शुक्रवार, 24 जनवरी 2025

जीतने का इरादा


             

जी हाँ, ये प्रश्न कीजिये अपने जीवन से और उत्तर दीजिये आप खुद। जीवन को साफ-साफ बता दीजिये कि तेरा इरादा चाहे कुछ भी हो मेरा इरादा पक्का है कि मैं हार नहीं मानूँगा। फिर देखिये राह में कैसे भी रोड़े आयें सब चकनाचूर हो जाएंगे। अपने सीमित दायरे में मैंने लेखिका सूर्यबाला का नाम नहीं सुना था। लेकिन जब उनका संस्मरण पढ़ा तो मुझे लगा कि इसे साझा करना चाहिए, आप लोगों के साथ, विशेष कर उन लोगों से जो जीवन से हताश हो जाते हैं, उस युवा वर्ग से जो थोड़ी सी असफलता नहीं झेल पाते हैं, निराश हो जाते हैं, आत्म-हत्या तक की चरम सीमा तक चले जाते हैं। शायद वे समझें कि असफलता एक चुनौती है, घुटने टेक दिये तो टूट गये, स्वीकार कर लिया तो बन गये। लेखिका की ही कलम से-

          अभाव का समय था लेकिन क्या मजाल जो किसी को हमारे अंदर का कोई सुराग लग पाता। हम सब भाई-बहन सब कुछ जी जान से एक दूसरे से भी छुपाये रहते थे और बाहर की शान तो हमारा तीन मंज़िला, सफेद जालियों वाला मकान कायम ही रखे रहता था।

       जीवन की चुनौती ने हमें मनहूसियत को छू मंतर करने का रास्ता सीखा दिया था। हम बहनें साथ-साथ गाने गातीं... साथ-साथ टीचरों की नकलें करतीं, गानों की पैरोडी, नाटक, अंताक्षरी (चलती रहती)... यही तो हमें हमारे अंदरूनी धक्कों को झेलने की ताकत देती थी, हमारे दुखों, अभावों के अंतहीन अंधेरे में जुगनू-सी झिलमिलाती थी...

          स्कूल में भी कम चुनौतियां नहीं थीं... और पिछड़ना मुझे मंजूर नहीं था। लेकिन खुद को पिछड़ने से बचाये रखने के अपने तरीके थे मेरे... अपनी  प्रतिस्पर्धी लड़की के साथ पूरे अपनेपन और सद्भाव बनाये रखते हुए अंदर के ईर्ष्या-द्वेष को गलाते हुए उससे अच्छे अंक लाने की कोशिश... उपाय... समाधान... ।  पढ़ाई, डिबेट, नाटक आदि सभी में स्कूल भर की चार-पांच अग्रणी लड़‌कियों में शुमार होने के बावजूद मैं घर पर शास्त्रीय संगीत नहीं सीख सकती थी, राग शंकरा और भैरवी की वे बंदिशें नहीं गा सकती थी।

          एक बार सचमुच कानों पर विश्वास नहीं हुआ... कक्षाध्यापिका ने घोषणा की - मुफ्त में संगीत सीखने की सुविधा। मैंने बड़े उत्साह से नाम दे दिया। संगीत के घोष माट्सा'ब मुझे बिल्कुल नहीं जानते थे। जब हम पंद्रह बीस लड़कियां पहली बार उनकी क्लास में पहुंची तो सबसे पहले उन्होंने हर लड़की से सरगम गवाया और गलत गाने वाली लड़कियों को एक तरफ अलगाते गये जिनमें मैं भी थी। शेष लड़कियों ने शायद ही जाना, समझा हो... लेकिन मैं कहीं न कहीं अपमानित, उपेक्षित, अयोग्य प्रमाणित हुई थी। अगले दिन चुपचाप नाम कटा दिया था मैंने। फिर कभी-संगीत की क्लास में नहीं गयी।  मेरा अवचेतन जब-तब मुझे ठकठकाता रहता था, सिद्ध करो कि तुममें 'सुर' की समझ है।

          अब मेरी अपनी चुनौती मेरे सामने थी... बगैर किसी को भनक लगे, अपने आपको सिद्ध करने की। बिना किसी की लाइन काटे, एक बड़ी लाइन खींचने की

