शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

आई एम ओके, यू आर ओके


                                               

(I am OK, you are OK)                                                                             मेरे अनुभव

              

किसी समय पॉण्डिचेरी के नाम से विख्यात स्थान का नाम अब पुडुचेरी हो गया है। लोग संक्षिप्त में इसे पौंडी भी कहते हैं। हम इस पचड़े में न पड़ कर इसे पुडुचेरी ही कहेंगे। इस स्थान को विश्व के मान चित्र में स्थान दिलाने का श्रेय श्रीअरविंद, श्रीमाँ और इनकी ही प्रेरेणा से बने और बसे औरोविल को जाता है।

          श्री अरविंद आश्रम, पुडुचेरी  एक चाहरदीवारी में समाया हुआ नहीं है। इसके अलग-अलग विभाग शहर के कई हिस्सों में फैले हैं। औरोविल तो लगभग 14 कि.मी. की दूरी पर है। इन विभागों में एक है सब्दा’, जी हाँ ‘SABDA’। इसे सब्द या शब्द  कहने या समझने की भूल मत कीजियेगा। SABDA यानी Shree Arvind Book Distribution Agency। शायद किसी समय इस विभाग से सिर्फ श्री अरविंद एवं श्री माँ से संबन्धित पुस्तकों का ही विक्रय / वितरण हुआ करता होगा लेकिन आज यहाँ से इसके अलावा आश्रम तथा आश्रम से जुड़े हुए कुटीर तथा हस्त शिल्प उद्योग की वस्तुओं का भी विक्रय होता है। ऐसे स्टोर पुडुचेरी के अलावा आश्रम की शाखाओं तथा अनेक केन्द्रों में भी हैं। इनके अनेक उत्पादों में एक है सुगंधित तेल (एसन्स ऑइल)। इस स्टोर में यह तेल अलग-अलग अनेक  खुशबू में उपलब्ध है।  

          एक दिन एक महिला सब्दा के किसी स्टोर में आईं, उन्हें यही सुगंधित तेल लेना था। महिला, जहां इसकी शीशियाँ सजी थीं, वहाँ पहुंची, एक सरसरी नगाह से उन्हें देखा और फिर अपने पसंद की खुशबू का तेल खोजना शुरू किया। सब शीशियाँ पैकिंग में सील की हुई थीं। उन्हीं शीशियों के सामने बिना सील की हुई शीशियाँ भी रखी थीं। उन पर रौलर लगे थे ताकि तेल को अपने हाथ पर लगा कर खुशबू की परख की जा सके। महिला ने कई शीशियों की खुशबू को परखा, उन्हें एक खुशबू पसंद आई। महिला उस शीशी को लेकर स्टोर के एक कर्मचारी, प्रशांत के पास पहुंची और हाथ की शीशी दिखा कर कहा, मुझे इसकी एक शीशी चाहिये, लेकिन ये रोलर वाली नहीं चाहि‎‎ये सपाट मुंह वाली चाहि‎‎ये जिससे बूंदे टपकाई जा सकें।

          प्रशांत इस स्टोर में एक स्वयंसेवक के रूप से कई वर्षों से अपनी सेवा प्रदान कर रहे थे, एक प्रसन्नचित, कर्तव्यनिष्ठ, हंसमुख सेवक। कभी कोई तकरार होती मुसकुराते हुए, अपने खास अंदाज में कहते आई एएम ओके, यू आर ओके’, और तकरार समाप्त हो जाती। प्रशांत ने मेज की दराज से एक शीशी निकाली जिसका मुंह सपाट था और उस महिला को दिखा कर पूछा, क्या आपको ऐसी शीशी चाहिये?’

हाँ, हाँ ऐसी ही चाहिये।

आपने जहां से यह रोलर वाली शीशी उठाई है वहीं उसके पीछे रखी सीलबंद शीशी ले लीजिये’, प्रशांत ने सलाह दी।

महिला असमंजस में पड़ गई, नहीं, मुझे वे रोलर वाली नहीं सपाट मुंह वाली शीशी चाहि‎‎ये।

जी हाँ, वहाँ वैसी ही शीशियाँ हैं, यह तो केवल नमूने (सैम्पेल) के लि‎‎ये है।

महिला खिन्न होने लगी, आप भी अजीब हैं, मैं कह रही हूँ कि मुझे यह नमूने वाली नहीं चाहिये और आप मुझे बार-बार वहीं से लेने कह रहे हैं।

बहनजी मैं आप को कह रहा हूँ कि आपके हाथ की शीशी रोलर वाली नमूने की हैं लेकिन दूसरी सील की हुई शीशियाँ में रोलर लगे हुए नहीं हैं।

अभी तो आप ने कहा कि ये नमूने की शीशियाँ हैं, मुझे ये नमूने वाली नहीं चाहिये’, महिल ने फिर से दोहराया।

          “@#$%^ ......”

