शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

तोड़ो मन की बेड़ी


           

आज प्रारम्भ करते हैं रोम की एक पुरानी, लेकिन प्रेरणादायक कहानी से -           

एक बार, पड़ोसी राष्ट्र ने रोम पर आक्रमण किया। युद्ध में रोम के शासक बुरी तरह से पराजित  हुए। सम्राट को बंदी बना कर कारावास में डाल दिया गया और शहर के धनाढ्य लोगों को हथकड़ियों में जकड़ दिया गया। इन बंदियों में एक धनी लुहार भी था। बर्बर जंगली जानवरों के सामने फेंक देने के लिए, जब इन सभी बंदियों को घने जंगल में ले जाने लगे तो सभी रोने और दया की भीख मांगने लगे। केवल लुहार ही शांतचित्त बैठा हुआ था। उनमें से किसी ने लुहार से पूछा, 'क्या तुम्हें डर नहीं लगता है? आखिर तुम इतने धैर्य के साथ कैसे बैठे सकते हो?'

          लुहार ने धैर्यपूर्वक जवाब दिया, 'मैं, जीवन भर हथकड़ियां ही बनाता रहा हूं, यही मेरा  पेशा रहा है। आज तक दुनिया की ऐसी कोई हथकड़ी नहीं बनी, जिसे मैं नहीं तोड़ सकता। जब हमारे दुश्मन, हम सब को जंगल में छोड़कर वापस लौट जायेंगे तब मैं अपनी और फिर, तुम सब की हथकड़ियां तोड़ दूंगा।' दुश्मन सैनिकों के वापस चले जाने के पश्चात लुहार पल भर की देर किये बिना हथकड़ी तोड़ने में जुट गया। लेकिन, काफी कोशिशों के बावजूद भी, वह हथकड़ी तोड़ नहीं पाया। थोड़ी देर में ही मृत्यु को करीब जानकर, घोर उदासी और हताशा का भाव उसके चेहरे पर, साफ नज़र आने लगा। साथी बंदियों के द्वारा उसकी इस विचित्र मनोदशा के बारे में पूछे जाने पर लुहार ने घबराते हुए कहा, 'इस हथकड़ी पर मेरा नाम लिखा है, अर्थात इसे खुद मैंने बनाया है। मैं दुनिया की किसी भी हथकड़ी को तोड़ सकता हूं किंतु खुद, अपनी बनाई हथकड़ी मैं नहीं तोड़ सकता। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिन हथकड़ियों को मैं बना रहा हूं, वही एक दिन मेरी मौत का सबब बन जायेंगी।

          कहानी तो यहाँ समाप्त हो गई, लेकिन इसमें प्रेरणादायक क्या है?

          क्या यह सही है कि अपनी बनाई वस्तु हम नहीं तोड़ सकते? या यह हमारी-आपकी मानसिक हथकड़ी है जिसका निर्माण हम ने ही किया है और यह मान बैठे हैं कि यह हमारी ही बनाई हुई है, तो तोड़ नहीं पाएंगे। हमारे इस विश्वास ने हमें एक लंबे समय से अंधकार में डाल रखा है, काल कोठारी में बंद कर रखा है, गुलाम बना रखा है। भय की हथकड़ी, अज्ञानता की हथकड़ी, सांप्रदायिकता की हथकड़ी, जाँत-पांत, ऊंच-नीच, भाषा की हथकड़ी। और इनके अलावा लोभ, तृष्णा, पाप की हथकड़ियाँ हमने खुद बना कर पहन रखी हैं। यही नहीं अन्याय, हिंसा और पाप को सहने की हथकड़ियाँ भी। और ऐसी ही अनेक खुद की बनाई हथकड़ियों से हमने अपने-आप को जकड़ रखा है जिन्हें हम, उम्र भर तोड़ने में असफल रहे। किसी दूसरे का मुंह जोहते रहे कि कहीं से कोई आयेगा, कोई अवतरित होगा और हमें इनसे मुक्त करेगा। यही नहीं बल्कि विरासत के रूप में आने वाली पीढ़ी को ये हथकड़ियाँ सौंपते रहे। और यह कार्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता जा रहा है।

