शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

चमत्कारों के स्वप्न


 

ईश्वर द्वारा प्रदत्त यह मानव शरीर, मानव निर्मित सब उपकरणों से कहीं ज्यादा उपयोगी और त्रुटि रहित है। हजारों वर्ष पूर्व जब से यह उपकरण बना है तब से  इसमें किसी भी परिवर्तन की  आवश्यकता नहीं पड़ी और न ही जरूरत महसूस हुई। आज, जब ज़्यादातर शिक्षण संस्थाएं बच्चों और युवाओं को रोबोट बनाने में जुटी हैं कुछ गिने-चुने शिक्षण संस्थान बच्चों को मानव बनाने का प्रयास कर रही हैं।

          ऐसे ही एक विद्यालय की दीवारों पर सात्विक विचारों की बातें, महापुरुषों की उक्तियाँ, ग्रन्थों से चुनी हुई पंक्तियाँ लगी हुई थीं। ऐसी ही एक पंक्ति थी – I spread love to those around me and it returns in abundance (मैंने अपने चारों तरफ प्यार बांटा और बदले में मुझे  प्रचुरता में प्यार मिला)। किसी छात्र ने इन पंक्तियों के नीचे गाली देते हुए एक अभद्र टिप्पणी लिख दी। शिक्षकों में उस छात्र के प्रति रोष था और वे उसे सजा दिलवाना चाहते थे। 3-4 शिक्षक-शिक्षकाएं प्रधानाचार्य के पास पहुंची।  प्रधानाचार्य ने धैर्य पूर्वक उनकी बात सुनी और फिर कहा कि हाँ, उस छात्र का पता लगाना आवश्यक है, लेकिन अगर पता लग गया तब करेंगे क्या?

          अध्यापकगण सुझाव देने तैयार बैठे थे – उसे कठोर सजा देनी होगी, उसके माता-पिता को बुलाकर उन्हें बताना होगा, वह तो संक्रामक है उसे विद्यालय से निकाल देना ही उचित होगा। सब सुनने के बाद प्रधानाचार्य बोलीं, अस्पताल में तो रोगी को ही भर्ती किया जाता है। उसे कैसी भी बीमारी हो डॉक्टर का कर्तव्य तो उसका उपचार करना ही है। क्या उसके लिए यह उचित होगा कि वह उसका इलाज करने से इंकार कर दे। हमारा विद्यालय भी तो एक प्रकार का अस्पताल ही है जहां हर प्रकार के बालक-बालिकाएँ आते हैं। हमारा कर्तव्य तो उन्हें समझ कर स्वस्थ करना है या निकाल देना? हमारे लिए उचित यही होगा कि हम उस बालक के रोग  को समझें और उसका सही उपचार  करें। सजा उसके रोग को और गंभीर कर देगी। इसके उलट, हमें तो रोग को जड़ समेत उखाड़ कर फेंकना है।

          याद कीजिये जब हम बच्चे थे, युवा थे एक ऐसी दुनिया के सपने देखते थे जहां केवल प्रेम था, सद्भावना थी, सत्य था, ईमानदारी थी। ऐसी ही दुनिया के सपने देखते थे। (सच तो यह है कि हम आज भी यही देखते हैं)। लेकिन हमें बताया गया कि यह कोरी कल्पना है, ऐसा मुमकिन नहीं। हमारे चमत्कारी पंखों को कुतर दिया गया और उसके बदले व्यावहारिक और यथार्थवाद के पंख लगा दीये गये, और हम चमत्कार करने से चूक गए।

