हमारे कार्य का फल कार्य पर नहीं कार्य के पीछे की मंशा पर ही निर्भर करता है।
पवित्र मंशा से किया हुआ दुष्कर्म भी सत्कर्म स्वरूप है और अ-पवित्र मंशा से किया
हुआ सत्कर्म भी दुष्कर्म स्वरूप है।
क्रिस्टोफर व्रेन संसार के
महान वास्तुकारों में एक हैं। उन्होंने विश्व की अनेक विशाल और सुंदर भवनों, इमारतों और स्मारकों का निर्माण किया है, जिनमें सेंट पॉल कैथेड्रल भी शामिल है। इसके
निर्माण के दौरान, एक दिन निर्माण कार्य का निरीक्षण करते
समय, उन्होंने तीन राज-मिस्त्रियों को कार्य करते देखा। पहला,
उदासीन और सुस्त तरीके से काम कर रहा था जैसे कि उसके लिए यह एक बोझ
है। दूसरा, थोड़ा बेहतर ढंग से काम को लगन से कर रहा था। और तीसरा आनंदित हो कर मुसकुराते
हुए पूरी एकाग्रता से कर रहा था। जाहिर तौर पर उसे अपने काम पर गर्व था। वे
तीनों इमारत की दीवार बनाने कार्य कर रहे
थे।
व्रेन ने तीनों से एक ही
प्रश्न पूछा, ‘तुम क्या कर रहे हो?’ पहले राजमिस्त्री
ने उत्तर दिया, 'मैं दीवार खड़ी कर रहा हूं।' दूसरे ने कहा, 'मैं एक गिरजाघर का निर्माण कर रहा
हूं।' और तीसरे ने उत्तर दिया, ‘मैं
परमेश्वर का घर बना रहा हूं।’ उनमें से प्रत्येक का व्यवसाय
एक ही था, कार्य भी एक ही कर रहे थे। लेकिन, काम के प्रति उनके दृष्टिकोण नाटकीय रूप से भिन्न थे। पहला, बिना किसी उत्तरदायित्व के बस नौकरी कर रहा था,
दूसरे में उत्तरदायित्व की भावना थी और तीसरा, अपने कार्य
में ‘ईश्वर की पुकार’ का अनुभव कर रहा
था। अतः तीनों के कार्य का परिणाम भी अलग-अलग था। पहले वाले की ईंटें टेढ़ी-मेढ़ी और
बेढंगे ढंग से लगी हुई थीं, दूसरे की एक सार एक पंक्ति में
लगी हुई थी और तीसरे की ऐसा लग रहा था कि दीवार नहीं बल्कि कोई कलाकृति बना रहा हो, एक-एक ईंट को सजा-सजा कर लगाया
गया था। उसमें काम को सुंदर ढंग से करने का जुनून पैदा हो गया था।
आप जिस भी कार्य में लगे हैं
अगर उसे करने में आपकी एकाग्रता नहीं हो रही है तो उसे छोड़ दीजिये क्योंकि आप अपना
सर्वोत्तम नहीं दे पायेंगे – भले ही यह नौकरी हो या व्यवसाय या सेवा या घरेलू काम।
कैसा भी काम हो, उसमें डूब जाइये। उसे सुंदर से सुंदर तरीके से कीजिये। सुंदर
से करने का लगातार अभ्यास लीजिये, धीरे-धीरे यह आपका स्वभाव
हो जायेगा। परिणाम अप्रत्याशित होंगे। आनंद का अनुभव करने लगेंगे। थकावट नहीं
होगी। आपके कार्य में कलात्मकता आ जायेगी। अनजाने में दैवीय शक्तियों का सहयोग
मिलने लगेगा।
एक बार एक बहुराष्ट्रीय, मल्टीनेशनल संस्थान के मालिक, प्रशांत से उनकी
सफलता का राज पूछा गया। प्रशांत ने बताया, ‘मैं एक छोटा-मोटा व्यवसाय करता था, लेकिन सपने थे एक बहुराष्ट्रीय संस्थान के। एक दिन मैं अपनी
