हाँ, बनाया है न, पिछले साल बद्रीनाथ और केदारनाथ हो आये। उसके पहले बनारस काशी विश्वनाथ जी गये थे और अभी-अभी अयोध्या घूम आए हैं। बारह ज्योतिर्लिंग में दस कर लिये हैं बाकी दो भी जाएंगे। जगन्नाथ पूरी, द्वारका .......। न...न...न...न... आप गलत समझ रहे हैं, मैं मंदिर और तीर्थ में जाने की बात नहीं कर रहा। मैं ने तो सिर्फ पूछा है - ‘भगवान’ से मिलने का कार्यक्रम? जैसे आप बैंक नहीं बैंक मैनेजर से मिलने जाते हैं, दिल्ली नहीं उद्योग मंत्री से मिलने जाते हैं। आप तो तीर्थाटन के बहाने घूमने जाने की बातें बता रहे हैं। भगवान से मिलने का कार्यक्रम तो सिर्फ वही बना सकते हैं जिनका हृदय अत्यंत निर्मल होता है। अब देखिये एक छोटे से बच्चे ने कैसे भगवान से मिलने का कार्यक्रम बनाया और उनसे मिलने पूरी तैयारी के साथ निकल पड़ा। देखें क्या हुआ उसके साथ?
छोटा सा नरेन, मात्र छह साल का, लेकिन उसकी योजनाएँ बड़ों के जैसी
हुआ करती थीं। घर, बाहर बात-बात पर लोग भगवान् की दुहाई दिया
करते थे, माँ ने तो उससे कई बार कहा भी था कि भगवान् को
ढूँढ़ने कोई स्वर्ग तक थोड़े ही जाना होता है, वे हमारे बहुत
पास होते हैं, कहीं भी मिल सकते हैं। एक बार तो यह भी कहा था
कि सबके अन्दर भगवान् रहते हैं, ज़रा अन्दर झाँको, मिल जायेंगे। लेकिन नरेन को यह विचार बहुत पसन्द न आया, अपने अंदर! कहाँ झाँके, कैसे झाँके? तो एक दिन उसने उन्हें अपने मोहल्ले में ही ढूँढ़ने की ठान ली। 'शुभस्य शीघ्रम्'- उसी दिन नरेन ने अपना छोटा थैला
उठाया, पावरोटी ली,
सूखा मेवा रखा और कुछ फल भी डाल लिये - अगर मोहल्ले से कुछ दूर
निकलना पड़े तो? सोच कर नरेन ने खाना-पीना संग रख लिया।
जूते-मोजे पहन, टोपी लगा, अपना थैला
कन्धे पर टाँग, वह माँ के पास आया तो वे उसे निहराती ही रह
गयीं। “माँ, मैं ज़रा भगवान् से मिल कर आया। सवेरे-सवेरे तो
कहीं आस-पास ही मिल जायेंगे।"
माँ
ने उसे गोदी में उठा कर चूमते हुए हिदायत दी, “वाह मेरे
छोटे कोलम्बस! लेकिन कहीं दूर न निकल जाना, आस-पास ही रहना, ठीक है?"
नरेन ने हामी भर ली,
“ठीक है माँ, आज नहीं मिले तो कल तुम्हारे साथ
दूर जाकर खोजूंगा।” माँ ने बेटे की बलैयाँ लीं और वह नन्हा कोलम्बस अपने अभियान पर
निकल पड़ा।
दस मिनट की पैदल यात्रा तय कर वह अपने
घर से तीन सड़क दूर पार्क के सामने आ पहुँचा। नरेन को भूख और प्यास सताने लगीं।
“कुछ खा-पीकर आगे बढ़ूँगा।" सोच कर वह पास ही बेंच पर सुस्ताने के लिए बैठ गया।
थैला खोला, पावरोटी निकाल कर पहला कौर लेने ही वाला
था कि उसकी नज़र सामने की बेंच पर बैठी ग़रीब वृद्धा पर चली गयी। दोनों एक-दूसरे
की तरफ़ देख कर अनायास मुस्कुरा उठे। नरेन अपना सामान उठा उसी के पास जाकर बैठ गया,
उसे पावरोटी दी। स्त्री ने कृतज्ञता भरी आँखों से ले ली और ऐसी
सुन्दर मुस्कान बिखेरी कि नरेन मुग्ध हो गया। दोनों चुपचाप खाते रहे। पावरोटी के
बाद सूखा मेवा, फल इत्यादि बारी-बारी से निकले और बालक और
वृद्धा दोनों आत्म-सन्तोष से भरे हुए धीमे-धीमे खाते रहे। दोनों के बीच बातचीत
