत्साहित कर सकता है, ऊर्जा हीन को अदम्य ऊर्जा से भर सकता है, डरपोक को साहसी बना सकता है। देने वाले का कुछ धन नहीं लगता बल्कि उसे भी संतोष और सुख मिलता है।  फिर उसमें कंजूसी क्यों?

          वे सिपाही साहसी थे। गाँव-वासियों ने उनके साहस को जगा दिया। दरअसल साहस वह मानसिक गुण या शक्ति है जिसके द्वारा मनुष्य यथेष्ट बल के अभाव में भी कोई भारी काम कर बैठता है या दृढ़तापूर्वक विपत्तियों या कठिनाइयों आदि का सामना करता है ।

          साहस की पहली और सबसे महत्वपूर्ण पहचान यह है कि डर का अनुभव होने के बावजूद व्यक्ति वह करता है जो उचित है। प्रतिक्रिया करने के बजाय हमारे पास कुछ कर डालने का साहस होना चाहिए। जीवन में जो भी घटनाएं घटित होती है और जो कुछ भी हुआ है, उसे स्वीकार करने की कोशिश करते रहना चाहिए। हम में से कई लोग जिन चीजों की उम्मीदें संजोते हैं जब वह नहीं मिल पाती तो जिंदगी से हार मान लेते हैं। हमेशा याद रखें जिसे हम पूरी शिद्दत से चाहते हैं, जिसे हमने लगातार चाहा हो, उसके न मिलने पर भी जिंदगी में आगे बढ़ते जाना ही साहस है।

          साहस की पहचान है अपने दिल की सुनना और मुश्किलों का सामना होने पर भी डटे रहना। साहस जीत का सिंघनाद नहीं बल्कि वह धीमी आवाज है जो कहती है कि कल मैं फिर कोशिश करूंगा। जो सही है उसका साथ देना साहस की पहचान है। साहस की पहचान है ऐसी स्थिति जहां डर के मुकाबले साहस की प्रधानता हो, जोखिम उठाने की भूख हो। जितना साहस होता है उसी के अनुपात में जिंदगी फैलती है।

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शुक्रवार, 16 अगस्त 2024

अपेक्षा

  



          "यह मत पूछो कि तुम्हारा देश तुम्हारे लिए क्या कर सकता है, बल्कि यह पूछो कि तुम अपने देश के लिए क्या कर सकते हो।" 

ये पंक्तियाँ, अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी ने 20 जनवरी, 1961 को अपने उद्घाटन भाषण में कही थीं।  इस पंक्ति ने अमेरिकियों को सार्वजनिक सेवा और नागरिक कार्रवाई में भाग लेने के लिए प्रेरित किया और इसे उनके सबसे प्रसिद्ध उक्तियों में से एक माना जाता है। इस भाषण के निष्कर्ष ने 1961 में शांति सेना (पीस कॉर्प्स) की स्थापना को भी प्रोत्साहित किया। 

          ये पंक्तियाँ, महज एक पंक्ति नहीं, एक मंत्र है। यह वह समय था जब लोग इस कथन से प्रेरित होकर केवल देश ही नहीं बल्कि जीवन के अनेक मोड़ों पर दूसरे के लिए क्या किया की चर्चा करते थे। लोग अपेक्षाओं का त्याग कर दूसरे के कुछ लिए करने के लिए प्रेरित हो रहे थे। ऐसा नहीं है कि यह भावना केवल देश के संदर्भ में ही लागू होती है। जब हम दूसरों के लिए करना शुरू करते हैं तब जुड़ना शुरू होता है।  अपेक्षाएँ तोड़ने का काम करती हैं। परिवार के लिए कुछ करने के बजाय परिवार से कुछ अपेक्षाएँ रखने के कारण ही परिवार खंडित होने लगे, रिश्ते बिखरने लगे। जब अपेक्षा रखने के बजाय कुछ करना शुरू करें तब जुड़ाव होता है। अपेक्षा कटुता पैदा करती है और निःस्वार्थ सहायता प्रेम का पुष्प खिलाती है। लेने की चाह नहीं, देने की  भावना रखें। करवाने के बजाय, करने पर ध्यान दें। 

