शनिवार, 16 अगस्त 2025

मैं सर्वस्व तेरा ! तेरा ही !...

 



(जन्मास्टमी पर अग्निशिखा के लिए वन्दना की विशेष रचना)

आज कृष्ण कन्हैया की वर्षगाँठ है। चारों तरफ़ उत्साह-ही-उत्साह उफन-उफन कर बह रहा है। कन्हाई के जन्मदिवस के अधिकांश संस्कार पूरे हो गये हैं। महर्षि शाण्डिल्य ब्राह्मणवर्ग के साथ यज्ञ-पूजन करवा चुके हैं। वे सभी प्रसन्न हृदय अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान कर गये हैं। गोप-गोपियाँ भी अपने-अपने उपहार अपने कुँवर कन्हाई को भेंट कर चुकी हैं। अब आयी है कृष्ण के सखाओं की बारी...

हाँ, कन्हाई के सखा भी उन्हें उपहार अवश्य देंगे, लेकिन देंगे अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार। उन बड़े-बड़े गोप-गोपियों में से तो किसी ने भेंट स्वरूप कान्हा को रत्नों का हार पहनाया, किसी ने मणियों के कंकण, कोई उसके लिए बहुमूल्य वस्त्रों का जोड़ा लाया तो कोई ले आया टोकनी-भर खिलौने !

लेकिन कृष्ण के सखाओं का उपहार इन सबसे एकदम भिन्न है-

सबसे पहले आया प्रिय सखा भद्र। छूटते ही बोला- 'कनूँ, मैं तुझे तिलक लगाऊँगा। मेरे पास तो कुछ है नहीं, तेरी ही चहेती गाय, कामदा के गोबर का टीका लगा दूँ तेरे भाल पर?'

'सच! हाँ, हाँ लगा भय्या।' अब नन्दनन्दन तो मानों हर्ष से विभोर हो उठा। कान्हा ने सोचा, अरे, इतनी महत्त्वपूर्ण बात तो महर्षि शाण्डिल्य तक को न सूझी, और उसका सखा भद्र कितना बुद्धिमान् है। भला गोपकुमार का तिलक गोमय के बिना कैसे सम्पूर्ण हो सकता है? भद्र ने अक्षतों के नीचे, ठीक भ्रूमध्य में अपनी अनामिका से गोबर का एक छोटा-सा बिन्दु सजा दिया। कृष्ण अब सब को दौड़-दौड़ कर अपने माथे का तिलक दिखला रहा है और हर्षातिरेक से कहता जा रहा है- 'भद्र ने लगाया है, मेरे भद्र ने!'

और इसके साथ ही सखाओं के अद्वितीय, अनुपम उपहारों का क्रम चल पड़ा... तोक कहीं से एक तिरंगा पुष्प ले आया है- श्याम-श्वेत-अरुण तीनों रंगों की आभा उस फूल की छटा को ऐसा निखार रही है कि कृष्ण उसे अपनी हथेली पर धरे सभी जगह चक्कर लगा-लगा कर अपने मित्र के द्वारा दिये अमोल उपहार के लिए प्रशंसा बटोरता फिर रहा है, झूम-झूम कर हर एक को उसके दर्शन करा रहा है। उसके नेत्र, उसका उल्लास मुखरित हो पूछ रहा है- 'ऐसी अद्भुत वस्तु है किसी के पास? क्या कोई भी रत्न इस अपूर्व निधि के सामने ठहर सकता है?' और उधर तोक... एक छोटे-से उपहार को दे उसने तो मानों सारा त्रिभुवन अपनी मुट्ठी में समेट लिया। हर्ष का पुतला बना वह भी अपने सखा, यानी अपने सर्वस्व के साथ परछाई की तरह फिर रहा है, क्या वही अकेला उनके साथ है? नहीं, नहीं... कान्हा के उतावले मतवाले सभी सखाओं में अपने-अपने उपहार देने की होड़ मची है, कुछ धक्कम-धक्का भी हो रही है, हर एक अपनी भेंट सखा को पहले थमाना चाहता है। कोई नयी-नयी किसलयों का हार पहना रहा है, किसी के हाथ में मोरपंख का गुलदस्ता है, किसी की हथेली यमुनाजी के तट की बालू से सने छोटे-छोटे पत्थरों से भरी है तो कोई और चित्र-विचित्र जंगली फूलों को थाली में सजाये खड़ा है - जितने सखा उतने उपहार और उससे भी सहस्रगुना प्रेम - कन्हाई तो उस बाढ़ में बह गया। सुध-बुध खो बैठा, प्रत्येक भेंट को सिर-आँखों से लगा, निहाल हो उठा।

