जी हाँ, ये प्रश्न कीजिये अपने जीवन से और उत्तर दीजिये आप खुद। जीवन को साफ-साफ बता दीजिये कि तेरा इरादा चाहे कुछ भी हो मेरा इरादा पक्का है कि मैं हार नहीं मानूँगा। फिर देखिये राह में कैसे भी रोड़े आयें सब चकनाचूर हो जाएंगे। अपने सीमित दायरे में मैंने लेखिका ‘सूर्यबाला’ का नाम नहीं सुना था। लेकिन जब उनका संस्मरण पढ़ा तो मुझे लगा कि इसे साझा करना चाहिए, आप लोगों के साथ, विशेष कर उन लोगों से जो जीवन से हताश हो जाते हैं, उस युवा वर्ग से जो थोड़ी सी असफलता नहीं झेल पाते हैं, निराश हो जाते हैं, आत्म-हत्या तक की चरम सीमा तक चले जाते हैं। शायद वे समझें कि असफलता एक चुनौती है, घुटने टेक दिये तो टूट गये, स्वीकार कर लिया तो बन गये। लेखिका की ही कलम से-
अभाव का समय था लेकिन क्या
मजाल जो किसी को हमारे अंदर का कोई सुराग लग पाता। हम सब भाई-बहन सब कुछ जी जान से
एक दूसरे से भी छुपाये रहते थे और बाहर की शान तो हमारा तीन मंज़िला,
सफेद जालियों वाला मकान कायम ही रखे रहता था।
जीवन की चुनौती ने हमें मनहूसियत को छू मंतर करने का रास्ता
सीखा दिया था। हम बहनें साथ-साथ गाने गातीं... साथ-साथ टीचरों की नकलें करतीं,
गानों की पैरोडी, नाटक, अंताक्षरी (चलती रहती)... यही तो हमें हमारे अंदरूनी धक्कों
को झेलने की ताकत देती थी, हमारे दुखों, अभावों के अंतहीन अंधेरे में जुगनू-सी झिलमिलाती थी...
स्कूल में भी कम चुनौतियां
नहीं थीं... और पिछड़ना मुझे मंजूर नहीं था। लेकिन खुद को पिछड़ने से बचाये रखने
के अपने तरीके थे मेरे... अपनी प्रतिस्पर्धी लड़की के साथ पूरे अपनेपन और
सद्भाव बनाये रखते हुए अंदर के ईर्ष्या-द्वेष को गलाते हुए उससे अच्छे अंक लाने की
कोशिश... उपाय... समाधान... । पढ़ाई,
डिबेट, नाटक आदि सभी में स्कूल भर की चार-पांच अग्रणी लड़कियों
में शुमार होने के बावजूद मैं घर पर शास्त्रीय संगीत नहीं सीख सकती थी,
राग शंकरा और भैरवी की वे बंदिशें नहीं गा सकती थी।
एक बार सचमुच कानों पर
विश्वास नहीं हुआ... कक्षाध्यापिका ने घोषणा की - मुफ्त में संगीत सीखने की सुविधा।
मैंने बड़े उत्साह से नाम दे दिया। संगीत के घोष माट्सा'ब मुझे बिल्कुल नहीं जानते थे। जब हम पंद्रह बीस लड़कियां
पहली बार उनकी क्लास में पहुंची तो सबसे पहले उन्होंने हर लड़की से सरगम गवाया और
गलत गाने वाली लड़कियों को एक तरफ अलगाते गये जिनमें मैं भी थी। शेष लड़कियों ने
शायद ही जाना, समझा
हो... लेकिन मैं कहीं न कहीं अपमानित, उपेक्षित, अयोग्य प्रमाणित हुई थी। अगले दिन चुपचाप नाम कटा दिया था
मैंने। फिर कभी-संगीत की क्लास में नहीं गयी। मेरा अवचेतन जब-तब मुझे ठकठकाता रहता था,
सिद्ध करो कि तुममें 'सुर' की समझ है।
अब मेरी अपनी चुनौती मेरे
सामने थी... बगैर किसी को भनक लगे, अपने आपको सिद्ध करने की। बिना किसी की
लाइन काटे, एक बड़ी लाइन खींचने की।
जुट गयी,
अपनी पाठ्य पुस्तक से ही बसंत ऋतु पर एक कविता चुनी फूल,
हवा, हरियाली, और सुरभि
के बाद बसंत... कुछ छोटी दिखती लड़कियों को फूल बनाया और अपने साथवालियों में
क्रमशः हरियाली, हवा,
बसंत और मैं स्वयं सुरभि... बंगाली लड़कियों से मिल कर खुद
अपनी बनायी ट्यून हारमोनियम पर ठीक करायी और छुट्टी के बाद आधे घंटे तक प्रैक्टिस।
रवींद्र-संगीतनुमा मेरी बनायी ट्यून और
नृत्य की अवधारणा... साथ की बंगाली लड़कियों ने मेरी बतायी नृत्य-मुद्राएं,
थोड़ी परिमार्जित कर ठीक कर लीं सब को 'मेरी' आइडिया बहुत पसंद आयी।
लेकिन उसी बीच पूरे एक हफ्ते बुखार में पड़ी रही। ठीक होने पर पहुंची तो पाया कि लड़कियों ने
कॉस्ट्यूम वगैरह भी लगभग तय कर प्रैक्टिस पूरी कर ली है। बस मुझे ही अपनी
प्रैक्टिस ठीक करनी थी ...
