जिंदगी
से यही गिला है मुझे, तू बहुत देर से मिला है।
मुझे हमसफर चाहिये हुजूम
नहीं, इक मुसाफिर भी काफिला है मुझे।।
आज शाम की चर्चा इस मुद्दे
पर अटक गई कि “सच्चा दोस्त किसे कहेंगे”? मैं ने
एक प्रश्न किया,
तुम्हारे
कितने दोस्त हैं?
एक
ने
तपाक से जवाब दिया - अनेक हैं, जैसे तुम
हो। मैं ने चार दोस्तों के नाम बताने को कहा। मामला
गंभीर हो गया और कुछ देर सोचने के बाद, मुश्किल से झिझकते
हुए दो नाम
लिये।
मुझे लगा कि ये नाम भी
शर्मिंदगी से बचने के लिये लिये गये क्योंकि उसे कोई सच्चा
दोस्त नजर
नहीं
आया।
चर्चा आगे बढ़ी, ‘जब
हम मुसीबत में हों तब सबसे पहले जिस व्यक्ति का नाम
हमें याद आये, वह
हमारे
असली
दोस्तों में है’।
मजे की बात यह कि कई बार यह वह व्यक्ति होता
है, जिसे हम अपना दोस्त
नहीं समझ
रहे होते
हैं।
इस सच्चे दोस्त के साथ हम न ज्यादा हंसते-बोलते है, न साथ घूमते हैं। उसके साथ हम कम
समय बिताते हैं। अजीब
है लेकिन हाँ, यह
सच है।
लगता है, दुनिया अकेली हो गई है। लोग भीड़ में अकेले घूम रहे हैं
और सबको सच्चे दोस्त की तलाश है। निदा फाजली ने ठीक लिखा है –
हर तरफ,
हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी
तनहाइयों का शिकार आदमी।
संसद हो या विधान सभा,
सरकारी हो या निजी संस्थान, कोर्ट हो या
थाना हर कहीं लोग सिर
झुकाये
आते
हैं,
अपना-अपना काम करते हैं और चुपचाप निकल जाते हैं। वहां उनको कोई ऐसा नहीं लगता
जिसके साथ हंस-बोल
लें,
कुछ क्षण बैठ कर गप्पें लगा लें। उनके साथ हंस-बोल-गप भी औपचारिकता भर
ही है या कोई-न-कोई निहित
स्वार्थ।
आजकल की दोस्ती में हमें एक
दूसरे पर विश्वास
ही नहीं रहा। दोस्ती तो तब है, जब अतरंग-से-अतरंग बातें भी एक-दूसरे से बेहिचक साझा
की जा सके। पर आजकल हर दूसरे आदमी से हमें डर लगता है कि कहीं वह हमारे नाम का गलत
फायदा न उठा ले, हमारी चुगली न कर दे या हमें नुकसान न पहुंचा दे। क्या विडंबना है
कि जिसे हम दोस्त कह रहे हैं, उसी से डर रहे हैं? जिसके साथ हम समय बिता रहे हैं, उससे
भी खुल नहीं पा रहे! और-तो-और, कुछ लोग तो
यह भी कहते
हैं
कि ‘आजकल
दुश्मन ज्यादा भरोसेमंद हैं क्योंकि हमें पता है कि वे कहां तक नुकसान पहुंचा सकते
हैं’। बहुत से लोगों की पीड़ा यह है कि उनके पास कोई ऐसा दोस्त नहीं है जिससे वे खुलकर
मन की बातें
कर सकें। लेकिन एक समय ऐसा था जब हमारे
पास कई दोस्त हुआ करते थे, तब अब ऐसा
क्या हुआ कि अब हमें दोस्त नहीं मिल रहे हैं?