          “...... _&%#.....”

          दोनों एक दूसरे के समझाते रहे। दोनों समझाने में लगे थे, समझने का प्रयत्न नहीं कर रहे थे।  नतीजा, उनके बीच तकरार बढ़ गई। प्रशांत थक हार कर  महिला की उपेक्षा करता हुआ अन्य कागजों के पन्ने पलटने लगा। महिला को यह अपना अपमान महसूस हुआ। अब तक दोनों खीज और झुंझलाहट से भर चुके थे। आखिर प्रशांत ने कहा, देखिये मैडम, मैं आपको हर तरह से समझा कर हार चुका हूँ, मेरे पास अब कहने को कुछ नहीं है, आप अगर नहीं समझना चाहती हैं तो आप की जैसी इच्छा हो कीजिये। लेकिन महिला तुनक गई, आप समझ ही नहीं रहे हैं उल्टे मुझे दोष दे रहे हैं कि मैं नहीं  समझ रही हूँ, और तो और मेरा अपमान कर रहे हैं।

यह तो आश्रम की शांति और नीरवता थी जिस कारण दोनों ने अपनी आवाज को भरसक धीमा ही रखा, लेकिन  एक अन्य कर्मचारी, सुबीर, परिस्थिति की  नाजुकता को समझ कर वहाँ आ पहुंचा।  धीरे से मैडम से कहा, आप मेरे साथ आइये मैं आपको देता हूँ। सुबीर महिला को उसी तेल के सेल्फ के सामने ले गया। सामने लगी शीशी को उठाते हुए बताया कि इन रोलर वाली  शीशियों में तेल के सैम्प्ल्स रखे हैं ताकि ग्राहक इनकी महक का परीक्षण कर सकें, ये बेचने के लिये नहीं हैं और इनके पीछे जो ये जो पैक और सील कि‎‎ये हुए हैं इनमें यही तेल हैं लेकिन इनकी शीशी का मुंह सपाट है, इनमें रोल्लेर्स नहीं लगे हुए हैं, इनसे बूंद टपकाई जा सकती है।

ओह, अच्छा, बस इतनी सी बात है। समझाना तो आता नहीं और बहस करते हैं’, महिला ने प्रशांत को घूरते हुए कहा और आगे बढ़ गई।  

प्रशांत कुछ कहने को उद्यत हुआ तभी सुबीर उन दोनों के बीच आ कर प्रशांत की ओर मुसकुराते हुए कहा, आई एएम ओके, यू आर ओके। प्रशांत के ओठों पर भी मुस्कुराहट आ गई, महिला बिलिंग सेक्शन की तरफ चली गई।

          बात सामान्य सी ही थी बस समझ का फेर था। कहने के पहले ध्यान से सुनिये कि दूसरा क्या कहा रहा है, तब प्रश्न कीजिये। अगर सामने वाला  समझ नहीं रहा है तो फिर से समझाने के पहले यह समझि‎‎ये कि उसके समझने में कहाँ भूल हो रही है। अनेक मनमुटाव, कलह, झगड़े और-तो-और युद्ध का कारण भी यही समझ का फेर होता है। इससे बचिये।

          अगर, आई एएम ओके यू आर ओके पसंद नहीं है तो दिल को हलकी सी थपकी देते हुए ऑल इज़ वेल भी कह सकते हैं।

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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

नालायक


             

प्रायः यह देखने में आता है कि हमें बड़ी जल्दी रहती है किसी के बारे में भी अपनी एक धारणा बनाने की।, एक अनुमान लगाने की, बिना सोचे-समझे और विचार किये। विशेष कर जब बच्चे छोटे ही रहते हैं और स्कूल या कॉलेज में पढ़ रहे होते हैं। पढ़ने में कैसा है? प्रायः यही होता है उसके नापने का मापदंड। परीक्षा में कैसा कर रहा है, कक्षा में  तथा अध्यापकों के साथ उसका कैसा व्यवहार है? हम यह भूल जाते हैं कि जब वे विद्यालय और घर की सुरक्षा के कवच से निकल बाहर की दुनिया में प्रवेश करते हैं तब यथार्थ से उनका साक्षात्कार होता है। और यह मिलन उसके मानस को घड़ने में एक अहम भूमिक निभाता है।   प्रस्तुत घटना इसी पर रोशनी डालती है।