प्रैक्टिस के समय मैंने बिना
तैयारी के कुछ पोज देने की कोशिश की ही थी कि कक्षा की ही एक बंगाली लड़की आगे आ
मेरी मुद्राएं ठीक करने और स्वयं नृत्य करके मुझे दिखाने लगी। उसका ऐसा करना था कि
देखने वाली लड़कियां एक साथ कह उठीं- 'अरे तुम तो बहुत अच्छा कर रही हो अंजली! सुनो तुम ही क्यों
नहीं कर देतीं...?’ और
मैंने एक सफल अभिनेत्री की तरह उत्साह से भर कर,
'बिल्कुल... और क्या'
कुछ इस तरह कहा जैसे अंजली ने आड़े वक्त पर मेरी मदद की हो
और मैं हल्की हो गई होऊं...
लेकिन 'सच' कोई नहीं जान सका... कि इतने श्रम और मनोयोग से बनायी अपनी ही योजना से
निष्कासित थी मैं! एक हताशा को भुलाने के लिए जी जान से किया गया उपाय,
अंदर-अंदर दूसरी, और दुगनी हताशा से लथपथ कर गया। लेकिन लड़कियों के सामने
मैं एकदम हल्की... उत्फुल्ल प्रसन्नचित्त वही सूर्यबाला थी। बार-बार हाथ आयी हताशा
के ऊपर बेफिक्री के अभिनय में मैं उसी उम्र में निष्णात हो गयी थी।
लेकिन मेरा अवचेतन ऐसी हर हार के बाद कुछ नया कर गुजरने की
तरकीबें तलाशता ही रहता। ध्वस्त हुए खंडहर के ऊपर एक नयी निर्मिति का सपना कभी मुझसे छूट नहीं पाया...
तो अब !... स्वयं ही एक वर्षा गीत लिखा,
धुन भी बनायी, बना कर, पहले जीजी को सुनायी। फिर स्कूल में हारमोनियम पर पक्की करवाने के बाद,
अकेले ही घर में गीत की हर पंक्ति की मुद्राएं और स्टेप्स
भी स्वयं ही पक्के फाइनल किये। अन्य से राई-रत्ती सलाह लिये बिना,
सिर्फ जीजी से ही सलाह ली। सब से संतुष्ट होने के बाद,
स्वयं अपने क्लास की सात और लड़कियों को चुना और हर शाम
छुट्टी के बाद जमकर प्रैक्टिस शुरू हो गयी।
यह थी मेरे अवचेतन की,
मेरी हताशाओं पर ठंडी रूई का फाहा लगाने की तरकीब... अपने
ढंग से अपने नुक़सानों की भरपायी करने का शायद नशा था मुझे।
यह प्रसंग छोटी उम्र में ही
अपनी असफलताओं की भरपाई करने के तरीके का 'फंडा' बताने भर के लिए... क्योंकि आज की पीढ़ी बहुत जल्दी बेसब्र
हो आत्महत्या तक पर उतारू हो जाती है...
तब आपने क्या इरादा किया, हारने का या जीतने का?
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