शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

बंगाल की संस्कृति (एक चिंतन)

 


हम, अपने जीवन में अनेक प्रकार के आयोजनों यथा पारिवारिक, सामाजिक, साहित्यिक,धार्मिक, व्यापारिक, राजनीतिक आदि में शरीक होते हैं। आयोजन का स्वरूप और अतिथि एवं मेहमान भी आयोजन के अनुरूप ही होते हैं। प्रायः हमारे विशिष्ट अतिथि भी आयोजन के अनुरूप उसी वर्ग से आते रहे हैं। लेकिन अब समय के साथ हमने इन आयोजनों को भी अपनी प्रतिष्ठा और प्रभाव के प्रदर्शन का हथियार बना लिया है। साहित्यिक या सामाजिक समारोह हो या धार्मिक अनुष्ठान, साहित्यकार और आध्यात्मिक संत को प्राथमिकता नहीं मिलती है। प्राथमिकता मिलती है प्रभावशाली व्यक्तियों को, राजनीतिक और सरकारी। इन बड़े लोगों  के आने पर चल रहा कार्यक्रम अस्त-व्यस्त हो जाता है। जब तक वे आ नहीं जायें कार्यक्रम प्रारम्भ नहीं करते भले ही अनेक विलंब हो जाये। क्या यह उपस्थित समुदाय का अपमान नहीं है?  दुख की बात यह है कि वे जो इस परंपरा का मंच से विरोध करते हैं वे खुद इसका निर्वाह भी करते हैं। अगर आप इसके हिमायती हैं तब भी कोई हर्ज नहीं लेकिन कम-से-कम कथनी और करनी में विरोधाभास तो न रखें।

बंग-भूमि में एक अद्भुत नजारा देखने को मिला और बंगाल की इस संस्कृति के समक्ष नत मस्तक होने मजबूर होना पड़ा। अवसर था विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर की 150वीं जयंती समारोह का। बंगाल के मुख्य मंत्री थे बुद्धदेव भट्टाचार्य जिनका देहावसान अभी 8 अगस्त 2024 को हुआ। कोलकाता के परिचित नन्दन परिसर में एक साहित्यिक समारोह का आयोजन था। कोलकाता का समुदाय परिसर में इस दृश्य का साक्षी बनने के लिए बड़ी संख्या में उमड़ पड़ा था। इसीलिए सभा-मंच खुले में बनाया गया था जिसमें दोनों तरफ से आवाजाही हो सके और अधिक-से-अधिक लोग आयोजन के साक्षी बन सकें। सभास्थल में बैठने की सभी जगह भर चुकी थीं और अब भी एक रेला जैसा चला आ रहा था। अपने किसी कवि को याद करने का यह दृश्य अचंभित करने वाला था।  वरना अब तक यही लगता रहा है जैसे सामान्य पाठक और साक्षर समाज को इस प्रकार के आयोजनों से कोई लेना-देना ही न हो। लोगों को विशेष निमंत्रण देकर बुलाना पड़ता है और तब भी गुने-चुने लोग ही पहुँचते हैं, परिसर खाली-खाली ही रहता है।

          आयोजन समिति के अध्यक्ष बांग्ला के वरिष्ठ कवि निरेंद्रनाथ चक्रवर्ती आ चुके थे। मंच पर एक तरफ विश्वकवि का चित्र था। चूंकि आयोजन समिति सरकारी थी, इस बंगाल की परंपरा से अपरिचित लोग यह मान रहे थे कि बगैर मुख्यमंत्री या संस्कृति मंत्री के तो शुरूआत होगी नहीं। लेकिन उन्होंने देखा कि ठीक समय पर  उद्घोषिका मंच पर आयी, दो-चार वाक्यों की भूमिका के साथ एक गायक को आमंत्रित किया जिसे रवींद्र संगीत से सभा की शुरूआत करनी थी। इधर बिना किसी को बाधा पहुंचाये, बिना शोर-गुल के सभा में एक शांत आवाजाही बनी हुई थी और श्रोता कार्यक्रम का रस पान कर रहे थे।

