शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2024

क्या कभी भगवान् से मिलने का कार्यक्रम बनाया?


           

हाँ, बनाया है न, पिछले साल बद्रीनाथ और केदारनाथ हो आये। उसके पहले बनारस काशी विश्वनाथ जी गये थे और अभी-अभी अयोध्या घूम आए हैं। बारह ज्योतिर्लिंग में दस कर लिये हैं बाकी दो भी जाएंगे। जगन्नाथ पूरी, द्वारका .......। न...न...न...न... आप गलत समझ रहे हैं, मैं मंदिर और तीर्थ में जाने की बात नहीं कर रहा। मैं ने तो सिर्फ पूछा है - भगवान से मिलने का कार्यक्रम? जैसे आप बैंक नहीं बैंक मैनेजर से मिलने जाते हैं, दिल्ली नहीं उद्योग मंत्री से मिलने जाते हैं। आप तो तीर्थाटन के बहाने घूमने जाने की बातें बता रहे हैं। भगवान से मिलने का कार्यक्रम तो सिर्फ वही बना सकते हैं जिनका हृदय अत्यंत निर्मल होता है। अब देखिये एक छोटे से बच्चे ने कैसे भगवान से मिलने का कार्यक्रम बनाया और उनसे मिलने पूरी तैयारी के साथ निकल पड़ा। देखें क्या हुआ उसके साथ?

          छोटा सा नरेन, मात्र छह साल का, लेकिन उसकी योजनाएँ बड़ों के जैसी हुआ करती थीं। घर, बाहर बात-बात पर लोग भगवान् की दुहाई दिया करते थे, माँ ने तो उससे कई बार कहा भी था कि भगवान् को ढूँढ़ने कोई स्वर्ग तक थोड़े ही जाना होता है, वे हमारे बहुत पास होते हैं, कहीं भी मिल सकते हैं। एक बार तो यह भी कहा था कि सबके अन्दर भगवान् रहते हैं, ज़रा अन्दर झाँको, मिल जायेंगे। लेकिन नरेन को यह विचार बहुत पसन्द न आया, अपने अंदर! कहाँ झाँके, कैसे झाँके? तो एक दिन उसने उन्हें अपने मोहल्ले में ही ढूँढ़ने की ठान ली। 'शुभस्य शीघ्रम्'- उसी दिन नरेन ने अपना छोटा थैला उठाया,  पावरोटी ली, सूखा मेवा रखा और कुछ फल भी डाल लिये - अगर मोहल्ले से कुछ दूर निकलना पड़े तो? सोच कर नरेन ने खाना-पीना संग रख लिया। जूते-मोजे पहन, टोपी लगा, अपना थैला कन्धे पर टाँग, वह माँ के पास आया तो वे उसे निहराती ही रह गयीं। “माँ, मैं ज़रा भगवान् से मिल कर आया। सवेरे-सवेरे तो कहीं आस-पास ही मिल जायेंगे।"

          माँ ने उसे गोदी में उठा कर चूमते हुए हिदायत दी, “वाह मेरे छोटे कोलम्बस! लेकिन कहीं दूर न निकल जाना, आस-पास ही रहना, ठीक है?"

नरेन ने हामी भर ली, “ठीक है माँ, आज नहीं मिले तो कल तुम्हारे साथ दूर जाकर खोजूंगा।” माँ ने बेटे की बलैयाँ लीं और वह नन्हा कोलम्बस अपने अभियान पर निकल पड़ा।

