मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

आओ दीपक जलाएं

 दीपावली की शुभ कामनाओं के साथ आपको आमंत्रण है


          बहुत पुरानी बात है, वही अंधेरे वाली बात जिसमें कहा गया था कि दिवाली की रात में सब तरफ दीये जल रहे हैं, तुम भी एक दिया जलाओ। मैं हाथ में दीया लिए खड़ा था, लेकिन कहीं रखने की जगह नहीं थी। फिर ध्यान आया, हृदय के भीतर कहीं अंधेरा है, वहां उजाला करना बाकी है। वहीं रखता हूं अपने हाथ का दीया...

          आज सोच रहा हूं उस दिन परेशानी अंधेरा मिटाने की थी या उजाला करने की? क्या ज़्यादा महत्वपूर्ण था तब, अंधेरा मिटाना या उजाला करना? अंधेरा हटेगा तभी तो उजाला होगा। अर्थात अंधेरा हटे बिना उजाला नहीं हो सकता और उजाला होगा तो अंधेरा हटेगा ही।

          बात एक ही है, फिर भी अंतर है दोनों में। अंधेरा हटाने का मतलब गलत को सही करना और उजाला करने का मतलब सही को समझना, स्वीकारना। यह समझ या स्वीकार तभी सम्भव हो पाता है जब हम बाहर के उजाले के साथ-साथ भीतर कहीं उजाला करने की आवश्यकता को भी महसूस करें। जब भीतर उजाला करने की बात हो तो आवश्यकता उस सकारात्मकता की होती है जो जीवन में सार्थकता का अहसास कराती है। प्रकाश का अभाव अंधेरा नहीं है। अंधेरा वह अवस्था है जब हमें कुछ सूझता नहीं है। जब हम सही और उचित के पक्ष में खड़े नहीं हो पाते। जब हम गलत को गलत कहने से डरते हैं। असहाय बन कर अनुचित को स्वीकार कर लेते हैं, सह लेते हैं। घोर अंधेरे की अवस्था है यह।

          अब, जब घोर अंधेरा है तब दीपक रखने की जगह क्यों नहीं हैं? है, लेकिन दिख नहीं रही।

एक बार वैदिक काल से अब तक के भारतीय चिंतन के इतिहास पर दृष्टि डालें तब यह विदित होगा कि यहाँ विचारधाराओं का विकास उन के द्वारा किया गया है जिन्होंने अपने जीवन में साधना का और दूसरों की स्वार्थ रहित सहायता का मार्ग अपनाया था। समाज, देश और संसार की समस्याओं को सुलझाने के लिये हमारे इर्द-गिर्द विचारों और सुझावों का अंबार लगा है। लेकिन फिर भी समस्याएं सुलझने के बदले बढ़ती ही जा रही हैं क्योंकि उनमें प्रायः ही अहंकार, पक्षपात, अज्ञान और स्वार्थ किसी-न-किसी रूप में छिपा रहता है।

          अतः आपको अपने संकुचित दृष्टि और उसके पूर्वाग्रहों से मुक्त होने का प्रयास करना होगा।  इसका सबसे सरल उपाय है कि अपनी आय का एक प्रतिशत समाज को दें, समय का भी एक प्रतिशत। धन देना आसान है लेकिन समय नहीं। अगर समय नहीं देते तब, दिये हुए धन का सदुपयोग नहीं होता, दुराचारी के हाथ में पड़ कर दुरुपयोग ही होता है। अनेक, अपने समय की प्रतिष्ठित, समाजसेवी संस्थाएं बर्बाद हो गईं हैं। अथर्ववेद में कहा गया है शतहस्त समाहर, सहस्रहस्त संकिरसौ हाथों से जोड़ो और हज़ार हाथों से बिखेरो। एक प्रतिशत, यानि सप्ताह में लगभग दो घंटे। इतना समय और कुछ पैसे लेकर आप समान विचार वाले  कुछ मित्रों के साथ घर से बाहर निकलकर देखिए। आपको अपने आप दिखने लगेगा कि समाज में क्या-क्या किया जा सकता है, दीपक कहाँ रखा जा सकता है।

          यदि आप किसी भी पेशे यथा स्वास्थ्य, कानून, तकनीक, हिसाब-किताब आदि से जुड़े हैं तब तो आपके पास अथाह संभावनाएं हैं।  याद रखें दीपक रखने के लिए केवल गरीब का झोपड़ा नहीं हैं। वंचित, असहाय, लाचार, परेशान लोगों के पास भी दीपक रखने की जगह मिल जाएगी। धनवानों की चमकती कोठियों के इर्द-गिर्द भी घोर अंधेरा है।

          पड़ोस में वाचनालय (library) प्रांरभ करना, बेकार पड़ीं फटती पुस्तकों को उसके पाठकों तक पहुंचाना, निःशुल्क विद्या-दान देना, किसी गरीब, असहाय बुजुर्ग  की इलाज के लिए उसे हॉस्पिटल, डॉक्टर, परीक्षण केंद्र  तक ले जाने और लाना ... कहीं से एक कोना पकड़िये  और फिर ... काम बहुत हैं। लेकिन केवल तभी संभव है जब स्वार्थ रहित होकर काम कर रहे होंगे। आप समझेंगे कि आपका जीवन एक विशालतम चेतना के महासागर में एक लहर मात्र है। वास्तव में सतही जीवन की दौड़‌-भाग में लगे हुए व्यक्ति के अंदर जीवन को समझने के लिये  अवकाश नहीं होता। बाधा हर काम में है, लेकिन उसका हल भी है।

          और जब समाज के लिए कुछ करें तो किसी-पर-किसी भी प्रकार के अहसान की भावना से नहीं, वैसा करने से आप एक सीमित क्षुद्र दृष्टि से घिर जाएँगे। उस काम को अपनी वैयक्तिक साधना के रूप में लीजिए। मानो विश्व एक आश्रम हो और वहाँ आपको साधना करने का काम दिया गया है

          आप एक प्रतिशत से प्रारंभ कीजिए। धीरे-धीरे आप पायेंगे कि आप समाज के लिये और अधिक करना चाहते हैं क्योंकि केवल वही काम, जो आप दूसरों के लिए करते हैं, आपको वह सब देगा जिसके लिए आप अपनी जिंदगी खपाते रहते हैं - सच्चा सुख, शांति और आत्मिक प्रसन्नता।

          आप यह समझ नहीं पाएंगे कि अपने हाथ के दीपक को कहाँ-कहाँ रखूँ? जगह नहीं,  दीपक कम पड़ जाएंगे।

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यूट्यूब  का संपर्क सूत्र :

https://youtu.be/stlKfJU5wno


आओ दीपक जलाएं

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