          इसी बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, अपने दो-चार सहायकों के साथ आये और बिना किसी अफरा तफरी के मंच के नजदीक लगी कुर्सियों पर बैठ गये। आज के माहौल में साधारणतया, साहित्यिक कार्यक्रम होने के बावजूद ऐसे कार्यक्रमों में उपस्थित सरकारी या राजनीतिक नेता ही पुरस्कारों का वितरण करते हैं, और यहाँ तो स्वयं मुख्यमंत्री उपस्थित थे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। समिति के अध्यक्ष निरेन दा और फिर एकाध अन्य बड़े लेखकों के हाथों गम्भीर परिचय देते हुए लेखकों और रवींद्र साहित्य के अनुवादकों को पुरस्कृत किया। पुरस्कारों का सिलसिला समाप्त होने के बाद भी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य अपने कुछ विचार प्रकट करने के लिए भी आमंत्रित नहीं किये गये।  

          उ‌द्घोषिका माइक पर आई और सभा के अध्यक्ष बांग्ला के बुजुर्ग कवि निरेन दा से अनुरोध किया कि वे अपना अध्यक्षीय वक्तव्य प्रस्तुत करें। उन्होंने मुख्यमंत्री का नाम तक नहीं लिया।  उपस्थित लोक समूह, पुरस्कृत लेखकों और मंच पर एकाध वरिष्ठ लेखक का उल्लेख करते हुए वे सीधे अपनी बात पर आ गये। उनके वक्तव्य के समाप्त होते ही नीचे कुर्सी पर बैठे मुख्यमंत्री चुपचाप उठे और अपने सहयोगियों, अंगरक्षकों के साथ पीछे से बगैर किसी शोर-शराबे के निकल गये। कुछेक अगल-बगल के लोगों ने देखा, पर अधिकतर ने तो महसूस तक नहीं किया कि मुख्य मंत्री भी सभा में उपस्थित थे।

          कोई मुख्यमंत्री सभा में हो और वक्ता या आयोजक उसको सम्बोधित तक न करें, उन्हें पूरी तरह नज़र अंदाज़ कर दें, शायद यही बंगाल है। 'संस्कृति-संस्कृति' करने से अधिक उसका विश्वास सु-संस्कृत हो जाने में है। लेकिन यह तभी सम्भव है जब हम समझने में सक्षम हों कि संस्कृति है क्या चीज़!

संस्कृति कोई ऐसी समझ नहीं है जिसे आप चलते-फिरते कहीं से भी उठा लें।

संस्कृति ऐसी ही कोई समझ है जिसे आप चलते फिरते कहीं से भी उठा लेते हैं।

         


          अगर आप चौकन्ने हैं, सजग हैं तब आपको संस्कृति की झलक हर जगह मिलती, नहीं तो कहीं भी नज़र नहीं आती।  छोटी-छोटी घटनाओं के बीच से चमकती संस्कृति आपका ध्यान बरबस आकर्षित कर लेती है और आप उसके कायल हो जाते हैं। बंगाल और बंगालियों को यूं ही सु-संस्कृत नहीं कहा जाता है। वहाँ बहुत कुछ ऐसा है जो कम ही जगहों पर देखने मिलता है।

                   यहाँ की संस्कृति पर, पिछले 10-15 वर्षों से  बाहरी संस्कृति का लगातार अभूतपूर्व आक्रमण हो रहा है। यहाँ की संस्कृति लुप्त हो रही है। ऐसा नहीं है कि बंगाल की संस्कृति या यहाँ के लोग बदल गये हैं, बस लापरवाह और डरपोक हो गए हैं। राज्य के बाशिंदे यह समझ रहे हैं लेकिन इस घटना क्रम से उदासीन हैं। वे यह समझने की भूल कर रहे हैं कि  यह उनका नहीं सरकार का उत्तरदायित्व है। इतिहास गवाह है कि इसका उत्तरदायित्व वहाँ की प्रजा का है। ऐसे आक्रमण को रोकने के लिए बलिदान की आवश्यकता है लेकिन उनमें साहस की कमी है और हर प्रकार का अत्याचार सहने का अभ्यास हो गया है। याद रखो अत्याचार करने वाले से बड़ा अत्याचारी अत्याचार सहने वाला है 