नहीं के बराबर हुई, केवल मुस्कानों के दौर ही चलते रहे।
धीरे-धीरे सारा खाना खत्म हो गया। भरे पेट का सन्तोष दोनों के चेहरों पर खिल उठा।
दोपहर का सूरज चढ़ रहा था। नरेन को अचानक महसूस हुआ कि माँ को न देखे काफ़ी समय
गुज़र गया है, उसे माँ की याद सताने लगी। वह उठा, दोनों ने अभिवादन किया और नरेन घर की ओर बढ़ चला। चार क़दम चलने के बाद पलट
कर उसने वृद्धा को देखा, और उसके चेहरे पर छायी अपूर्व
मुस्कान से नरेन गदगद हो उठा, दौड़ कर वृद्धा से जा लिपटा और
दोनों चुपचाप कुछ क्षणों तक उसी तरह आलिंगनबद्ध रहे। न नरेन को कुछ कहने की ज़रूरत
जान पड़ी, न वृद्धा को, बस दोनों की
आँखों की चमक ही आपस में बोली रही थीं।
खुशी से झूमता नरेन घर पहुँचा। माँ ने
पूछा,
“वाह बेटे कोलम्बस, कुछ हाथ लग गया क्या?...।" बच्चे ने माँ को बोलने नहीं दिया बीच में ही उसकी बात काटते हुए
बोल पड़ा, “अरे सुनो तो माँ, मुझे भगवान् मिल गये। अभी-अभी मैं उन्हीं के साथ ही नाश्ता करके आ रहा
हूँ। वे एक बूढ़ी, ग़रीब स्त्री बन कर मुझसे मिलने, पार्क में आकर बैठ गये थे। तुम्हीं तो कहा करती हो न कि वे कोई भी रूप ले
सकते हैं।" नरेन बोलता गया, “अब पूछोगी, कैसे पहचाना मैंने उन्हें? माँ, पहचाना उनकी मुस्कान से, हम आपस में कुछ बोले तो नहीं
लेकिन वे बार-बार मुझे देख मुस्कुरा रही थीं, जब-जब
मुस्कुरातीं, चारों तरफ़ एक रौशनी फैलती जाती...। माँ,
भगवान् से ही मिला न मैं?" बच्चे ने माँ
से अपनी बात की पुष्टि करवानी चाही। माँ ने उसे अपने सीने से लगा कर कहा, “बिलकुल बेटा, उन्हीं से मिल कर, उन्हीं के साथ नाश्ता करके आये हो तुम।" फिर धीरे से उसके कान में
फुसफुसाया- "बेटे, अब राज़ की यह बात गाँठ बाँध लो कि
भगवान् अपनी इस दुनिया से इतना प्यार करते हैं कि सचमुच वे यहीं बस गये हैं और
उन्हें देखने और अनुभव करने के लिए बस हमें अपनी इन आँखों को सजग रखना और अपने
हृदय को पूरी तरह से खुला रखना होता है।"
उधर
वह वृद्धा जब अपने घर पहुँची तो उसका बेटा उसे देख ठगा सा खड़ा रह गया- "माँ,
क्या बात है, हमेशा परेशानी और दुःख से लटका
तुम्हारा चेहरा आज अपूर्व कान्ति और शान्ति से दमक कैसे रहा है? कितनी सुन्दर लग रही हो आज तुम।"
वृद्धा अपने पुत्र का हाथ थाम ख़ुशी से
चहक उठी, "पता है बेटे, आज सचमुच मैं भगवान् के साथ
नाश्ता करके आ रही हूँ। जीवन में ऐसी ख़ुशी मुझे पहली बार मिली।" माँ ने अपनी
बात जारी रखी, “पार्क की बेंच पर मेरे साथ आकर बैठ गया था वह।
हाँ, मैंने जितना सोचा था इससे कहीं ज़्यादा छोटा निकला
ईश्वर। कितनी सरलता से बच्चे के रूप में आया, मेरे पास बैठ
कर, नाश्ता कर चला गया!"
जब आप भगवान से मिलने जाते हैं तब आपके आँखों
के सामने केवल भगवान होते हैं, मंदिर नहीं। आँखें केवल
उन्हें ही ढूंढती है, उनके अलावा और कुछ नहीं। और समाने आते
ही उसे तुरंत पहचान लेते हैं।
-वन्दना (अग्निशिखा)
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