          हम यह मानते रहे कि हम पिछड़े लोग हैं। हमारा ज्ञान, हमारी विद्या, निम्न कोटि की  है। हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति, हमारा धर्म, भाषा, कला, ग्रंथ, प्रशासन, व्यवस्था, शिक्षा पद्धति हेय हैं और विश्व के मापदंड पर कहीं नहीं टिकती। हम पिछड़े हुए लोग हैं और शायद वैसे ही रहेंगे। और यह सब इस सच्चाई को जानते हुए कि हमारा अतीत महान रहा है और वर्तमान में भी हम सूचना, प्रौद्योगिकी और विज्ञान के अलावा अन्य अनेक क्षेत्रों में तीव्रता से विकास के परिणामस्वरूप साल-दर-साल हैरत अंगेज़ उपलब्धियों और कालजयी प्रगति की इबारत लिख रहे हैं।

          इन मानसिक समस्याओं का स्थायी और अचूक समाधान हमारे मन में ही बसा है। लुहार के द्वारा निर्मित हथकड़ी और उसको तोड़ नहीं पाने की विवशता और नाकामी का अक्स किसी आईने की तरह साफ-साफ़ हममें परिलक्षित होता है। अपने जीवन की इन बेड़ियों को ही हम अपनी नियति मान बैठे हैं और घोर हताशा और निराशा के साथ जीवन बिता रहे है।


          सच्चाई तो यह है कि मानव जीवन की सारी समस्याएं यहीं से शुरू होती हैं। वास्तविकता यही है कि हथकड़ी कभी भी उसे बनाने वाले से अधिक मज़बूत नहीं हो सकती। जिस वस्तु को हम खुद बनाते हैं उसे हम तोड़ भी सकते हैं, बिगाड़ भी सकते हैं और पुनः निर्मित भी कर सकते हैं। हमें इस सत्य का अहसास होना चाहिये। इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि समस्यारूपी हथकड़ियों को तोड़ने में सबसे बड़ी बाधा, हमारा अपना मानसिक अवरोध (मेंटल ब्लॉक) ही है।  अवरोध विचार का होता है, कल्पना का होता है, सोच का होता है, नज़रिये का होता है और स्वयं द्वारा रचित उस मिथ्या संसार का होता है जहां हम खुद को समस्याओं के समक्ष अक्षम, पंगु, विवश और असफल मानते हैं।

          लिहाजा अपने जीवन की कठिनाइयों और मुसीबतों की बेड़ियों को तोड़ने के लिए हमें हठी के हद तक दृड़ निश्चयी  बनना होगा। बिना हठ किये हुए और बिना मन की दृढ़ता के जीवन से स्वयं के प्रति हीन भावना कभी नहीं जाएगी। जिस दिन हम यह ठान लेंगे कि हमें इन बेकार की बाधाओं से मुक्त होना है, ये कड़ियां धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ती जाएंगी और शीघ्र ही हम उसे आसानी से तोड़ उठ खड़े होंगे।

          तब देर किस बात की, साथियों उठ खड़े होओ, अपने को पहचानो, और विश्व को बता दो कि हम किसी की संतान हैं, हम किस के वंशज हैं। हम विश्व के पीछे नहीं उससे दो कदम आगे हैं।

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शुक्रवार, 11 अप्रैल 2025

क्षमा

 



महाभारत में द्रौपदी को एक उग्र, वीर और प्रतिशोधी महिला के रूप में दर्शाया गया है।  लेकिन श्रीमद्भागवतम् में द्रौपदी को अश्वत्थामा के प्रति, जिसने उसके पांच शिशु पुत्रों, "उप-पांडवों" की निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी थी, जो एक क्रूर और कायरतापूर्ण कृत्य था, के प्रति  बहुत दया और क्षमा रखने वाली नारी के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

