शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

समाज का रोग


 

(खलील जिब्रान के एक अर्थपूर्ण विचार पर आधारित।)

मेरी एक दाढ़ में लगा कीड़ा मुझे बहुत तकलीफ देता था। वह दिन की चहल-पहल में तो चैन से बैठा रहता लेकिन रात की खामोशियों में, जब दांत के चिकित्सक आराम से सो जाते तब वह बेचैन हो उठता। एक दिन मेरा धीरज पूरी तरह समाप्त हो गया और मैंने अपने दंत-चिकित्सक से उस दाढ़ को निकाल देने का अनुरोध किया और बताया कि उसने मेरी नींद का सुख छीन लिया है और मेरी रातें आहें भरते हुए कटती है।

लेकिन चिकित्सक सहमत नहीं था। उसने कहा, "जब दाढ़ का इलाज हो सकता है, तब उसे निकालना मूर्खता है।" उसने दाढ़ को इधर-उधर से खुरचना शुरू किया और उसकी जड़ों को साफ कर दिया। अजीब-अजीब तरीकों से रोग को दूर करने के बाद, जब उसे विश्वास हो गया कि दाढ़ में एक भी कीड़ा बाकी नहीं रहा है तो उसके छेदों को उसने एक विशेष प्रकार के सोने से भर दिया और गर्व के साथ कहा, "अब तुम्हारी यह दाढ़ नीरोग दाढ़ों से अधिक मजबूत हो गई है।"

मैं निश्चिंत होकर खुशी-खुशी वापस चला आया। लेकिन अभी एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि कमबख़्त दाढ़ में फिर से असहनीय तकलीफ शुरू हुई। इस बार मैं दूसरे डाक्टर के पास गया और साफ तौर पर उससे कहा, "इस खतरनाक सुनहरी दाढ़ को बिना किसी हिचकिचाहट के निकाल फेंकिये।" डाक्टर ने दाढ़ निकाल दी। वह घड़ी यद्यपि यातनाओं और कष्टों की दृष्टि से बड़ी भयंकर थी, डॉक्टर को भी बड़ी मेहनत करनी पड़ी फिर भी वास्तव में वह बहुत ही शुभ घड़ी थी।

          दाढ़ को निकाल देने और उसकी अच्छी तरह देखभाल कर लेने के बाद डाक्टर ने कहा, "आपने बहुत अच्छा किया। कीड़ों ने इस दाढ़ में मजबूती से जड़ पकड़ ली थी और उसके अच्छे होने की कोई आशा नहीं थी।" उस रात मैं बड़े आराम से सोया। अब भी आराम से हूं और दाढ़ निकल जाने पर भगवान को धन्यवाद देता हूं।

          हमारे मानव-समाज में बहुत-सी दाढ़ें ऐसी हैं, जिनमें कीड़े लगे हुए हैं और उनका रोग शरीर की हड्डी तक पहुंच गया है। परंतु मानव-समाज उसे निकालने की तकलीफ से बचने के लिए दाढ़ें नहीं निकलवाता, बल्कि महज लीपा-पोती कर संतोष मानता है। वह उन्हें हर बार साफ करवा कर उसके छेदों को चमकदार सोने से भर देता है, और बात वहीं-की-वहीं, बस!

          बहुत से ऐसे डॉक्टर हैं, जो मानवता की दाढ़ों का इलाज आंखों को लुभाने वाले सोने के पानी और चमकदार वस्तुओं से करते हैं, और बहुत-से रोगी ऐसे हैं, जो अपने को इन सुधार-प्रिय चिकित्सकों के हवाले कर देते हैं और रोग के कष्टों को सहते-सहते अपने को धोखा देकर मर जाते हैं। वह समाज, जो एक बार बीमार होकर मर जाता है, दोबारा जीवित नहीं होता। वह संसार के सामने अपने आत्मिक रोगों के कारणों और सामूहिक दवाओं की वास्तविकता नहीं बता सकता, जिनका प्रयोग करने से समाज पतन और विनाश की खाई में गिर जाते हैं।

          हमारे समाज के मुंह में भी जीर्ण-शीर्ण, काली, गंदी और बदबूदार दाढ़ें हैं। चिकित्सकों ने चाहा भी कि उन्हें साफ करके उनके छेदों को चमकदार चीजों से भर दें और ऊपर सोने का पानी चढ़ायें। पर रोग दूर नहीं हुआ और तब तक दूर नहीं हो सकता जब तक इन दाढ़ों को उखाड़ फेंक न दिया जाये। फिर जिस समाज की दाढ़ में कोई रोग हो तो उसका पेट भी कमजोर हो जाता है। और बहुत-से समाज ऐसे हैं, जो पाचन-शक्ति के खराब हो जाने से मौत के मुंह में जा पहुंचे हैं।

          अगर कोई कीड़ा लगी दाढ़ें देखना चाहता है तो उसे पाठशाला में जाना चाहिए, जहां हमारे बच्चों को घिसी-पिटी बातों को ही सिखाया जा रहा है, जिनका उन्हें उनके जीवन में आगे चलकर कोई उपयोग होने वाला नहीं है। या फिर उसे अदालत में जाना चाहिए, जहां मार्ग भ्रष्ट बुद्धि कानून के आदेशों से इस प्रकार खेलती है, जिस प्रकार बिल्ली अपने शिकार से। 