       जुट गयी, अपनी पाठ्य पुस्तक से ही बसंत ऋतु पर एक कविता चुनी फूल, हवा, हरियाली, और सुरभि के बाद बसंत... कुछ छोटी दिखती लड़कियों को फूल बनाया और अपने साथवालियों में क्रमशः हरियाली, हवा, बसंत और मैं स्वयं सुरभि... बंगाली लड़कियों से मिल कर खुद अपनी बनायी ट्यून हारमोनियम पर ठीक करायी और छुट्टी के बाद आधे घंटे तक प्रैक्टिस। रवींद्र-संगीतनुमा मेरी बनायी  ट्यून और नृत्य की अवधारणा... साथ की बंगाली लड़कियों ने मेरी बतायी नृत्य-मुद्राएं, थोड़ी परिमार्जित कर ठीक कर लीं सब को 'मेरी' आइडिया बहुत पसंद आयी।

       लेकिन उसी बीच पूरे एक हफ्ते बुखार में पड़ी रही।  ठीक होने पर पहुंची तो पाया कि लड़कियों ने कॉस्ट्यूम वगैरह भी लगभग तय कर प्रैक्टिस पूरी कर ली है। बस मुझे ही अपनी प्रैक्टिस ठीक करनी थी ...

          प्रैक्टिस के समय मैंने बिना तैयारी के कुछ पोज देने की कोशिश की ही थी कि कक्षा की ही एक बंगाली लड़की आगे आ मेरी मुद्राएं ठीक करने और स्वयं नृत्य करके मुझे दिखाने लगी। उसका ऐसा करना था कि देखने वाली लड़कियां एक साथ कह उठीं- 'अरे तुम तो बहुत अच्छा कर रही हो अंजली! सुनो तुम ही क्यों नहीं कर देतीं...?’ और मैंने एक सफल अभिनेत्री की तरह उत्साह से भर कर, 'बिल्कुल... और क्या' कुछ इस तरह कहा जैसे अंजली ने आड़े वक्त पर मेरी मदद की हो और मैं हल्की हो गई होऊं...

          लेकिन 'सच' कोई नहीं जान सका... कि इतने श्रम और मनोयोग से बनायी अपनी ही योजना से निष्कासित थी मैं! एक हताशा को भुलाने के लिए जी जान से किया गया उपाय, अंदर-अंदर दूसरी, और दुगनी हताशा से लथपथ कर गया। लेकिन लड़कियों के सामने मैं एकदम हल्की... उत्फुल्ल प्रसन्नचित्त वही सूर्यबाला थी। बार-बार हाथ आयी हताशा के ऊपर बेफिक्री के अभिनय में मैं उसी उम्र में निष्णात हो गयी थी।

लेकिन मेरा अवचेतन ऐसी हर हार के बाद कुछ नया कर गुजरने की तरकीबें तलाशता ही रहता। ध्वस्त हुए खंडहर के ऊपर एक नयी निर्मिति का सपना कभी मुझसे छूट नहीं पाया...

तो अब !... स्वयं ही एक वर्षा गीत लिखा, धुन भी बनायी, बना कर, पहले जीजी को सुनायी। फिर स्कूल में हारमोनियम पर पक्की करवाने के बाद, अकेले ही घर में गीत की हर पंक्ति की मुद्राएं और स्टेप्स भी स्वयं ही पक्के फाइनल किये। अन्य से राई-रत्ती सलाह लिये बिना, सिर्फ जीजी से ही सलाह ली। सब से संतुष्ट होने के बाद, स्वयं अपने क्लास की सात और लड़कियों को चुना और हर शाम छुट्टी के बाद जमकर प्रैक्टिस शुरू हो गयी।

          कार्यक्रम शानदार रहा। एक स्वर से नृत्य बहुत सराहा गया। धानी रंग की अभ्रक छिड़की साड़ियों से लेकर गीत, संगीत तक। लेकिन सबसे ज़्यादा रोमांचित कर रहा था, टीचरों, लड़कियों का बार-बार एक दूसरे से कहना, 'पता है राइटर, कम्पोजर, डाइरेक्टर एंड डांसर आलइनवन शॉऽऽब.... एइ शुज्जि बाला......... यानि सूर्यबला। अब सरेआम प्रमाणित हो गया था कि मेरे पास 'सुर', हुनर है।

          यह थी मेरे अवचेतन की, मेरी हताशाओं पर ठंडी रूई का फाहा लगाने की तरकीब... अपने ढंग से अपने नुक़सानों की भरपायी करने का शायद नशा था मुझे।

          यह प्रसंग छोटी उम्र में ही अपनी असफलताओं की भरपाई करने के तरीके का 'फंडा' बताने भर के लिए... क्योंकि आज की पीढ़ी बहुत जल्दी बेसब्र हो आत्महत्या तक पर उतारू हो जाती है...

          तब आपने क्या इरादा किया, हारने का या जीतने का?

