रविवार, 21 सितंबर 2025

हम कहाँ खड़े हैं?


          

हम भारतीय बिना जाने समझे अपने आप पर बहुत गर्व करते हैं, अभिमान और घमंड की हद तक। न हमने विश्व भ्रमण किया और न ही हम कुछ पढ़े, व्हाट्सअप्प-फेसबूक आदि के अलावा। हाँ यह सही है कि अनेक बातों में, रहन-सहन में, सोच-विचार में हमारी श्रेष्ठता है, लेकिन उसे बनाए रखना और उसे नित नई ऊंचाइयों पर पहुंचाना  हमारा ही उत्तरदायित्व है। हम “सनातन” कहने और जानने से नहीं बल्कि वैसा होने से हैं। पॉण्डिचेरी की श्री माँ ने कहा भी है –

                              जानना अच्छा है,

                                        समझना बेहतर है,

                                                  लेकिन होना सर्वोत्तम है। 

दुनिया बड़ी तेजी से प्रगति कर रही है और हम उसके साथ कदम मिला कर नहीं चल रहे हैं।  मैथिली शरण गुप्त ने दशकों पहले लिखा था –

हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी

आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएँ सभी।

          हिन्दी के साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने दुनिया का सफर किया, हिंदुस्तान में भी अनेक विदेशियों के संपर्क में रहे। उनके संस्मरण चौंकने वाले हैं और एक नई खिड़की खोलते हैं। एक बार रूस की यात्रा के दौरान रूसी भाषा से अंजान उनका परिचय वहाँ की एक दुभाषिया वेरोनिका से हुआ और जल्द ही वे आपस में घुल-मिल गए। वे बताते हैं कि  एक दिन बातों-ही-बातों में चर्चा उसके परिवार पर पहुँच गई। उसने बताया कि उसके पिता द्वितीय महायुद्ध में मारे गए थे। माँ, भाई-बहनों का परिवार चलाती है, क्योंकि उन्होंने अभी शादी नहीं की।

          "आपकी माँ ने शादी नहीं की?" पूछने पर एक क्षण के लिए जैसे वह गंभीर हो उठी और बताया, "मेरी माँ मुझसे बहुत ज़्यादा सुंदर है। बहुत बुद्धिमान और चतुर है। उनके लिए दूसरा पति पाना बहुत आसान था, परंतु फिर भी उन्होंने शादी नहीं की।"

"लेकिन क्यों?" विष्णुजी की जिज्ञासा चरम सीमा पर पहुँच गई।

वह उसी गंभीरता से बोली,

"वे अपने लिए अच्छा पति पा सकती थीं, पर संतान के लिए अच्छा पिता पाना आसान नहीं है। हमारे लिए, उन्होंने अपने सुख का बलिदान कर दिया।"

          और कहते-कहते दुभाषिया वेरोनिका जैसे भीग गई। विष्णु प्रभाकर जी यह स्वीकार करते हैं कि क्षण-भर के लिए वे स्तब्ध रह गये। विदेशियों के जीवन को लेकर हम अभिमानी भारतवासी क्या नहीं कहते, कौन-सा लांछन नहीं लगाते, पर यह एक घटना क्या इस बात का प्रमाण नहीं है कि अपने दायित्व के लिए जीवन के बड़े-से-बड़े सुख का बलिदान करने में उनमें हिचकिचाहट नहीं है!

          हम भारतवासी अविवाहित माँ को सह ही नहीं सकते। भ्रूण-हत्या, गर्भपात, वेश्यावृत्ति-सब कुछ सह सकते हैं, पर 'माँ' अविवाहित भी हो सकती है, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन यह विदेशी महिला कह रही थी-

"हम अविवाहित माँ का अपमान करने की कल्पना नहीं कर सकते। उसने कौन-सा पाप किया है? क्या संतान पैदा करना गुनाह है? हमारे समाज में उसकी वही प्रतिष्ठा है, जो किसी भी कुलीन नारी की हो सकती है। उसकी संतान का वही सम्मान है, जो किसी विवाहित स्त्री-पुरुष की संतान का हो सकता है...।"

          हम में से बहुतों को यह पाप जान पड़ सकता है, पर किसका पाप? विदेशियों के लिए यह एक सहज प्रक्रिया है। इसपर बहस न करना ही उचित है। विष्णु प्रभाकर तो विदेशी नर-नारी की एक झलक भर देना चाहते हैं। उनकी सेवा-परायणता, उनका स्नेह, उनका देश-प्रेम, नारी के स्वाभिमान और अपने दायित्व के प्रति ममता और सब से ऊपर उसकी निर्बाध उन्मुक्तता; क्या ये नारी का परिचय नहीं देते? क्या ये गुण आज की नारी के लिए गर्व और गौरव का कारण नहीं हैं? भले ही वह नारी पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण-कहीं की भी हो।

          विचार करें, इसकी तुलना में हम कहाँ खड़े हैं?

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यूट्यूब  का संपर्क सूत्र :

https://youtu.be/FysuTyTz92U

हम कहाँ खड़े हैं?

            हम भारतीय बिना जाने समझे अपने आप पर बहुत गर्व करते हैं , अभिमान और घमंड की हद तक। न हमने विश्व भ्रमण किया और न ही हम कुछ पढ़े , ...