असल में दोस्ती और चाटुकारिता में हम फर्क
नहीं कर पाते। असली
दोस्त
वह है जो हमारे
मुंह
पर सही-को-सही और गलत-को-गलत बोलने की हिम्मत रखता है।
जाने-अनजाने हम अपने बच्चों को यही सिखाते हैं,
चाटुकारिता करना। सामने वाले को बुरा लगेगा, चुप रहो या
मत बोलो;
जबकि सीखाना यह है कि गलत को गलत कैसे बोलें? हम अपने बच्चों
को शुरू से ‘वन-अपमैनशिप’ सिखाते हैं कि तुम दूसरों
से एक कदम आगे रहना। जब बच्चा अपने दोस्तों के साथ कहीं कुछ
खाता है
तो उसके लौटते ही सबसे पहले हम पूछते हैं कि पैसे किसने खर्च किये? हम
उसे दोस्तों पर खर्च करना नहीं, दूसरों के पैसे खर्च करवाना
सिखाते हैं। फिर क्यों कोई हमारे बच्चे को पसंद
करेगा? जब हमारा
बच्चा
हमारे
सामने
लगातार अपने दोस्त की तारीफ करता है तो यह तारीफ भी हमें चुभती
है। जब हमारा
बच्चा
अपने किसी दोस्त का
काम
करने
बेताब रहता है
तो हम
अपना मुंह
बनाते हैं और उल्टा सवाल करते हैं कि वह तुम्हारे लिए क्या करता है? क्या हम बच्चों
को दोस्ती में भी फायदा ढूंढने के संस्कार नहीं दे रहे?
दोस्ती निःस्वार्थ त्याग मांगती है, समय
मांगती है। दोस्ती तब होती है, जब दूसरे को लगता है कि हम उसकी
चिंता करते हैं। हमने कई बार देखा है कि
दोस्त का जरूरी काम पड़ने पर हम कोई तकनीकी बहाना बनाकर बचते हैं और सोचते हैं कि इस
बहाने को वह सच मानेगा। लेकिन यह हमारी भूल है, उधर से भी तकनीकी
बहाना, हमारी भावना ही हम तक लौटकर आती है। हम सामने वाले को
दोस्त भी कह रहे हैं और उससे ईर्ष्या भी कर रहे हैं कि कहीं वह हमसे आगे न निकल जाये! कितने
दोस्त अब
ऐसे
हैं जो दोस्त को खुद से आगे निकलता देख खुश होते हैं?
दोस्ती में हमारे संस्कारों की अहम भूमिका
होती है। जिन लोगों ने अपने सगे रिश्तेदारों तक से सारे हिसाब-किताब कर लिये, वे
दोस्तों को क्या छोड़ेंगे? मुझे आज तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला जिसमें किसी ने अपनी
जायदाद
अपने
उस दोस्त के नाम की हो जिसने जिंदगी भर उसके बच्चों और भाइयों से बढ़कर भी उसका साथ
दिया हो।
बहुत-से लोग कहते हैं कि दोस्ती
तब होती है जब किसी को एक दूसरे से काम नहीं होता।
लेकिन
सच्चाई इससे
बिल्कुल उलट है। दोस्ती तब होती है जब कोई किसी का सुख-दुख का साथी
बनता है। जब हम एक-दूसरे के काम आते हैं तो धीरे-धीरे निकटता बढ़ती है, एक
दूसरे पर विश्वास जमने लगता है, हम एक दूसरे
को ज्यादा अच्छी तरह समझ पाते हैं, एक दूसरे के
ज्यादा निकट आते हैं। कई बार मैंने देखा है कि लोग किसी दूसरे से सहायता लेना नहीं
चाहते क्योंकि उन्हें डर लगता है कि जरूरत पड़ने पर हमें भी उसकी सहायता करनी होगी। जिंदगी
में किसी भी मोड पर सिर्फ एक अच्छा दोस्त मिल जाये तो वह हजार के बराबर है। वह सभी हीरों
में कोहिनूर है। इरफान अहमद मीर ने लिखा है-
ख़फ़ा
जब ज़िंदगी हो तो वो आ के थाम लेते हैं
रुला
देती है जब दुनिया तो आ कर मुस्कुराते हैं
वो
कैसे लोग होते हैं जिन्हें हम दोस्त कहते हैं।
जाते-जाते एक राज की बात बताऊँ? सच्चा
दोस्त चाहिये?
सच्चा दोस्त खोजिये मत, सच्चा दोस्त बनिये। तब, उसे
खोजिये जिसके आप सच्चे दोस्त बन सकते हैं।
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