          अरे मास्टरजी, रेट तो डबल है, पर आधे में काम करवा दूंगा आपका’, वह धीमे से फुसफुसाया। क्या करूँ, बहुत दिक्कत है, ऊपर तक चढ़ावा देना पड़ता है - एकाएक उसके लहजे में बेशर्मी उतर आई और फिर आज तो 5 सितम्बर है, डिस्काउंट समझ लो आप ये मेरी तरफ से।

          सरकारी दफ्तर में अपने ही होनहार छात्र को कुर्सी पर बैठा देख मास्टरजी की बाँछें खिल उठीं थी काम आसानी से हो जायेगा लेकिन..... । मास्टर जी तनिक खिन्न हुए, फिर पसीना पोंछते हुए कुर्सी से उठ खड़े हुए। सरकारी दफ्तर के उस कमरे से बाहर निकले ही थे कि पीछे से उसी की फुसफुसाहट सुनाई दी ट्यूशन पढ़ा-पढ़ा कर बहुत माया जोड़ रखी है बुड्ढे ने, पेंशन मिलती है सो अलग, पर देने के नाम पर जेब फटी जा रही है

          मास्टरजी वहीं ठिठक गये। उन्होंने आगे सुना 'अंग्रेजी पढ़ाते थे यह हमें उन्हीं लड़कों को नंबर देते थे जो इनके यहां ट्यूशन पढ़ते थे। हमने भी पढ़ी ट्यूशन तब पास हुए। पर अब क्या करें, गुरुजी हैं, इसलिये लिहाज कर रहा हूँ। मास्टरजी बेहद थके-थके से बाहर आये। निर्णय लिया कि अपने इस विद्यार्थी का अहसान नहीं लेंगे, जितनी रिश्वत मांगता है, देकर अपना काम करवा लेंगे।

          बैंक से रकम निकलवा कर पासबुक समेत थैले में रखी और थैले को बड़ी एहतियात से स्कूटर की डिक्की में रखने जा ही रहे थे, कि मानो किसी चील ने झपट्टा मारा हो। मोटर साइकिल पर सवार वह शख्स, जो मुंह पर कपड़ा बांधे था पल-भर में उड़न-छू हो गया। मास्टरजी, पहले तो हतप्रभ से खड़े रह गये, फिर लड़खड़ा कर गिर पड़े।

          थाने में रपट लिखवा दी गई थी। घर में कोहराम मचा था। पर मास्टरजी एकाएक चुप्पी लगा गए थे। बस बिस्तर पर पड़े-पड़े छत को घूरे जा रहे थे। बड़ी मुश्किल से आंख लगी लेकिन एक डरावना सपना देखा और पसीने से तरबतर हो बिस्तर से उठ खड़े हुए। भोर हो चुकी थी। मन न होते हुए भी सैर को निकल पड़े। अभी नुक्कड़ तक ही पहुंचे थे कि एकाएक चिहुंक उठे। एक तेज गति से आ रही बाइक उन्हें छूती हुई निकल गई। वे फटी-फटी आंखों से देखते रह गए क्योंकि उनका वही थैला अब उनके पैरों के पास पड़ा था।

          धड़कते दिल से उसे खोला रकम, पासबुक सब सही सलामत थे। साथ में एक काग़ज़ का पुर्जा भी था, जिस पर बहुत आड़े-तिरछे तरीके से लिखा था - "सोर्री मास्साब, गलती हो गई। अगर हम भी टूसन पढे होते तो कहीं बाबू-वाबू लग ही जाते।'

          दिमाग पर बहुत ज़ोर लगाने के बाद भी वे यह याद नहीं कर सके कि यह कौन-सा नालायक छात्र था और मास्टरजी सोचते रह गये कौन नालायक निकला!