          और उसके बाद उन नरम और नाजुक उंगलियों वाले दांतों के वैद्यों के पास भी जाना चाहिए, जिनके पास सूक्ष्म उपकरण और बेहोश करने वाली दवाएं हैं और जो कीड़ा लगी दाढ़ों के छेदों को भरने और उनकी सड़ी-गली जड़ों को साफ करने में अपना समय बिताते हैं। जब कोई उनसे बातें करता है, तो वे धारावाहिक भाषण देते हैं, सभा सम्मेलन आयोजित करते हैं, और ऐसे जोरदार लेख लिखते हैं, जिनसे आग की चिनगारियां निकलती हैं। उनके भाषणों में एक गीत होता है, जो चक्की के पाटों के गीत से ऊंचा और बरसात की रातों में मेंढक की टर्राहट से अधिक आकर्षक होता है।

          पर जब कोई ऐसे चिकित्सक से कहता है कि, "हमारा समाज अपने जीवन का भोजन कीड़ा लगी दाढ़ों से चबाता है, इसलिए उसके हर निवाले में जहरीली लार मिली होती है, उस विषैली लार ने उसकी आंतें लगभग बेकार कर दी है।" तो वह उत्तर में कहता है, "जी हां। आप चिंता मत कीजिये उसके लिए हमने एक नई दवा की खोज ली है, जिससे यह दुरुस्त हो जाएगा।" जब कोई इन दाढ़ों को निकलवाने के बारे में बात करता है तो वे सहमत नहीं होते, क्योंकि उन्होंने दांतों का अच्छा इलाज नहीं सीखा है। अपने आप को बचाए रखने वे नाराजगी के स्वर में चिल्ला कर कहते हैं, "कैसे हैं दुनिया में इस विचार के बंदे और कितने बेबुनियाद हैं इनके विचार!"

          दुर्भाग्य से हमारा समाज ऐसे वैद्यों से भरा पड़ा है। वे अनेक ओहदों पर विराजमान हैं। अपने लिए और समाज के लिए अलग-अलग मापदंड बना रखे हैं। जब भी कोई उन दांतों को उखाड़ फेंकने की बात करता है सब एक हो कर इन दांतों, बीमारों और वैद्यों को बचा लेते हैं।

          लेकिन अब इनका दर्द इलाज करने से नहीं इन्हें उखाड़ फेंकने से ही होगा।  समाज से ऐसे डॉक्टरों को, जिनके मापदंड अपने लिए और समाज के लिए अलग-अलग हैं, उखाड़ फेंके और सामाजिक उत्थान और सौहार्द का हिस्सा बनें।

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https://youtu.be/PG63IE1rMrs

शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

युद्ध का सच

  


(शशिकांत ने गिद्ध परिवार के माध्यम से युद्ध का मर्मस्पर्शी चित्र बनाया है। चित्रित दृश्य की कल्पना कर घिन सी आई, उल्टी होते-होते बची लेकिन सच्चाई भी यही है। आँखें बंद कर लेने मात्र से सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता।  विश्व में देशों के मध्य चलने वाले युद्धों के बारे में ही नहीं बल्कि शहर, गाँव, मुहल्ले में चलने वाले “युद्धों की बाबत भी सोचिए! हकीकत यही है। जगह-जगह अंतहीन युद्ध चल रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद युद्धों को रोकने के लिए बनी वैश्विक संस्थाओं को विश्व के शक्तिशाली देश अपनी जेब में लिए घूमते हैं और शांति के नाम पर एक-दूसरे के विरोधी पक्ष का सहयोग कर युद्ध को बढ़ावा देते हैं। विश्व की शक्तियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसमें शामिल हैं और अपनी-अपनी गोटियाँ चल रहे हैं। सबों ने नकाब पहन रखे हैं, लेकिन खोजी आँखें सब देख लेती हैं।

 

नर गिद्ध के साथ उसका बेटा मांस नोच रहा था। उसकी मादा गिद्ध मांस नोचने नहीं आयी थीउसने युद्ध के लम्बा चलने की कामना की सिद्धि के लिए उपवास रखा था और सरदार गिद्धों की पूजा करने गयी थीयुद्ध और शांति दोनों उन्हीं के हाथ में था। बालक गिद्ध मानव को धन्यवाद दे रहा था जो एक दूसरे पर बम मारकर उनके लिए महाभोज का आयोजन कर रहे थे। वह सोच रहा था कि मानव कितना दयालु होता जो धन, ज़मीन, भाषा, रंग, नस्ल, धर्म, जाति सबके लिए लड़ता है, कत्लेआम करता है ताकि दूसरे जीवों का पेट भर सके। बेटा बोल रहा था - 'पापा, आदमी नहीं होते तो हमें खाने को नहीं मिलता, कितने अच्छे होते हैं वे। हम तो फिर भी चोंच और पंजों से लड़ते हैं लेकिन वे बेचारे तो बम मारते हैं एक दूसरे के घरों परबहुत अक्लमंद होते हैं, है न पापा ?'