          दस मिनट की पैदल यात्रा तय कर वह अपने घर से तीन सड़क दूर पार्क के सामने आ पहुँचा। नरेन को भूख और प्यास सताने लगीं। “कुछ खा-पीकर आगे बढ़ूँगा।" सोच कर वह पास ही बेंच पर सुस्ताने के लिए बैठ गया। थैला खोला, पावरोटी निकाल कर पहला कौर लेने ही वाला था कि उसकी नज़र सामने की बेंच पर बैठी ग़रीब वृद्धा पर चली गयी। दोनों एक-दूसरे की तरफ़ देख कर अनायास मुस्कुरा उठे। नरेन अपना सामान उठा उसी के पास जाकर बैठ गया, उसे पावरोटी दी। स्त्री ने कृतज्ञता भरी आँखों से ले ली और ऐसी सुन्दर मुस्कान बिखेरी कि नरेन मुग्ध हो गया। दोनों चुपचाप खाते रहे। पावरोटी के बाद सूखा मेवा, फल इत्यादि बारी-बारी से निकले और बालक और वृद्धा दोनों आत्म-सन्तोष से भरे हुए धीमे-धीमे खाते रहे। दोनों के बीच बातचीत नहीं के बराबर हुई, केवल मुस्कानों के दौर ही चलते रहे। धीरे-धीरे सारा खाना खत्म हो गया। भरे पेट का सन्तोष दोनों के चेहरों पर खिल उठा। दोपहर का सूरज चढ़ रहा था। नरेन को अचानक महसूस हुआ कि माँ को न देखे काफ़ी समय गुज़र गया है, उसे माँ की याद सताने लगी। वह उठा, दोनों ने अभिवादन किया और नरेन घर की ओर बढ़ चला। चार क़दम चलने के बाद पलट कर उसने वृद्धा को देखा, और उसके चेहरे पर छायी अपूर्व मुस्कान से नरेन गदगद हो उठा, दौड़ कर वृद्धा से जा लिपटा और दोनों चुपचाप कुछ क्षणों तक उसी तरह आलिंगनबद्ध रहे। न नरेन को कुछ कहने की ज़रूरत जान पड़ी, न वृद्धा को, बस दोनों की आँखों की चमक ही आपस में बोली रही थीं।

          खुशी से झूमता नरेन घर पहुँचा। माँ ने पूछा, “वाह बेटे कोलम्बस, कुछ हाथ लग गया क्या?...।" बच्चे ने माँ को बोलने नहीं दिया बीच में ही उसकी बात काटते हुए बोल पड़ा, अरे सुनो तो माँ, मुझे भगवान् मिल गये। अभी-अभी मैं उन्हीं के साथ ही नाश्ता करके आ रहा हूँ। वे एक बूढ़ी, ग़रीब स्त्री बन कर मुझसे मिलने, पार्क में आकर बैठ गये थे। तुम्हीं तो कहा करती हो न कि वे कोई भी रूप ले सकते हैं।" नरेन बोलता गया, “अब पूछोगी, कैसे पहचाना मैंने उन्हें? माँ, पहचाना उनकी मुस्कान से, हम आपस में कुछ बोले तो नहीं लेकिन वे बार-बार मुझे देख मुस्कुरा रही थीं, जब-जब मुस्कुरातीं, चारों तरफ़ एक रौशनी फैलती जाती...। माँ, भगवान् से ही मिला न मैं?" बच्चे ने माँ से अपनी बात की पुष्टि करवानी चाही। माँ ने उसे अपने सीने से लगा कर कहा, “बिलकुल बेटा, उन्हीं से मिल कर, उन्हीं के साथ नाश्ता करके आये हो तुम।" फिर धीरे से उसके कान में फुसफुसाया- "बेटे, अब राज़ की यह बात गाँठ बाँध लो कि भगवान् अपनी इस दुनिया से इतना प्यार करते हैं कि सचमुच वे यहीं बस गये हैं और उन्हें देखने और अनुभव करने के लिए बस हमें अपनी इन आँखों को सजग रखना और अपने हृदय को पूरी तरह से खुला रखना होता है।"

       उधर वह वृद्धा जब अपने घर पहुँची तो उसका बेटा उसे देख ठगा सा खड़ा रह गया- "माँ, क्या बात है, हमेशा परेशानी और दुःख से लटका तुम्हारा चेहरा आज अपूर्व कान्ति और शान्ति से दमक कैसे रहा है? कितनी सुन्दर लग रही हो आज तुम।"

          वृद्धा अपने पुत्र का हाथ थाम ख़ुशी से चहक उठी, "पता है बेटे, आज सचमुच मैं भगवान् के साथ नाश्ता करके आ रही हूँ। जीवन में ऐसी ख़ुशी मुझे पहली बार मिली।" माँ ने अपनी बात जारी रखी, “पार्क की बेंच पर मेरे साथ आकर बैठ गया था वह। हाँ, मैंने जितना सोचा था इससे कहीं ज़्यादा छोटा निकला ईश्वर। कितनी सरलता से बच्चे के रूप में आया, मेरे पास बैठ कर, नाश्ता कर चला गया!"