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

चैनल को  जरूर से

लाइक, सबस्क्राइब और शेयर

करें।

यू ट्यूब पर सुनें :

https://youtu.be/pjqSR717Xpw


शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

देखें, तो दिखाई पड़े

  

          जी हाँ, हमें दिखा लेकिन हमने देखा नहीं, हमें सुना लेकिन हमने सुना नहीं। यह एक बड़ी त्रासदी है लेकिन सच्चाई भी यही है। होता तो आँखों के सामने ही है लेकिन हम उसे देखते नहीं, आवाज तो कानों में जाती है लेकिन हम सुनते नहीं। 

 

          रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम था नरेंद्र, प्यार से लोग कहते थे नरेन। परिवार, धार्मिक प्रवृत्ति का था लेकिन नरेन को धर्म-संत-महात्मा में कोई रुचि नहीं थी। परिवार के लोग रामकृष्ण परमहंस से मिलने जाते थे, लेकिन नरेन नहीं जाता। परमहंस के अनुरोध पर बड़ी मुश्किल से परिवार वाले  नरेन को उनके पास ले गये। लेकिन मिलने पर नरेन ने  परमहंस से उद्दण्डता से पूछा, “क्या आपने ईश्वर के दर्शन किये हैं?” परमहंस ने धीमे से मुसकुराते हुए कहा, “हाँ, एक बार नहीं, अनेक बार। ठीक वैसे ही जैसे मैं तुम्हें देख रहा हूँ, तुमसे बात कर रहा हूँ।“ आत्मविश्वास से भरे इस उत्तर की नरेन को अपेक्षा नहीं थी। नरेन शांत हो गये। विनम्रता से उसने दूसरा प्रश्न किया, “मुझे ईश्वर के दर्शन की बड़ी अभिलाषा है, क्या आप मुझे उनके दर्शन करा सकते हैं, मेरी उनसे बात करा सकते हैं?” रामकृष्ण परमहंस ने उसी आत्मविश्वास और सहजता से कहा, “हाँ, जरूर करा सकता हूँ।“ उन्होंने नरेन को कुछ दिनों बाद फिर अपने पास बुलाया। नरेन असमंजस में भरा उनके पास पहुंचा। परमहंस, नरेन को काली की प्रतिमा के सामने ले गये और दरवाजा बंद कर दिया। माँ नरेन की आँखों के सामने थीं और उन्हें दिखा, नरेन के कानों में आवाज गई और उन्हें सुना। नरेन उनके शिष्य बन गये, नरेन से स्वामी विवेकानंद बने और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सनातन धर्म को स्थापित किया।

 

          कुछ वर्षों पहले एक मूवी आई थी ओएमजी (ओ माइ गॉड) अक्षय कुमार और परेश रावल की। एक दिन परेश बड़ा परेशान सा अपने घर में अकेला बैठा है। तभी सामने सोफ़े पर, सफ़ेद लिबास में किसी अनजान व्यक्ति को मुसकुराते हुए बैठा देख वह चौंक उठता है और पूछता है कि वह कौन है? वह अपने को भगवान श्री कृष्ण बताता है।

“अच्छा तो तुम भगवान श्रीकृष्ण हो! कहाँ है, तुम्हारा मोरपंख कहाँ है? कहाँ है तुम्हारी बांसुरी, पीताम्बर, मोतियों की माला?, परेश गुस्से मैं पूछता है।

वहीं परेश रावल के विवाह की एक फोटो दिखा कर कृष्ण पूछता है, “तुम्हारे सर की पगड़ी, बदन पर अचकन, फूलों की बड़ी सी माला, कहाँ है?”

परेश लापरवाही से जवाब देता है, “ये तो मेरी शादी की फोटो है, यह पोशाक हर समय नहीं पहनता।“

श्री कृष्ण कहते हैं, “वाह! जैसे तुम अलग-अलग रूप में रहते हो मैं भी अलग-अलग समय पर अलग-अलग रूप में रहता हूँ। हर समय एक ही रूप में नहीं रहता?” और इस प्रकार बात आगे बढ़ती है।

 

          जब हम अपने सनातन धर्म में 33 कोटि देवी-देवता की बात करते हैं तो उनके उतने ही स्वरूप भी तो होंगे! उनके दर्शन अलग-अलग रूपों में हो ही सकते हैं। यही नहीं जब उनके गण किसी कार्य को सम्पन्न कर सकते हैं तो हर कार्य के लिये ठाकुर को स्वयं दौड़ने की क्या आवश्यकता है?