          जब व्यक्ति युवा होता है तो चमत्कारों के ही सपने देखता है, वह चाहता है कि सब दुष्टता और दुर्जनता मिट जाये, प्रत्येक वस्तु सदा प्रकाशपूर्ण, सुन्दर और आनंदमय बनी रहे, वह उन कहानियों को पसंद करता है जो सुखान्त होती हैं। यही वह चीज है जिस पर उसे निर्भर करना चाहिये। जब शरीर दुःख-दर्द महसूस करता हो तथा अक्षमता एवं अशक्यता महसूस करता हो तो उसे ऐसी शक्ति के सपने देने हैं जिसके सामर्थ्य की कोई सीमा नहीं हो, ऐसे सौंदर्य के जिसमें कोई कुरूपता नहीं हो। बालक ऐसे-ऐसे सपने लेता है कि वह हवा में उड़ सकता है, जहां जरूरत हो वहां उपस्थित हो सकता है, बीमारों को अच्छा कर सकता है; सचमुच ही बचपन में व्यक्ति इसी प्रकार के सब सपने लेता है...। लेकिन सामान्यतः हम, माता-पिता और शिक्षक, इन सब पर पानी फेर देते हैं, यह कहकर कि "ओह ! यह, यह तो सपना है, यह वास्तविकता नहीं है।" जब कि होना ठीक इससे उलटा चाहिये। बच्चों को बताना चाहिये कि "हां, यही वह चीज है जिसे सिद्ध करने का तुम्हें प्रयत्न करना चाहिये और यह केवल संभव ही नहीं, बल्कि सुनिश्चित भी है, बशर्ते कि तुम अपने अंदर उस वस्तु के संपर्क में आ जाओ जिसमें इसे करने का सामर्थ्य है। इसी को तुम्हारे जीवन का पथ प्रदर्शन करना चाहिये, उसमें व्यवस्था लानी चाहिये और उस सच्ची वास्तविकता की ओर तुम्हें विकसित करना चाहिये जिसे दुनिया भ्रम समझती है।" तुम्हें इस भ्रम को वास्तविक बनाना है।

          ऐसा ही होना चाहिये, बजाय इसके कि बच्चों को साधारण मामूली बच्चे बना डाला जाये, जिनकी समझ सादी और ग्राम्य होती है, जिसमें ऐसी सत्यानासी आदत जमकर बैठ जाती है, जहां कहीं कुछ अच्छा शुरू हुआ नहीं कि झट यह विचार ऊपर उठ आता है कि "ओह ! ऐसा ज्यादा दिन नहीं चलेगा," जब कोई व्यक्ति मधुर और शिष्ट बर्ताव करता है तो यह छाप कि "ओह ! वह बदल जायेगा !" जब तुम किसी चीज को संपन्न करने में समर्थ हो जाते हो तो यह भावना, "ओह ! कल मैं इसे इतनी अच्छी तरह नहीं कर सकूंगा।" यह चीज तुम्हारे अंदर सब कुछ को नष्ट कर देनेवाले तेजाब की तरह काम करती है और यह भविष्य की संभावनाओं से आशा को, निश्चयता को और आत्मविश्वास को हर लेती है।


          बालक जब उत्साह से भरा हो तो उस पर कभी पानी न फेरें। उससे कभी यह न कहें, "देखो, जीवन इस प्रकार का नहीं है।" बल्कि हमें उसको उत्साहित करना चाहिये, उससे कहना चाहिये, "हां, अभी तो चीजें बेशक उस प्रकार की नहीं हैं, वे कुरूप प्रतीत होती हैं, परंतु इनके पीछे एक सौंदर्य है जो अपने-आपको प्रकट करने का प्रयत्न कर रहा है। उसी के लिये प्रेम पैदा करो, उसी को आकर्षित करो। उसी को अपने सपनों और महत्त्वाकांक्षाओं का विषय बनाओ।

           हम तो चमत्कार नहीं कर सके, बच्चों को तो इस लायक बनाएँ।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

चैनल को  जरूर से

लाइक, सबस्क्राइब और शेयर

करें।


यू ट्यूब पर सुनें :

 https://youtu.be/RPLNe9AwGJA

 पुराने लोकेशन  का  लिंक : 

https://maheshlodha.blogspot.com


2 टिप्‍पणियां:

बंगाल की संस्कृति (एक चिंतन)

  हम , अपने जीवन में अनेक प्रकार के आयोजनों यथा पारिवारिक , सामाजिक , साहित्यिक , धार्मिक , व्यापारिक , राजनीतिक आदि में शरीक होते हैं।...