शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

जीवन मुसकुराता है


                                             

                                            मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

यह दोहा तो अपने सुना ही होगा!

हाँ आ आ...... सुना है।

सुना तो है लेकिन न तो हम इसे मानते हैं न इस पर विश्वास करते हैं। क्यों ऐसा ही है न! 

क्योंकि हम जीतना ही नहीं चाहते। जीतने के लिये बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, एक बार नहीं बार-बार। क्योंकि एक बार जीत गये तो बार-बार जीतना पड़ता है। यानी बार-बार मेहनत, अरे कौन करेगा, पड़े रहो ना।

जीतने का स्वाद तो जीतने के बाद ही पता चलता है।  

हम मेहनत ही तो नहीं करने चाहते। क्या मैं गलत बोल रहा हूँ? मुझे मत बताइये, अपने आप को बताइये। जब-जब आपने कुछ करने मन बनाया, आपने करने का ठाना आपने कर दिखाया लेकिन जब असमंजस में रहे, संदेह करते रहे आप नहीं कर सके।

मामूली हालातों में, छोटी-मोटी घटनाओं से अकसर असफल लोग विचलित हो उठते हैं और परिस्थितियों और दूसरों के ग़लत व्यवहार का,  दूसरों की गलत सलाह का रोना लेकर हिम्मत हार जाते हैं और निराशा की गोद में बैठ जाते हैं, उनके सिर असफलता का ठीकरा फोड़, बड़े खुश होते हैं।  जबकि सफल लोगों को देख कर लगता है कि जीवन कैसे मुसकुराता है। ऐसे लोगों की कमी नहीं जिन्होंने अपनी जिजीविषा से पासा पलट दिया।

          मैं अभी अपने बेटे-बहू  के पास गया हुआ था। बेटा-बहू दोनों ही ऑफिस चले जाते थे। मैं अकसर घर के सामने बगीचे में बैठ धूप सेंकता था। एक दिन सुबह देखा, बगल घर का दरवाजा खुला और एक वृद्ध महिला बैटरी से चलने वाली व्हीलचेयर पर बैठकर बाहर निकली। एक युवती ने दरवाजे से हाथ हिला कर उसे विदा किया। वह बस स्टॉप तक गई, बस के दरवाजे का प्लेटफॉर्म धीरे-धीरे नीचे आया और व्हीलचेयर पर बैठी महिला स्वयं ही अपने बाएं हाथ से चेयर का बटन दबाकर बस के भीतर चली गई। मैंने सोचा वृद्धा शायद अस्पताल जा रही होगी। लेकिन मन नहीं माना। सारा दिन इसी उधेड़-बुन निकल गया। 

          उसी दिन शाम को बस फिर रुकी, बस का दरवाजा खुला, प्लेटफॉर्म नीचे आया और व्हीलचेयर पर बैठी वही वृद्ध महिला बस से निकलकर चली आई। मैंने देखा कि उनका हाथ पूरा नहीं उठ रहा है और अंगुलियां भी टेढ़ी हैं। क्या उनका दायां हाथ और पैर पैरालाइज्ड है? पर वह कहां गई थीं यह अभी भी रहस्य था।


          वहां रहते हुए पता चला कि यह विकलांग वृद्ध महिला अपनी बेटी और दामाद के साथ रहती हैं। उनकी बेटी ने बताया कि मां का पूरा दाहिना अंग पैरालाइज्ड है। पर वह किसी पर बोझ बनना नहीं चाहतीं। एक स्टोर में एकाउंटेंट का काम करती हैं। उनके उत्साह ने मेरे दिल को छू लिया। मुझे लगा कि उम्र के इस पड़ाव में विकलांग होते हुए भी वह कितनी सक्रिय और ख़ुशमिजाज हैं।

          तब इस विकालंग वृद्ध महिला की तुलना में कितने लोग कितने असहाय हैं जो अपने असहाय होने का रोना रोते रहते हैं और दूसरों पर बोझ बने रहते हैं?