 

          अगर हम सचेत हैं तो ईश्वर के दर्शन हमें कई रूपों में प्रायः होते ही रहते हैं। यह बहुत सहज और सरल है। ऐसे ही दर्शन  की घटी साधारण सी असाधारण घटनाएँ हमारी ही  जुबान में :-



1.     मेरा स्वास्थ्य कुछ नरम चल रहा था। कोई सुधार नहीं हो रहा था। आखिर मैंने अनेक स्वयं रक्त परीक्षण करवाये। शाम तक रिपोर्ट आने की प्रतीक्षा कर रहा था। उस दिन जब आश्रम की “SABDA” पुस्तकों की दुकान में बैठा था, एक अंजान वृद्ध सज्जन आये, अपने बैग से फोटो कॉपी के दो पन्ने देते हुए कहा कि इसे जरूर से पढ़ें,  इनमें सोडियम, विटामिन बी और डी के बारे में बहुमूल्य जानकारियाँ हैं और उसे ध्यान से पढ़ने की हिदायत देकर चले गये। मैंने उसे वहीं टेबल पर छोड़ दिया। रात को रिपोर्ट आई। इन्हीं तीन, सोडियम, विटामिन बी और डी की कमी थी।  दिखा, सुना और ईश्वर के इस स्वरूप को नमन किया।

 

2.     कई उपचार करने के बाद भी विशेष सुधार नहीं हुआ। डॉक्टर से फोन पर बात हुई, डॉक्टर ने शनिवार को सुबह हास्पिटल बुलाया। शारीरिक कमजोरी के कारण हॉस्पिटल तक इतनी दूर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। मैं बार-बार मन में दोहरा रहा था, कैसे जाऊँ, नहीं जाऊंगा लेकिन दिखाना भी जरूरी है, क्या करूँ?” शुक्रवार की शाम को फोन आया कि हॉस्पिटल नहीं जाना है क्योंकि डॉक्टर खुद ही आश्रम आ रहे हैं। मेरी आँखों में आँसू आ गये। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसा भी हो सकता है! दैवीय कृपा ही तो थी।

 


3.     एक आध्यात्मिक प्रश्न परेशान कर रखा था। उत्तर मिल नहीं रहा था और मन था कि बार-बार उस प्रश्न पर आकर अटक रहा था। दीदी ने समाधि स्थल पर जाने कहा। उधर जा ही रहा था कि एक परिचित ने पुकार कर बुलाया, पहले इधर आइए, जरूरी काम है। मैं लौटा और उनके बगल में बैठ गया। तभी बेंच के सामने बनी फूलों की क्यारियों को लांघ कर एक सज्जन हमारी तरफ बढ़े। उन्हें अनेक बार वहाँ देखा है। लेकिन उनसे कभी दुआ-सलाम तक नहीं हुई। हमारे पास आकर मेरे मन में चल रहे द्वंद्व का उत्तर दे, जैसे आए थे वैसे ही वापस भी चले गए। मेरा मन शांत हो गया, उद्विग्नता समाप्त हो गई, चित्त प्रसन्न हो गया।  ईश्वर की वाणी सुनी, एक अलग स्वरूप में ईश्वर के दर्शन हुए।

          देखने और सुनने का कार्य आँख या कान नहीं करते, ये तो केवल प्रवेश द्वार हैं। इनके पीछे कोई और ही है जो सुनता है, देखता है। अगर हम सजग हैं, सचेतन हैं तभी देख और सुन पाते हैं अन्यथा केवल तस्वीर देखते हैं, शब्द सुनते हैं।

          हमें पल-पल उनके दर्शन होते हैं, उनकी आवाज सुनाई देती है लेकिन हम देखते नहीं, सुनते नहीं।  देखें तो दिखाई पड़े, सुने तो सुनाई पड़े।

 

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

चैनल को  जरूर से

लाइक, सबस्क्राइब और शेयर

करें।

यू ट्यूब पर सुनें :

https://youtu.be/mD89_lwIEzs



शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

सूतांजली जनवरी 2025


 मनुष्य की महानता इसमें नहीं है कि वह क्या है,

बल्कि इसमें है कि वह किसे सम्भव बनाता है।

श्रीअरविंद

------------------ 000 ----------------------

नववर्ष 2025 के आगमन पर हार्दिक बधाई

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

यू ट्यूब पर सुनें :

https://youtu.be/E52NBZZC_Qw

ब्लॉग  पर पढ़ें :  

https://sootanjali.blogspot.com/2025/01/2025.html


तोड़ो मन की बेड़ी

             आज प्रारम्भ करते हैं रोम की एक पुरानी, लेकिन प्रेरणादायक कहानी से -            एक बार, पड़ोसी राष्ट्र ने रोम पर आक्रमण किया। यु...