परमात्मा को खोजता विभु एक
फकीर के पास पहुंचा और फकीर से निवेदन किया, “मैं परमात्मा को खोज रहा हूँ। बहुत
अँधेरे में जी रहा हूँ, क्या आप मेरा दीया जला देंगे?”
उस फकीर ने कहा, “देख भीतर के दीये को जलाने में जरा समय लेगेगा,
साँझ हो गयी है, सूरज भी ढल गया है। उधर उस दीवाल के आले में एक दिया रखा हुआ है,
आले से उस दीये को उठा ला और पहले उसे जला।”
विभु उस दिये को उठा लाया। उसने
लाख कोशिश की लेकिन दीया जले ही नहीं। उसने कहा, “ये भी अजीब-सा दीया है! ऐसा लगता है इसके तेल
में पानी मिला है, बाती पानी पी गई है, तो धुआं ही धुआं होता है। कभी-कभी थोड़ी चिनगारी भी उठती है,
मगर लौ नहीं पकड़ती।”
तब उस फकीर ने कहा,
“तब दीये से पानी को अलग कर। तेल को छाँट।
बाती पानी पी गई है, निचोड़। बाती को सुखा, फिर जला। देख क्या होता है?”
विभु अधीर हो उठा, कहा, “लेकिन इसमें तो काफी वक्त लगेगा। इस गोरख-धंधे
में तो पूरी रात बीत जायेगी।”
उस फकीर ने विभु को दीये को
छोड़ कर अपने पास बुलाया और कहा, “तब उसे छोड़, और इधर आ। तेरे भीतर का दीया भी ऐसी ही उलझन में है। दीया
जलाना तो बड़ा सरल है, लेकिन तेल में पानी मिला है। बाती में पानी चढ़ गया है। अब
सिर्फ माचिस जला-जला के माचिस को खराब करने से कुछ न होगा। सारी स्थिति बदलनी
होगी। दीया तो जल सकता है। लेकिन तू चाहे तब - बाधा तू खुद है। तुझे थोड़ा धैर्य
रखना होगा और वह करना होगा जो तू नहीं करना चाहता।”
हमारी यही स्थिति है। हमने
अपने बाती को तेल के बजाय पानी में भिगो रखा है। कितना ही प्रयत्न क्यों न करें
हमारा दीपक नहीं जलेगा। दीपक जलाने का काम तो बहुत सरल है, हम जानते भी हैं। लेकिन धैर्य पूर्वक वह
काम करना होगा जो हम जानते तो हैं लेकिन करना नहीं चाहते!
प्रकाश तो हर दिशा से हमें
आलोकित करने के लिए आने को तैयार है, यह तो हम ही हैं जो पर्दा लगाए बैठे हैं।
(210624)
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