अभी हाल के समय को देखें तो अंबानी, नारायण मूर्ति, इमामी के राधेश्याम अग्रवाल और  गोयनका की जोड़ी के किस्से सबों को पता है।  छोटी सी पूंजी और बिना किसी की  सिफ़ारिशों के कितना बड़ा साम्राज्य बनाया इन्होंने?  क्या थे और क्या बने इसकी कहानी बताने की जरूरत नहीं है। 




आम लोगों के भी अनेक किस्से हैं। थायरोकेयर पाइथोलोजी लैब के बारे में जानते हैं? 1982 तक जो बंदा, डॉ वेलु मणि, मुंबई के स्टेशन पर सोकर रातें गुजरा था, ने  थायरोकेयर शुरू की और आज यह 200 वर्ग फीट से प्रारम्भ हुई लैब 2,00,000 वर्ग फीट की लैब है और लगभग 500 करोड़ का टर्नओवर करती है।

आईडी फ्रेश (ID Fresh) का नाम सुना है। अगर आप दक्षिण भारत के निवासी हैं तो जरूर सुना होगा। यह कंपनी मुख्यतः इडली डोसा का बैटर बनाती है। छोटा सा काम है? 480 करोड़ का धंधा करती है और इसका नेट वोर्थ है 662
करोड़ का। इसका भी प्रारम्भ हुआ था बंगलोर की एक छोटी सी राशन की दुकान से। पाँच लोगों ने प्रारम्भ किया था
, जिसमें प्रमुख थे पी.सी.मुस्तफा। इसकी अनोखी और विशेष सोच, विश्वास करेंगे? प्रारम्भ के दिनों में जब वे अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे और किसी बड़े अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे उसी समय ताज ग्रुप के होटल वालों से प्रति माह 15 लाख का ऑर्डर मिला। उस समय उनकी वार्षिक आमदनी थी 20-25 लाख। लेकिन मुस्तफा को पता चला कि होटल उनके उत्पाद को मयखाने में प्रयोग करने वाले हैं। मुस्तफा ऐसा कुछ नहीं करना चाहते थे जिससे शराब की खपत बढ़े और उसने माल देने से इंकार कर दिया। 






          अपने जीवन में 'चरैवेति चरैवेति' के कथन को मूर्त रूप दीजिये। आप में भी अनेक ऊर्जा है, आपको भी चाहने वाले लोग हैं, आप में भी सामर्थ्य है। उठिये, खड़े होइये और रोना बंद कर अपने आप को सिद्ध कीजिये। भले ही उतने बड़े न बनें जितने ये लोग बने, न सही, अभी जितने और जैसे हैं उसकी तुलना में तो कोई गुना बड़े हो सकते हैं। है की नहीं?  जब तक शरीर में शक्ति है अपने को काम में लगाये रखो... चलते रहो, चलते रहो।  

          नजर उठा कर देखिये शायद ऐसे लोग आपको भी अपने आस-पास नजर आ जाएंगे। ये हमारे जैसे ही लोग थे, जिन्होंने वही चीजें देखीं, जिन्हें हम देख रहे थे; लेकिन उनका नजरिया एकदम नया था। ऐसे लोग, जिन्होंने मुश्किलों का सामना किया, असफलताओं के बावजूद आगे बढ़ते रहे, यथास्थिति को चुनौती दी और जब सारे संकेत कह रहे थे कि 'अब छोड़ दो, नहीं होगा!' तब भी उनके दिमाग में एक छोटी सी आवाज गूँज रही थी, 'शायद इसे किया जा सकता है।' और जीवन मुसकुरा उठा।

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शुक्रवार, 12 जुलाई 2024

कोई दोस्त क्यों नहीं मिलता?