          जब अश्वत्थामा ने पांच उप-पांडवों का नाश कर दिया, तब दुर्योधन भी दुखी हो गया था। उधर द्रौपदी ने कोई बदला लेने वाला शब्द नहीं कहा, बल्कि केवल रोई और दुख से अभिभूत हो गई। अर्जुन ने उसके दुख की गहराई को महसूस किया और उससे कहा कि वह अश्वत्थामा को मार देगा। अर्जुन और कृष्ण अश्वत्थामा का पीछा करते हैं, जिसने "ब्रह्मास्त्र" का प्रयोग किया हालांकि उसे इस अस्त्र के बारे में केवल आंशिक जानकारी है। अर्जुन को अपने ब्रह्मास्त्र मिसाइल से इसका मुकाबला करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप एक भयानक आग लग जाती है। कृष्ण के विचारों से सहमत होकर, अर्जुन दोनों मिसाइलों को वापस ले लेता है और द्रोण के बेटे को बंदी बना लेता है। कृष्ण अर्जुन से द्रौपदी को दिए गए वचन को पूरा करने के लिए अश्वत्थामा का सिर काटने का आग्रह करते हैं, लेकिन पांडव नायक सुझाव को अस्वीकार कर देता है और अश्वत्थामा को द्रौपदी के पास ले जाता है। यहाँ परिस्थिति बदल जाती है, अब जो होता है, उसे देखकर हम अवाक रह जाते हैं।

          अश्वत्थामा को उस अवस्था में - पशु की भाँति बँधा हुआ तथा अपने ही घृणित कृत्य पर लज्जित होकर सिर झुकाए हुए देखकर कुलीन पांचाली को दया आ गई। दौपदी  बंदी अश्वत्थामा, जो गुरु द्रोण का पुत्र था, को दण्डवत प्रणाम करती है। द्रोण के पुत्र को बंधुआ अवस्था में देखकर वह अत्यन्त व्याकुल होकर चिल्ला उठी, उसे छोड़ दो! उसे छोड़ दो! वह ब्राह्मण है तथा हमारे गुरु का पुत्र होने के कारण आदरणीय भी है। गुरु-पुत्र के रूप में, आप, स्वयं गुरु द्रोणाचार्य के सम्मुख खड़े  हैं.... मैं नहीं चाहती कि अश्वत्थामा की माता, द्रोण की पतिव्रता पत्नी, अपने पुत्र की मृत्यु के कारण मेरे समान आँसू-भरी हुई मुखाकृति बनाए।" अर्जुन अश्वत्थामा की शिखा और शिखा-मणि को काटने के बाद उसे छोड़ देते हैं।

          द्रौपदी की भावना की सुंदरता, कुलीनता और उदारता को देखिए, खासकर यह भावना कि अश्वत्थामा की माँ को वैसा दुःख न सहना पड़े जैसा उसे महसूस हो रहा है। यही है सच्चा परिष्कार और संस्कृति, न कि कला, कविता या संगीत।

          इसे कहते हैं क्षमा। जब अपराधी आपके सामने दयनीय अवस्था में हो, वह कुछ भी न करने की स्थिति में हो, आप उसके प्राण भी ले सकते हों और आप के प्रति उसने जघन्य अपराध किया है तब भी आप क्रोधित न हों, सही और गलत का भेद कर सकें, और इस अवस्था में भी जब आप उसे क्षमा करते हैं तभी क्षमा की शोभा है।

          शास्त्र कहते हैं - “क्षमा वीरस्य भूषणम”, यानि क्षमा वीरों का आभूषण है। गांधी ने भी कहा है – कमजोर व्यक्ति कभी क्षमा नहीं कर सकता। क्षमा करना शक्तिशाली व्यक्ति का गुण है।“ रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं - 

                    क्षमा शोभती उस भुजंग को,

                                                            जिसके पास गरल हो।

                              उसको क्या जो दंतहीन,

                                                            विषरहित विनीत सरल हो।

 

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