मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
‘यह दोहा तो अपने सुना ही होगा!’
‘हाँ आ आ...... सुना है।’
सुना तो है लेकिन न तो हम इसे मानते हैं न इस पर विश्वास
करते हैं। क्यों ऐसा ही है न!
क्योंकि हम जीतना ही नहीं चाहते। जीतने के लिये बड़ी मेहनत करनी
पड़ती है, एक बार नहीं बार-बार। क्योंकि एक बार जीत
गये तो बार-बार जीतना पड़ता है। यानी बार-बार मेहनत, अरे कौन
करेगा, पड़े रहो ना।
जीतने का स्वाद तो जीतने के बाद ही पता चलता है।
हम मेहनत ही तो नहीं करने चाहते। क्या मैं गलत बोल रहा हूँ? मुझे मत बताइये, अपने आप को बताइये। जब-जब
आपने कुछ करने मन बनाया, आपने करने का ठाना आपने कर दिखाया लेकिन
जब असमंजस में रहे, संदेह करते रहे आप नहीं कर सके।
मामूली हालातों में,
छोटी-मोटी घटनाओं से अकसर असफल लोग विचलित हो उठते हैं और परिस्थितियों और दूसरों
के ग़लत व्यवहार का, दूसरों की गलत सलाह का रोना लेकर हिम्मत हार
जाते हैं और निराशा की गोद में बैठ जाते हैं, उनके सिर
असफलता का ठीकरा फोड़, बड़े खुश होते हैं। जबकि सफल लोगों को
देख कर लगता है कि जीवन कैसे मुसकुराता है। ऐसे लोगों की कमी नहीं जिन्होंने अपनी
जिजीविषा से पासा पलट दिया।
मैं अभी अपने बेटे-बहू के पास गया हुआ था। बेटा-बहू दोनों ही ऑफिस चले
जाते थे। मैं अकसर घर के सामने बगीचे में बैठ धूप सेंकता था। एक दिन सुबह देखा, बगल घर का दरवाजा खुला और एक वृद्ध महिला बैटरी
से चलने वाली व्हीलचेयर पर बैठकर बाहर निकली। एक युवती ने दरवाजे से हाथ हिला कर
उसे विदा किया। वह बस स्टॉप तक गई, बस के दरवाजे का
प्लेटफॉर्म धीरे-धीरे नीचे आया और व्हीलचेयर पर बैठी महिला स्वयं ही अपने बाएं हाथ
से चेयर का बटन दबाकर बस के भीतर चली गई। मैंने सोचा वृद्धा शायद अस्पताल जा रही
होगी। लेकिन मन नहीं माना। सारा दिन इसी उधेड़-बुन निकल गया।
उसी दिन शाम को बस फिर रुकी, बस का दरवाजा खुला,
प्लेटफॉर्म नीचे आया और व्हीलचेयर पर बैठी वही वृद्ध महिला
बस से निकलकर चली आई। मैंने देखा कि उनका हाथ पूरा नहीं उठ रहा है और अंगुलियां भी
टेढ़ी हैं। क्या उनका दायां हाथ और पैर पैरालाइज्ड है? पर वह कहां गई थीं यह अभी भी रहस्य था।
वहां रहते हुए पता चला कि यह
विकलांग वृद्ध महिला अपनी बेटी और दामाद के साथ रहती हैं। उनकी बेटी ने बताया कि
मां का पूरा दाहिना अंग पैरालाइज्ड है। पर वह किसी पर बोझ बनना नहीं चाहतीं। एक
स्टोर में एकाउंटेंट का काम करती हैं। उनके उत्साह ने मेरे दिल को छू लिया। मुझे
लगा कि उम्र के इस पड़ाव में विकलांग होते हुए भी वह कितनी सक्रिय और ख़ुशमिजाज
हैं।
तब इस विकालंग वृद्ध महिला की
तुलना में कितने लोग कितने ‘असहाय’ हैं जो अपने असहाय होने का रोना रोते रहते
हैं और दूसरों पर बोझ बने रहते हैं?
अभी हाल के समय को देखें तो अंबानी, नारायण मूर्ति, इमामी के राधेश्याम अग्रवाल और गोयनका की जोड़ी के किस्से सबों को पता है। छोटी सी पूंजी और बिना किसी की सिफ़ारिशों के कितना बड़ा साम्राज्य बनाया इन्होंने? क्या थे और क्या बने इसकी कहानी बताने की जरूरत नहीं है।
आम लोगों के भी
अनेक किस्से हैं। ‘थायरोकेयर’
पाइथोलोजी लैब के बारे में जानते हैं? 1982 तक जो बंदा, डॉ वेलु मणि, मुंबई के स्टेशन पर सोकर रातें गुजरा था, ने ‘थायरोकेयर’ शुरू की और आज यह 200 वर्ग फीट से प्रारम्भ हुई लैब 2,00,000 वर्ग फीट की लैब है और लगभग 500 करोड़ का टर्नओवर करती है।
अपने जीवन में 'चरैवेति चरैवेति' के कथन को मूर्त रूप दीजिये। आप में भी अनेक ऊर्जा है, आपको भी चाहने वाले लोग हैं, आप में भी
सामर्थ्य है। उठिये, खड़े होइये और रोना बंद कर अपने आप को
सिद्ध कीजिये। भले ही उतने बड़े न बनें जितने ये लोग बने, न
सही, अभी जितने और जैसे हैं उसकी तुलना में तो कोई गुना बड़े
हो सकते हैं। है की नहीं?
जब तक शरीर में शक्ति है अपने को काम में लगाये रखो... चलते रहो, चलते रहो।
नजर उठा कर देखिये शायद ऐसे
लोग आपको भी अपने आस-पास नजर आ जाएंगे। ये हमारे जैसे ही लोग थे, जिन्होंने वही चीजें देखीं, जिन्हें हम देख रहे थे;
लेकिन उनका नजरिया एकदम नया था। ऐसे लोग, जिन्होंने मुश्किलों का सामना किया, असफलताओं के बावजूद आगे बढ़ते रहे, यथास्थिति को चुनौती दी और जब सारे संकेत कह रहे थे कि 'अब छोड़ दो,
नहीं होगा!'
तब भी उनके दिमाग में एक छोटी सी आवाज गूँज रही थी, 'शायद इसे किया जा सकता है।' और जीवन मुसकुरा
उठा।
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