 

जिंदगी से यही गिला है मुझे, तू बहुत देर से मिला है

                          मुझे हमसफर चाहिये हुजूम नहीं, इक मुसाफिर भी काफिला है मुझे।।

 

          आज शाम की चर्चा इस मुद्दे पर अटक गई कि “सच्चा दोस्त किसे कहेंगे”? मैं ने एक प्रश्न किया, तुम्हारे कितने दोस्त हैं? एक ने तपाक से जवाब दिया - अनेक हैं, जैसे तुम हो। मैं ने  चार दोस्तों के नाम बताने को कहा। मामला गंभीर हो गया और कुछ देर सोचने के बाद,  मुश्किल से झिझकते हुए दो नाम लिये।  मुझे लगा कि ये नाम भी शर्मिंदगी से बचने के लिये लिये गये क्योंकि उसे कोई सच्चा दोस्त नजर नहीं आया।

          चर्चा आगे बढ़ी, ‘जब हम मुसीबत में हों तब सबसे पहले जिस व्यक्ति का नाम हमें याद आये, वह हमारे असली दोस्तों में है’। मजे की बात यह कि कई बार यह वह व्यक्ति होता है, जिसे हम अपना दोस्त नहीं समझ रहे होते हैं। इस सच्चे दोस्त के साथ हम न ज्यादा हंसते-बोलते है, न साथ घूमते हैं। उसके साथ हम कम समय बिताते हैं। अजीब है लेकिन हाँ, यह सच है। 

          लगता है, दुनिया अकेली हो गई है। लोग भीड़ में अकेले घूम रहे हैं और सबको सच्चे दोस्त की तलाश है। निदा फाजली ने ठीक लिखा है –

                          हर तरफ, हर जगह बेशुमार आदमी

फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी।

          संसद हो या विधान सभा, सरकारी हो या निजी संस्थान, कोर्ट हो या थाना हर कहीं लोग सिर झुकाये आते हैं, अपना-अपना काम करते हैं और चुपचाप निकल जाते हैं। वहां उनको कोई ऐसा नहीं लगता जिसके साथ हंस-बोल लें, कुछ क्षण बैठ कर गप्पें लगा लें। उनके साथ हंस-बोल-गप भी औपचारिकता भर ही है या कोई--कोई निहित स्वार्थ।

          आजकल की दोस्ती में हमें एक दूसरे पर विश्वास ही नहीं रहा। दोस्ती तो तब है, जब अतरंग-से-अतरंग बातें भी एक-दूसरे से बेहिचक साझा की जा सके। पर आजकल हर दूसरे आदमी से हमें डर लगता है कि कहीं वह हमारे नाम का गलत फायदा न उठा ले, हमारी चुगली न कर दे या हमें नुकसान न पहुंचा दे। क्या विडंबना है कि जिसे हम दोस्त कह रहे हैं, उसी से डर रहे हैं? जिसके साथ हम समय बिता रहे हैं, उससे भी खुल नहीं पा रहे! और-तो-और, कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि ‘आजकल दुश्मन ज्यादा भरोसेमंद हैं क्योंकि हमें पता है कि वे कहां तक नुकसान पहुंचा सकते हैं’। बहुत से लोगों की पीड़ा यह है कि उनके पास कोई ऐसा दोस्त नहीं है जिससे वे खुलकर मन की बातें कर सकें।  लेकिन एक समय ऐसा था जब हमारे पास कई दोस्त हुआ करते थे, तब अब ऐसा क्या हुआ कि अब हमें दोस्त नहीं मिल रहे हैं?

          असल में दोस्ती और चाटुकारिता में हम फर्क नहीं कर पाते। असली दोस्त वह है जो हमारे मुंह पर सही-को-सही और गलत-को-गलत बोलने की हिम्मत रखता है। जाने-अनजाने हम अपने बच्चों को यही सिखाते हैं, चाटुकारिता करना। सामने वाले को बुरा लगेगा, चुप रहो या मत बोलो; जबकि सीखाना यह है कि गलत को गलत कैसे बोलें? हम अपने बच्चों को शुरू से ‘वन-अपमैनशिप’ सिखाते हैं कि तुम दूसरों से एक कदम आगे रहना। जब बच्चा अपने दोस्तों के साथ कहीं कुछ खाता है तो उसके लौटते ही सबसे पहले हम पूछते हैं कि पैसे किसने खर्च किये? हम उसे दोस्तों पर खर्च करना नहीं, दूसरों के पैसे खर्च करवाना सिखाते हैं। फिर क्यों कोई हमारे बच्चे को पसंद करेगा? जब हमारा बच्चा हमारे सामने लगातार अपने दोस्त की तारीफ करता है तो यह तारीफ भी हमें चुभती है। जब हमारा बच्चा अपने किसी दोस्त का काम करने बेताब रहता है तो हम अपना मुंह बनाते हैं और उल्टा सवाल करते हैं कि वह तुम्हारे लिए क्या करता है? क्या हमच्चों को दोस्ती में भी फायदा ढूंढने के संस्कार नहीं दे रहे?