         क्या आप मास्टरजी की सहायता कर सकते हैं यह बताने में कि उनके इन दो विद्यार्थियों में कौन नालायक है और क्यों? नीचे दिये कोममेंट्स में अपने विचार दें ताकि उसे दूसरे भी पढ़ सकें और अपने-अपने कोममेंट्स दे सकें। 

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शनिवार, 6 अप्रैल 2024

रूपान्तरण


                    


आश्रम में आये अभी कुछ ही दिन हुए थे। लेकिन धीरे-धीरे पूरा शरीर विशेष कर दोनों पैर और कमर साथ नहीं दे रहे थे, पूरे बदन में दिन भर दर्द रहता था। चलना-फिरना, उठना-बैठना दूभर हो रखा था। किसी भी कार्य में एकाग्रता नहीं हो रही थी। पीड़ा के कारण आत्म-विश्वास की भी कमी हो गई थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ और क्या करूँ? केवल बिस्तर पर पड़े रहने से ही आराम मिल रहा था। आश्रम का कोई भी कार्य दिया जा रहा था तो बिना सोचे और लज्जा का अनुभाव किये तुरंत मना कर रहा था। क्या करता शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से लाचार था। कमरे में पड़े-पड़े निबंधों को जाँचने का काम, कुछ नया लिखने- पढ़ने का काम भी नहीं कर पा रहा था। आश्रम में इस प्रकार पड़े रहने में शर्म भी महसूस हो रही थी। अंग-प्रत्यंग ही नहीं बल्कि आवाज में भी पीड़ा की झलक थी, चेहरे पर तो सब लिखा हुआ ही था। ज्योति दीदी ने भाँप लिया था शायद इसीलिये कई बार पूछ चुकी थीं, भैया, आप ठीक तो हैं न। क्या कहता, झिझक में सही बता भी नहीं पा रहा था।  हाँ, हाँ ठीक ही हूँ। यही कहता रहा।

          हर दिन की तरह आज भी मुंह-अंधेरे नींद खुल गई। आज तो बिस्तर से उठा ही नहीं जा रहा था। आज सुबह की सैर पर नहीं जा सकूँगा, यह निश्चय कर मुंह ढक कर वापस सो गया। लेकिन तभी चेतना उठ खड़ी हुई। कल की कक्षा में क्या पढ़ा-सुना? आवाज आई, उठ, आज अभी इसे आजमा कर देख ले कैसा रहता है।       

          कौन-सी कक्षा और क्या पढ़ाई? संकल्प, अभीप्सा और अध्यवसाय। श्री अरविंद और श्री माँ की कृतियों से चयनित अंशों पर आधारित पुस्तक ‘Living Within’ का हिन्दी रूपान्तरण आंतरिक रूप से जीना हमारी मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य और प्रगति के लिये सहायक पुस्तक है। इस पुस्तक की चल रही कक्षा में कल का यही विषय था – संकल्प, सच्चाई या अभीप्सा और अध्यवसाय से हम कैसे रूपांतरित हो सकते हैं, कैसे? कल इस अनुच्छेद को हमने पढ़ा था –

“पहला पग है : संकल्प। दूसरा है सच्चाई और अभीप्सा। परन्तु संकल्प और अभीप्सा लगभग एक ही चीज है, एक-दूसरे के अनुगामी हैं। फिर है, अध्यवसाय। हां, किसी भी प्रक्रिया में अध्यवसाय आवश्यक है, और यह प्रक्रिया क्या है?... प्रथम, निरीक्षण और  विवेक करने की योग्यता अवश्य होनी चाहिये, अपने अन्दर प्राण को खोज निकालने की योग्यता अवश्य होनी चाहिये, नहीं तो तुम्हारे लिये यह कहना कठिन हो जायेगा कि, "यह प्राण से आता है, या मन से आता है, यह शरीर से आता है।" प्रत्येक चीज तुम्हें मिली-जुली और अस्पष्ट प्रतीत होगी। बहुत दीर्घकालिक निरीक्षण के बाद, तुम विभिन्न भागों के बीच विभेद करने तथा क्रिया का मूल समझने में समर्थ हो सकोगे। इसमें अत्यंत लंबे समय की आवश्यकता होती है, परंतु मनुष्य तेज भी जा सकता है। ( पृ 92)

          इस पर चर्चा करते हुए ज्योति दीदी ने बताया कि मन केवल चंचल ही नहीं बहुत हठी भी है और समझदार भी, एक छोटे बच्चे की तरह। अपनी जिद नहीं छोड़ता और अपना कार्य करवाने के सब गुर जानता है। उसे डांट कर या मार कर नहीं समझाया जा सकता है। जैसे छोटे बच्चे को समझा-बुझा कर ही मनाया जा सकता है वैसे ही उसे समझाना होता है।