          नर कुनमुनाया और बोला- 'तू फिर सोचने लगा? अक्ल एक बीमारी है, इससे दूर रहा कर। इस अक्ल के कारण ही ये एक दूसरे को मारने के नित-नए अजूबे तैयार करते हैं। जो ज्यादा अक्लमंद था पहले से ज्यादा विनाशकारी बंदूक, गोली, बम बना गया। ताकि आसानी से दूसरे का ज्यादा-से-ज्यादा खून बहा सके। जो ज्यादा दिमागधारी होते हैं खुद को तो बचा कर रखते हैं लेकिन दूसरों की बस्तियों पर बम उनके इशारे से ही बरसाए जाते हैं।

          बेटे ने हंसते हुए कहा- 'पापा बेचारे आदमियों ने अपनी जान दे दी हमारा पेट भरने के लिएउन्हें एक बार थैंक यू तो बोल दोतुम तो आदमियों की तरह भाषण देने लगे'

          बाप ने गुर्राकर कहा- 'आदमियों का खून पिया है तो उनकी ही भाषा बोलूंगालाशों पर खड़े होकर भाषण देने का रिवाज है बेवकूफतुम देखना अभी जो लोग जंग को जारी रखने के लिए जोशीले भाषण दे रहे हैं, वही लोग अमन पर भाषण देने भी आयेंगेदुनिया पर जब उनका दबदबा कायम हो जायेगा तो उन्हें खून-खराबे से नफरत हो जायेगीजंग कराने वाले ही जंग रोकने की अपील करेंगेआदमियों की दुनिया अजीब है बेटा, यहां मारने वालों की पूजा होती है'

          बेटा एक बच्चे की लाश पर बैठकर उसे नोचने लगा। बाप को गर्व था कि बेटा लाशों में फर्क नहीं करता, उसने आवाज़ दी, 'आराम से, अभी लड़ाई लम्बी चलेगी'

          'पापा, बम बच्चों को भी नहीं छोड़ता?', बेटे ने पूछा

          बाप ने घूरते हुए कहा- 'जब बम मारने वालों को बच्चों पर दया नहीं आयी तो तेरी छाती क्यों फट रही है? बम किसी को नहीं पहचानता, अपने मालिक को भी नहीं।

 

          बेटा अभी भी आदमियों के आभार से दबा जा रहा थाउसने एक और सवाल किया- 'पापा, बम मारने वाला मिले तो हम उसको धन्यवाद ज़रूर बोलेंगेमगर पता ही नहीं चलता कि मारता कौन है और मरता कौन ?'

          'बेटा, मरता तो वही है जो हर मौसम में, हर हाल में मरने के लिए बना हैबाढ़, सूखा, महामारी, बीमारी, भुखमरी, इन सबसे जो संयोग से नहीं मरा वह जंग में मारा जाता हैएक गरीब के हाथ में बंदूक पकड़ाकर दूसरे गरीब को गोली मरवाई जाती हैबंदूक और गोली तीसरे की होती है जो जंग में कहीं नहीं दिखतामारने वाला हर जगह होता हैकोई भी मारने वाले की बात नहीं करता'

          बेटे पर अचानक आदमियत का दौरा पड़ गया, 'जो मारे गये उनकी क्या गलती थी ?'

          'कमाल हैअभी तू आदमियों को थैंक यू बोल रहा था, अभी उन्हें कोसने लगाबाघ पकड़ने के  लिए पिंजरे के बाहर बकरी बांध दी जाती है कि नहीं? बकरी की क्या गलती? उसकी गलती यही है कि वह बकरी हैशिकारी और बाघ के बीच में उसका केवल इस्तेमाल होता है, मरती है तो मरे'

          बच्चा बेचैन था, बोला- 'पापा,  एक बात समझ में नहीं आयी युद्ध होते ही क्यों हैं?'

          पापा गिद्ध को पता था कि जानबूझकर सवाल उठाना इस पीढ़ी को पसंद है जबकि सवाल उठाना खतरनाक खेल होता हैउसने हंसते हुए कहा- 'युद्ध नहीं पुत्र मेला कहो, मौत का मेलामेले का आयोजन व्यापारी लोग करते हैं जिसमें उनके माल की खपत हो जाती हैबंदूक, बारूद, बम, मिसाइल, टैंक, तोप, प्लेन इनके व्यापार में अरबों की पूंजी फंसी होती हैखरीदने के लिए कोई तभी तैयार होगा जब उसकी खपत होगीमेला इसीलिए लगाया जाता है कि व्यापारियों का माल बिक जायेमौत का मेला लगाकर पुराना माल खपाया जाता है ताकि नये माल बने, नया घपला हो, नये अवसर पैदा किये जा सकें'

 

          सुनते-सुनते बच्चा थक गया, उसका दिमाग सुन्न होने लगा और उसे नींद आ गई।



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समाज का रोग

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