          दोस्ती निःस्वार्थ त्याग मांगती है, समय मांगती है। दोस्ती तब होती है, जब दूसरे को लगता है कि हम उसकी चिंता करते हैं। हमने कई बार देखा है कि दोस्त का जरूरी काम पड़ने पर हम कोई तकनीकी बहाना बनाकर बचते हैं और सोचते हैं कि इस बहाने को वह सच मानेगा। लेकिन यह हमारी भूल है, उधर से भी तकनीकी बहाना, हमारी भावना ही हम तक लौटकर आती है। हम सामने वाले को दोस्त भी कह रहे हैं और उससे ईर्ष्या भी कर रहे हैं कि कहीं वह हमसे आगे न निकल जाये! कितने दोस्त अब ऐसे हैं जो दोस्त को खुद से आगे निकलता देख खुश होते हैं?

          दोस्ती में हमारे संस्कारों की अहम भूमिका होती है। जिन लोगों ने अपने सगे रिश्तेदारों तक से सारे हिसाब-किताब कर लिये, वे दोस्तों को क्या छोड़ेंगे? मुझे आज तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला जिसमें किसी ने अपनी जायदाद अपने उस दोस्त के नाम की हो जिसने जिंदगी भर उसके बच्चों और भाइयों से बढ़कर भी उसका साथ दिया हो।      

          बहुत-से लोग कहते हैं कि दोस्ती तब होती है जब किसी को एक दूसरे से काम नहीं होता। लेकिन सच्चाई इससे बिल्कुल उलट है। दोस्ती तब होती है जब कोई किसी का सुख-दुख का साथी बनता है। जब हम एक-दूसरे के काम आते हैं तो धीरे-धीरे निकटता बढ़ती है, एक दूसरे पर विश्वास जमने लगता है, हम एक दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह समझ पाते हैं, एक दूसरे के ज्यादा निकट आते हैं। कई बार मैंने देखा है कि लोग किसी दूसरे से सहायता लेना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें डर लगता है कि जरूरत पड़ने पर हमें  भी उसकी सहायता करनी होगी। जिंदगी में किसी भी मोड पर सिर्फ एक अच्छा दोस्त मिल जाये  तो वह हजार के बराबर है। वह सभी हीरों में कोहिनूर है। इरफान अहमद मीर  ने लिखा है-

                

ख़फ़ा जब ज़िंदगी हो तो वो आ के थाम लेते हैं

रुला देती है जब दुनिया तो आ कर मुस्कुराते हैं

वो कैसे लोग होते हैं जिन्हें हम दोस्त कहते हैं।

          जाते-जाते एक राज की बात बताऊँ? सच्चा दोस्त चाहिये? सच्चा दोस्त खोजिये मत, सच्चा दोस्त बनिये। तब, उसे खोजिये जिसके आप सच्चे दोस्त बन सकते हैं।

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शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

सूतांजली जुलाई 2024

जहां भी ईमानदारी और सद्भावना होती है,

 दैवीय शक्ति की सहायता मौजूद रहती है।

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बंगाल की संस्कृति (एक चिंतन)

  हम , अपने जीवन में अनेक प्रकार के आयोजनों यथा पारिवारिक , सामाजिक , साहित्यिक , धार्मिक , व्यापारिक , राजनीतिक आदि में शरीक होते हैं।...