ऑफिस में बैठा डाक से आये पत्रों के लिफाफे खोल रहा था उसी समय एक बड़ी कंपनी का
ब्रांच मैनेजर आया, मुझसे थोड़ी औपचारिक बातें कर चला गया। कुछ दिनों बाद मुझे उस क्षेत्र का एकमात्र वितरक, सोल डिस्ट्रीब्यूटर, बना दिया गया । मुझे बड़ा
आश्चर्य हुआ। उसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। कुछ समय बाद मैंने उससे
पूछा आपने मुझ पर इतना बड़ा भरोसा क्यों किया। उसने बताया कि जब वह मेरे कार्यालय
में आया उस समय मैं डाक से आये पत्रों के लिफाफे खोलने और उन्हें मोड़ कर रखने का
कार्य बड़ी तन्मयता, सफाई और एकाग्रता से कार्य कर रहा था। यह
देख उसे विश्वास हो गया कि जो व्यक्ति लिफ़ाफ़ा खोलने जैसा साधारण कार्य भी इतनी
सुंदरता से कर रहा है वह जरूर रेस जीतने वाला घोड़ा सिद्ध होगा और मैंने उसे निराश
नहीं किया।
प्रशांत ने आगे बताया - चित्रा जी ने श्रीअरविंद आश्रम, पांडिचेरी में श्रीमाँ के संस्मरण में लिखा है कि एक दिन चित्रा जी अन्य
सहयोगियों के साथ आश्रम का कुछ काम कर रही थीं और आपस में कुछ बात-चीत भी हो रही थी। अगली सुबह जब वे श्रीमाँ के
पास गयीं तब उन्होंने कहा, "मैंने सुना कि काम करते समय तुमलोग आपस में बातें कर रही
थीं।" चित्रा जी को हैरानी हुई, कहा, "हमें सिर्फ काग़ज़ को मोड़ने का काम करना था माँ,
और काम पूरा हो गया है।" माताजी ने कहा,
"अगर मुझे काग़ज़ को मोड़ना होता तो
मैं अपनी पूरी चेतना उसी में लगा देती, ताकि उससे बेहतर हो ही न सके।" उस दिन जब वह अधिकारी
मेरे कार्यालय में आया तब मैं यही लिफाफा खोलने और कागज मोड़ने का काम कर रहा था।
चित्रा जी आगे कहती हैं - श्रीमाँ
पांडिचेरी आश्रम में विभागों का दौरा करते समय एक बार हमारे विभाग के दौरे पर आईं और
सीधे एक कोने में रखी अलमारी के सामने पहुंची। विभाग की साफ-सफाई और सजाते समय बचे
हुए सब सामान हमने उसमें रख दिये थे। पूछने पर माताजी ने बताया कि मुझे ऐसा लगा
जैसे इस अलमारी से आवाज आ रही है – देखो, हमें कैसे ठूंस रखा है। चित्रा जी लिखती हैं एक मूलभूत पक्ष जिसे हमने
माँ से सीखा वह था, हर कार्य तन्मयता से करना,
खूबसूरत ढंग से करना।
यह दुनिया कितनी अद्भुत होगी
अगर हममें से हर कोई हर कार्य को पूरी एकाग्रता से करे। तब हमें इस बात की चिंता
रहेगी कि उत्कृष्टता में कहीं चूक न हो जाये। एक ऐसी दुनिया होगी जहां उत्कृष्टता
का राज होगा। हर कोई उत्कृष्टता का अनुसरण कर रहा है, तो इसका मतलब होगा कि लोग प्रतिबद्धता, ईमानदारी, सद्भावना और एकाग्रता से काम कर रहे हैं। ऐसा समाज अवश्य ही अच्छा होगा, सुंदर होगा, कलात्मक होगा।
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