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शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

चमत्कारों के स्वप्न


 

ईश्वर द्वारा प्रदत्त यह मानव शरीर, मानव निर्मित सब उपकरणों से कहीं ज्यादा उपयोगी और त्रुटि रहित है। हजारों वर्ष पूर्व जब से यह उपकरण बना है तब से  इसमें किसी भी परिवर्तन की  आवश्यकता नहीं पड़ी और न ही जरूरत महसूस हुई। आज, जब ज़्यादातर शिक्षण संस्थाएं बच्चों और युवाओं को रोबोट बनाने में जुटी हैं कुछ गिने-चुने शिक्षण संस्थान बच्चों को मानव बनाने का प्रयास कर रही हैं।

          ऐसे ही एक विद्यालय की दीवारों पर सात्विक विचारों की बातें, महापुरुषों की उक्तियाँ, ग्रन्थों से चुनी हुई पंक्तियाँ लगी हुई थीं। ऐसी ही एक पंक्ति थी – I spread love to those around me and it returns in abundance (मैंने अपने चारों तरफ प्यार बांटा और बदले में मुझे  प्रचुरता में प्यार मिला)। किसी छात्र ने इन पंक्तियों के नीचे गाली देते हुए एक अभद्र टिप्पणी लिख दी। शिक्षकों में उस छात्र के प्रति रोष था और वे उसे सजा दिलवाना चाहते थे। 3-4 शिक्षक-शिक्षकाएं प्रधानाचार्य के पास पहुंची।  प्रधानाचार्य ने धैर्य पूर्वक उनकी बात सुनी और फिर कहा कि हाँ, उस छात्र का पता लगाना आवश्यक है, लेकिन अगर पता लग गया तब करेंगे क्या?

          अध्यापकगण सुझाव देने तैयार बैठे थे – उसे कठोर सजा देनी होगी, उसके माता-पिता को बुलाकर उन्हें बताना होगा, वह तो संक्रामक है उसे विद्यालय से निकाल देना ही उचित होगा। सब सुनने के बाद प्रधानाचार्य बोलीं, अस्पताल में तो रोगी को ही भर्ती किया जाता है। उसे कैसी भी बीमारी हो डॉक्टर का कर्तव्य तो उसका उपचार करना ही है। क्या उसके लिए यह उचित होगा कि वह उसका इलाज करने से इंकार कर दे। हमारा विद्यालय भी तो एक प्रकार का अस्पताल ही है जहां हर प्रकार के बालक-बालिकाएँ आते हैं। हमारा कर्तव्य तो उन्हें समझ कर स्वस्थ करना है या निकाल देना? हमारे लिए उचित यही होगा कि हम उस बालक के रोग  को समझें और उसका सही उपचार  करें। सजा उसके रोग को और गंभीर कर देगी। इसके उलट, हमें तो रोग को जड़ समेत उखाड़ कर फेंकना है।

          याद कीजिये जब हम बच्चे थे, युवा थे एक ऐसी दुनिया के सपने देखते थे जहां केवल प्रेम था, सद्भावना थी, सत्य था, ईमानदारी थी। ऐसी ही दुनिया के सपने देखते थे। (सच तो यह है कि हम आज भी यही देखते हैं)। लेकिन हमें बताया गया कि यह कोरी कल्पना है, ऐसा मुमकिन नहीं। हमारे चमत्कारी पंखों को कुतर दिया गया और उसके बदले व्यावहारिक और यथार्थवाद के पंख लगा दीये गये, और हम चमत्कार करने से चूक गए।