          जब आप भगवान से मिलने जाते हैं तब आपके आँखों के सामने केवल भगवान होते हैं, मंदिर नहीं। आँखें केवल उन्हें ही ढूंढती है, उनके अलावा और कुछ नहीं। और समाने आते ही उसे तुरंत पहचान लेते हैं।

-वन्दना (अग्निशिखा)

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शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2024

हर कार्य में उत्कृष्टता

  


हमारे कार्य का फल कार्य पर नहीं कार्य के पीछे की मंशा पर ही निर्भर करता है। पवित्र मंशा से किया हुआ दुष्कर्म भी सत्कर्म स्वरूप है और अ-पवित्र मंशा से किया हुआ सत्कर्म भी दुष्कर्म स्वरूप है।

          क्रिस्टोफर व्रेन संसार के महान वास्तुकारों में एक हैं। उन्होंने विश्व की अनेक विशाल और सुंदर भवनों, इमारतों और स्मारकों का निर्माण किया है,  जिनमें सेंट पॉल कैथेड्रल भी शामिल है। इसके निर्माण के दौरान, एक दिन निर्माण कार्य का निरीक्षण करते समय, उन्होंने तीन राज-मिस्त्रियों को कार्य करते देखा। पहला, उदासीन और सुस्त तरीके से काम कर रहा था जैसे कि उसके लिए यह एक बोझ है। दूसरा, थोड़ा बेहतर ढंग से काम को लगन  से कर रहा था। और तीसरा आनंदित हो कर मुसकुराते हुए पूरी एकाग्रता से कर रहा था। जाहिर तौर पर उसे अपने काम पर गर्व था। वे तीनों इमारत की दीवार बनाने  कार्य कर रहे थे।

          व्रेन ने तीनों से एक ही प्रश्न पूछा, ‘तुम क्या कर रहे हो?’ पहले राजमिस्त्री ने उत्तर दिया, 'मैं दीवार खड़ी कर रहा हूं।' दूसरे ने कहा, 'मैं एक गिरजाघर का निर्माण कर रहा हूं।' और तीसरे ने उत्तर दिया, ‘मैं परमेश्वर का घर बना रहा हूं। उनमें से प्रत्येक का व्यवसाय एक ही था, कार्य भी एक ही कर रहे थे। लेकिन, काम के प्रति उनके दृष्टिकोण नाटकीय रूप से भिन्न थे। पहला, बिना किसी उत्तरदायित्व के बस नौकरी कर रहा था, दूसरे में उत्तरदायित्व की भावना थी और तीसरा, अपने कार्य में ईश्वर की पुकार का अनुभव कर रहा था। अतः तीनों के कार्य का परिणाम भी अलग-अलग था। पहले वाले की ईंटें टेढ़ी-मेढ़ी और बेढंगे ढंग से लगी हुई थीं, दूसरे की एक सार एक पंक्ति में लगी हुई थी और तीसरे की ऐसा लग रहा था कि दीवार नहीं बल्कि कोई कलाकृति बना रहा हो, एक-एक ईंट को सजा-सजा कर लगाया  गया था। उसमें काम को सुंदर ढंग से करने का जुनून पैदा हो गया था।

          आप जिस भी कार्य में लगे हैं अगर उसे करने में आपकी एकाग्रता नहीं हो रही है तो उसे छोड़ दीजिये क्योंकि आप अपना सर्वोत्तम नहीं दे पायेंगे – भले ही यह नौकरी हो या व्यवसाय या सेवा या घरेलू काम। कैसा भी काम हो, उसमें डूब जाइये। उसे सुंदर से सुंदर तरीके से कीजिये। सुंदर से करने का लगातार अभ्यास लीजिये, धीरे-धीरे यह आपका स्वभाव हो जायेगा। परिणाम अप्रत्याशित होंगे। आनंद का अनुभव करने लगेंगे। थकावट नहीं होगी। आपके कार्य में कलात्मकता आ जायेगी। अनजाने में दैवीय शक्तियों का सहयोग मिलने लगेगा।