यह सच नहीं कि अपने अग्रजों द्वारा दिये उपहारों से कान्हा कम आनन्दित हुए थे, लेकिन सखाओं के फूल-पत्ते, कंकड़-पत्थर, पंख आदि पाकर तो यह कन्हाई ऐसा नाचता-कूदता-फाँदता फिर रहा है जैसे धरती पर साक्षात् हर्षोल्लास मूर्तिमान् हो उठा हो! बड़ी देर बाद जब कृष्ण तनिक अपने-आपे में आया तो मैया और बाबा ने बड़े स्नेह से कहा- 'लाल, अब अपने सखाओं को भी उपहार देकर उनका सत्कार करो।'

और कन्हाई दौड़ आया उस राशि के समीप जो मैया ने सजा रखी थी। इस बार यशोदाजी ने अच्छी तरह समझा दिया था नन्द बाबा को इसीलिए बाबा ने महीनों लगाये हैं उपहारों के चयन में, बहुत प्रयत्न करके दूर-दूर से मँगवाये हैं। लेकिन कोई प्रयास सफल नहीं हुआ। उन बहुमूल्य उपहारों में से कोई भी कृष्ण को ऐसा नहीं लगता है जिसे वह अपने किसी भी सखा को दे सके, एक भी उसकी आँखों में नहीं जँचा, उसके हृदय को नहीं भाया। सखाओं के दिये पंखों, पत्थरों, पुष्पों के अतुल्य उपहारों के सम्मुख मणिरत्न-जटित वे सभी उपहार उसे तुच्छ प्रतीत हो रहे थे। बार-बार उसका हाथ अपने भाल पर भद्र द्वारा लगाये गोबर के तिलक पर पहुँच जाता और वह निहाल हो उठता, साथ ही बहुत खिन्न भी, क्योंकि... क्या दे वह अपने मित्रगण को ??? विशाल, अञ्जन रञ्जित कमल लोचन भर आये नन्दनन्दन के। प्रत्येक, प्रत्येक वर्षगाँठ पर ठीक यही दृश्य उपस्थित होता है

कन्हाई की भौहों पर बल पड़े, वह सोचने लगा, सोचता रहा... त्रिभुवन की कोई वस्तु उसे ऐसी न लगी जिसे देकर वह कृतकृत्य हो सके, सन्तोष से ओत-प्रोत हो जाये...। तब ?

कन्हैया ने बलदाऊ को निहारा। दाऊ की आँखों में झांकते ही श्यामसुन्दर हर्षातिरेक से विह्वल हो उठा। उन नयनों से सच्चे प्रेम की जो अजस्र कौंधें छिटक रही थीं उनमें कान्हा ने अपना उपहार पा लिया...। और फिर उसने सामने खड़े भद्र को अपने आलिंगन में जकड़ लिया वाणी नहीं फूट रही, लेकिन कान्हा का रोम-रोम पुकार रहा है, "सखे ! यही है मेरा प्रतिदान 'मैं तेरा, मैं तेरा'।"

तोक, सुबल, श्रीदाम एक-एक को अपने बाहुपाश में बाँध कर कन्हैया सुध-बुध खो बैठा है। प्रत्येक सखा उससे लिपट कर अन्तरतम में यही अनुभव कर रहा है कि साँवरा उसी का प्रियतम सखा है, क्योंकि हर एक को अंक में भर कर कृष्ण का रोम-रोम यही गुञ्जारित-प्रतिगुञ्जारित कर रहा है "मैं सर्वस्व तेरा हूँ, तेरा ही हूँ।"

भक्त को दिये भगवान् के इस उपहार के सम्मुख ब्रह्माण्ड का कौन सा उपहार टिक सकता है भला?

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