          प्रायः हमें देखने में आता है हम किसी की कोई सहायता करते अथवा किसी के प्रति सहानुभूति रखते हैं तो हम यह अपेक्षा पालते हैं कि वह किसी-न-किसी रूप में हमारे काम आ सके और इसी प्रयास में रहते हैं कि कब उससे कोई काम लिया जाये। यहीं कटुता का बीजारोपण हो जाता है। ऐसा तो बहुत कम ही देखने को मिलता है कि कोई अनायास ही किसी का मनचाहा कार्य कर दे।

          कहीं-न-कहीं किसी की विवशताएँ और सीमाएं भी होती हैं, अतः किसी को किसी पर ऐसे  काम के लिये दबाव डालना या मजबूर नहीं करना चाहिये कि न होने पर कटुता उत्पन्न हो। परिस्थितियाँ सदैव एक-सी किसी की नहीं रहतीं, सभी के जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते है। संबंधों में यदि निकटता है तो अपेक्षा ही नहीं बनती, इच्छा ही पर्याप्त है। जहाँ आत्मीयता होती है वहाँ यह भी ध्यान रखना होता है कि एक-दूसरे के लिए हम किस तरह काम आ सकें। संबंधों की गहराई में अपेक्षाएँ विलीन हो जाती हैं। दूरगामी परिणामों एवं अनुकूलताओं को ध्यान में रखते हुए संबंधों का निर्वाह करना हितकर रहता है।

          आपस में दूरी पैदा करती हैं अपेक्षाएँ। वैसे देखा जाए तो हमारे व्यक्तित्व व सामर्थ्य की कमजोरी को हमारी अपेक्षाएँ ही दर्शाती हैं। निःस्वार्थ भाव से की गयी किसी की सहायता, हमारे व्यक्तित्व को विराट बनाती है, लेकिन यदि उसमें अपेक्षा का बीजा रोपण हो गया तो ऐसी स्थिति उसके व्यक्तित्व को बौना बना देती है। छोटी-छोटी बातों की तो अपेक्षा पालनी ही नहीं चाहिये, जैसे कि किसी की कोई सहायता की तो उससे भी सहायता की आशा रखना, मैं ही उसके घर जाता हूँ वह कभी नहीं आता, मैं ही उसे फोन करता हूँ वह कभी नहीं करता ..... ऐसी भूल नहीं करनी चाहिये।

 

          संबंधों की घनिष्टता को कमजोर करती हैं अपेक्षाएँ। इससे बचना ही सबके लिए श्रेयस्कर होगा। आत्मबल को कमजोर करती है अपेक्षा। अपने सामर्थ्य को विस्तार देकर, निःस्वार्थ भाव से सदैव दूसरों के हित के काम करने से एक प्रभावशाली व्यक्तित्व का निर्माण होता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इससे दूसरों का ही नहीं बल्कि अपना भी भला होता है। यही मानवता का उद्देश्य है। उत्कृष्ट चिंतन और नैतिक मूल्यों की रक्षा के प्रति सचेष्ट रहने से आत्मबल का निर्माण होता है। परिवार टूटने के बजाय पूरा संसार ही अपना परिवार बन जाता है। इसके सामने सारे संबंध बौने प्रतीत होते हैं, अपेक्षाओं का कोई स्थान नहीं रह जाता।

          अपेक्षाओं को पालने से बचना होगा, तभी हम अपने अंदर एक तटस्थ आत्मबल का निर्माण कर सकते हैं तथा अपनी क्षमताओं और सामर्थ्य पर भरोसा करके अपेक्षाओं से दूर रह सकते हैं।

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शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

जो स्वाभाविक है वही सहज है,

                                                जो सहज है वही सरल है,

                                                                      जो सरल है वही निर्मल है

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आत्मविश्वास

                 एक बुजुर्ग दंपत्ति बोस्टन स्टेशन पर ट्रेन से उतरे। महिला साधारण सूती वस्त्र पहने थी और पुरुष भी एक हाथ से बुने सूते का सा...