          एक बार एक बहुराष्ट्रीय, मल्टीनेशनल संस्थान के मालिक, प्रशांत से उनकी सफलता का राज पूछा गया। प्रशांत ने बताया, मैं एक छोटा-मोटा व्यवसाय करता था, लेकिन सपने थे  एक बहुराष्ट्रीय संस्थान के। एक दिन मैं अपनी ऑफिस में बैठा डाक से आये पत्रों के लिफाफे खोल रहा था उसी समय एक बड़ी कंपनी का ब्रांच मैनेजर आया, मुझसे थोड़ी औपचारिक बातें कर चला गया।  कुछ दिनों बाद मुझे उस क्षेत्र का एकमात्र वितरक, सोल डिस्ट्रीब्यूटर, बना दिया गया । मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। कुछ समय बाद मैंने उससे पूछा आपने मुझ पर इतना बड़ा भरोसा क्यों किया। उसने बताया कि जब वह मेरे कार्यालय में आया उस समय मैं डाक से आये पत्रों के लिफाफे खोलने और उन्हें मोड़ कर रखने का कार्य बड़ी तन्मयता, सफाई और एकाग्रता से कार्य कर रहा था। यह देख उसे विश्वास हो गया कि जो व्यक्ति लिफ़ाफ़ा खोलने जैसा साधारण कार्य भी इतनी सुंदरता से कर रहा है वह जरूर रेस जीतने वाला घोड़ा सिद्ध होगा और मैंने उसे निराश नहीं किया। 

          प्रशांत ने आगे बताया - चित्रा जी ने श्रीअरविंद आश्रम, पांडिचेरी में श्रीमाँ के संस्मरण में लिखा है कि एक दिन चित्रा जी अन्य सहयोगियों के साथ आश्रम का कुछ काम कर रही थीं और आपस में कुछ बात-चीत भी हो रही थी। अगली सुबह जब वे श्रीमाँ के पास गयीं तब उन्होंने कहा, "मैंने सुना कि काम करते समय तुमलोग आपस में बातें कर रही थीं।" चित्रा जी को हैरानी हुई, कहा, "हमें सिर्फ काग़ज़ को मोड़ने का काम करना था माँ, और काम पूरा हो गया है।" माताजी ने कहा, "अगर मुझे काग़ज़ को मोड़ना होता तो मैं अपनी पूरी चेतना उसी में लगा देती, ताकि उससे बेहतर हो ही न सके।" उस दिन जब वह अधिकारी मेरे कार्यालय में आया तब मैं यही लिफाफा खोलने और कागज  मोड़ने का काम कर रहा था।

          चित्रा जी आगे कहती हैं - श्रीमाँ पांडिचेरी आश्रम में विभागों का दौरा करते समय एक बार हमारे विभाग के दौरे पर आईं और सीधे एक कोने में रखी अलमारी के सामने पहुंची। विभाग की साफ-सफाई और सजाते समय बचे हुए सब सामान हमने उसमें रख दिये थे। पूछने पर माताजी ने बताया कि मुझे ऐसा लगा जैसे इस अलमारी से आवाज आ रही है – देखो, हमें कैसे ठूंस रखा है। चित्रा जी लिखती हैं एक मूलभूत पक्ष जिसे हमने माँ से सीखा वह था, हर कार्य तन्मयता से करना, खूबसूरत ढंग से करना।

          यह दुनिया कितनी अद्भुत होगी अगर हममें से हर कोई हर कार्य को पूरी एकाग्रता से करे। तब हमें इस बात की चिंता रहेगी कि उत्कृष्टता में कहीं चूक न हो जाये। एक ऐसी दुनिया होगी जहां उत्कृष्टता का राज होगा। हर कोई उत्कृष्टता का अनुसरण कर रहा है, तो इसका मतलब होगा कि लोग प्रतिबद्धता, ईमानदारी, सद्भावना और एकाग्रता से काम कर रहे हैं। ऐसा समाज अवश्य ही अच्छा होगा, सुंदर होगा, कलात्मक होगा।

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शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2024

सूतांजली अक्तूबर 2024

 


असहयोग और कुछ नहीं,

शासकों के पशुबल को हटाने का कर्त्तव्य है

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आत्मविश्वास

                 एक बुजुर्ग दंपत्ति बोस्टन स्टेशन पर ट्रेन से उतरे। महिला साधारण सूती वस्त्र पहने थी और पुरुष भी एक हाथ से बुने सूते का सा...