          जब व्यक्ति युवा होता है तो चमत्कारों के ही सपने देखता है, वह चाहता है कि सब दुष्टता और दुर्जनता मिट जाये, प्रत्येक वस्तु सदा प्रकाशपूर्ण, सुन्दर और आनंदमय बनी रहे, वह उन कहानियों को पसंद करता है जो सुखान्त होती हैं। यही वह चीज है जिस पर उसे निर्भर करना चाहिये। जब शरीर दुःख-दर्द महसूस करता हो तथा अक्षमता एवं अशक्यता महसूस करता हो तो उसे ऐसी शक्ति के सपने देने हैं जिसके सामर्थ्य की कोई सीमा नहीं हो, ऐसे सौंदर्य के जिसमें कोई कुरूपता नहीं हो। बालक ऐसे-ऐसे सपने लेता है कि वह हवा में उड़ सकता है, जहां जरूरत हो वहां उपस्थित हो सकता है, बीमारों को अच्छा कर सकता है; सचमुच ही बचपन में व्यक्ति इसी प्रकार के सब सपने लेता है...। लेकिन सामान्यतः हम, माता-पिता और शिक्षक, इन सब पर पानी फेर देते हैं, यह कहकर कि "ओह ! यह, यह तो सपना है, यह वास्तविकता नहीं है।" जब कि होना ठीक इससे उलटा चाहिये। बच्चों को बताना चाहिये कि "हां, यही वह चीज है जिसे सिद्ध करने का तुम्हें प्रयत्न करना चाहिये और यह केवल संभव ही नहीं, बल्कि सुनिश्चित भी है, बशर्ते कि तुम अपने अंदर उस वस्तु के संपर्क में आ जाओ जिसमें इसे करने का सामर्थ्य है। इसी को तुम्हारे जीवन का पथ प्रदर्शन करना चाहिये, उसमें व्यवस्था लानी चाहिये और उस सच्ची वास्तविकता की ओर तुम्हें विकसित करना चाहिये जिसे दुनिया भ्रम समझती है।" तुम्हें इस भ्रम को वास्तविक बनाना है।

          ऐसा ही होना चाहिये, बजाय इसके कि बच्चों को साधारण मामूली बच्चे बना डाला जाये, जिनकी समझ सादी और ग्राम्य होती है, जिसमें ऐसी सत्यानासी आदत जमकर बैठ जाती है, जहां कहीं कुछ अच्छा शुरू हुआ नहीं कि झट यह विचार ऊपर उठ आता है कि "ओह ! ऐसा ज्यादा दिन नहीं चलेगा," जब कोई व्यक्ति मधुर और शिष्ट बर्ताव करता है तो यह छाप कि "ओह ! वह बदल जायेगा !" जब तुम किसी चीज को संपन्न करने में समर्थ हो जाते हो तो यह भावना, "ओह ! कल मैं इसे इतनी अच्छी तरह नहीं कर सकूंगा।" यह चीज तुम्हारे अंदर सब कुछ को नष्ट कर देनेवाले तेजाब की तरह काम करती है और यह भविष्य की संभावनाओं से आशा को, निश्चयता को और आत्मविश्वास को हर लेती है।


          बालक जब उत्साह से भरा हो तो उस पर कभी पानी न फेरें। उससे कभी यह न कहें, "देखो, जीवन इस प्रकार का नहीं है।" बल्कि हमें उसको उत्साहित करना चाहिये, उससे कहना चाहिये, "हां, अभी तो चीजें बेशक उस प्रकार की नहीं हैं, वे कुरूप प्रतीत होती हैं, परंतु इनके पीछे एक सौंदर्य है जो अपने-आपको प्रकट करने का प्रयत्न कर रहा है। उसी के लिये प्रेम पैदा करो, उसी को आकर्षित करो। उसी को अपने सपनों और महत्त्वाकांक्षाओं का विषय बनाओ।

           हम तो चमत्कार नहीं कर सके, बच्चों को तो इस लायक बनाएँ।

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शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

सूतांजली सितंबर 2024

 



स्वयं को भेड़ बना लोगे

तो भेड़िये आकर तुम्हें खा जायेंगे।

-        जर्मन

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बंगाल की संस्कृति (एक चिंतन)

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