          इसे ही आजमाने का निश्चय किया, और मैंने एक छोटे बच्चे की तरह उसे समझाना शुरू किया – चल उठ खड़ा हो, नीचे चल।

 ऊँह, नहीं जाना, बहुत दर्द है, ठंड भी है और अभी तो दिन भी नहीं हुआ है। उसने तीन-तीन कारण गिना दिये। लगा स्थिति जटिल है, लेकिन आज मैं भी हारने के लिये तैयार नहीं था। धीरे-धीरे प्यार से समझाना शुरू किया, दर्द मिटाना है न, बिस्तर में पड़े रहने से दर्द कम नहीं ज्यादा हो जायेगा। तब चल-फिर और बैठ भी नहीं पाओगे। उठ गरम जैकेट पहन ले ठंड नहीं लगेगी और तैयार होते-होते दिन भी निकल आयेगा।

नहीं, आज नहीं कल’, उसने बहाना बनाया।   

आज नहीं जाओगे तो कल भी नहीं जाने सकोगे। दर्द बढ़ जायेगा, थोड़ा चलोगे तो दर्द कम हो जायेगा।

          लेकिन, शरीर किसी भी तरह उठने को तैयार नहीं हो रहा था। लेकिन आज मैं भी जिद पर था। तरह-तरह से समझाता रहा, अंत में उसके पसंदीदा रेस्टुरेंट में ले जाने का प्रलोभन दिया, तब शरीर कुछ हिला, तुम बहुत लंबा घुमाते हो, उतना नहीं घूम सकूँगा। इतने चक्कर नहीं लगाऊँगा।

अच्छा ठीक है आधा चक्कर ही लगाएंगे।

पक्का?’

हाँ पक्का’, मैंने वचन दे दिया।

आखिर शरीर मान ही गया। और हम घूमने उतर गये। लेकिन आधी दूरी पूरी हुई ही नहीं थी कि वह फिर से उठ खड़ा हुआ, आधा हो गया, अब वापस चलो।

नहीं’, मैंने अंगुली से दिखाया, वहाँ पहुंचने पर आधा होगा न।

चलो, अब लौटो, आधा हो गया। कुछ ही देर बाद उसने फिर से कहा।

हमलोग गोल-गोल घूम रहे हैं, आधी दूर आ गये, अब वापस जाएँ या आगे चलें बात तो एक ही है, तब आगे ही चलें’, मैंने समझाया।

उसे बात पसंद तो नहीं आई, षड्यंत्र की गंध आई  लेकिन मान गया। पूरा होने पर मैंने जैसे ही कदम आगे बढ़ाया, ये क्या! हो गया अब आगे नहीं।

अरे घूमने नहीं जा रहे हैं सामने श्री अरविंद को प्रणाम करके लौटेंगे। और इस प्रकार समाधि, फूल, तुलसी, मोर और सूर्योदय का लालच देकर मैंने दो चक्कर लगवा ही लिये।

          मन बहुत प्रसन्न था। अच्छा भी लग रहा था – शरीर और मन दोनों को। कल की पढ़ाई आज ही काम आ गई। संकल्प लिया मुझे आज ही ठीक होना है, सोच-विचार कर सुबह-सुबह दो-तीन उपचार किया और बात बन गई। सारी पीड़ा रफू-चक्कर हो चुकी थी और पूर्ण स्वस्थ्य महसूस करने लगा। दोपहर में भोजन-कक्ष में दीदी से मुलाक़ात हुई, मैंने चहकते हुए पूछा, दीदी, आज कैसा लग रहा हूँ।

अभी तो आप ठीक लग रहे हैं भैया।

अपने ही तो ठीक किया है

‘…….’ दीदी मुझे देखने लगी, मैंने पूरा वाकिया सुनाया।

मैंने नहीं, माँ ने ठीक किया है।

हाँ, लेकिन वे आईं तो आपके ही रूप में न।

मेरा रूपान्तरण हो चुका था।

         पढ़ने से, सुनने से, सोचने से कुछ नहीं होता। संकल्प लेकर पूरी सच्चाई और अभीप्सा से अध्यवसाय करने से ही फल की प्राप्ति होती है।

यह प्रत्यक्ष अनुभव था।

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आत्मविश्वास

                 एक बुजुर्ग दंपत्ति बोस्टन स्टेशन पर ट्रेन से उतरे। महिला साधारण सूती वस्त्र पहने थी और पुरुष भी एक हाथ से बुने सूते का सा...