वैसे तो कोरोना-काल को अब
हम भूलने लगे हैं लेकिन उसकी खट्टी-मीठी यादें अभी भी हमारे जेहन में कैद हैं। उन्हें याद कर कभी आँखों में
आँसू तो कभी होठों पर मुस्कुराहट आ जाती है।
बहुतों ने दूसरों की चिता पर अपनी रोटियाँ सेंकी तो ऐसे लोग भी थे
जिन्होंने अपनी चिता जला कर दूसरों के लिये रोटियाँ सेकीं। किसी ने दूसरे का
निवाला छीना तो किसी ने अपना निवाला दूसरे के मुंह में डाला। ऐसी ही एक घटना है
जिसे याद कर आँखों में आँसू भी आते हैं और होठों पर मुस्कुराहट भी।
रात भर बेचैन रहा, करवटें ही बदलता रहा, नींद नहीं आई।
बड़ी मुश्किल से सुबह कुछ निवाले मुंह में डाल घर से अपने शोरूम के लिए निकला। आज
किसी के पेट पर पहली बार लात मारने जा रहा हूँ। यह बात अंदर ही अंदर कचोट रही थी। जिंदगी
में यही फलसफा रहा है मेरा, यही सीखा है अपने माँ-बाप से, कि अपने आस-पास किसी को रोटी के
लिए तरसना ना पड़े। पर इस विकट-काल में अपने पेट पर ही आन पड़ी थी। दो साल पहले ही
अपनी सारी जमा पूंजी लगाकर कपड़े का शोरूम खोला था, मगर
दुकान की बिक्री, अब आधी से भी कम हो गई थी। अपने शोरूम में
दो लड़के और दो लड़कियों को रखा था मैंने, ग्राहकों को कपड़े
दिखाने के लिए। महिला विभाग (लेडीज डिपार्टमेंट) की दोनों लड़कियों को निकाल नहीं
सकता। एक तो कपड़ों बिक्री इन्हीं की ज्यादा है। दूसरे वे दोनों बहुत गरीब हैं। दो
लड़कों में से एक पुराना है और वह घर में इकलौता कमाने वाला है। जो नया लड़का है दीपक, मैंने
विचार उसी पर किया है। शायद उसका एक भाई भी है, जो अच्छी जगह
नौकरी करता है। और वह खुद, तेजतर्रार और हँसमुख भी है। उसे
कहीं और भी काम मिलने की उम्मीद ज्यादा है। इन पांच महीनों में मैं बिलकुल टूट
चुका हूँ। स्थिति को देखते हुए एक कर्मचारी को कम करना मेरी मजबूरी है। इसी
उधेड़बुन में दुकान पहुंचा।
चारों आ चुके थे। मैंने
चारों को बुलाया और बड़ी मुश्किल से अपने आँसू को रोकता उदासी से कमजोर आवाज में बोल
पड़ा, “देखो दुकान की अभी की स्थिति तुम सब
को पता है, तुम लोग समझ रहे होगे कि मैं तुम सब को काम पर
नहीं रख सकता।”
उन
चारों के माथे पर चिन्ता की लकीरें मेरी बातों के साथ गहरी होती चली गई। मैंने
पानी से अपने गले को तर किया और आगे कहा, “मुझे किसी एक का हिसाब आज करना ही होगा। दीपक तुम्हें कहीं और काम
ढूंढना होगा।”
“जी अंकल”, उसने धीरे से कहा। उसे पहली बार इतना उदास देखा था। बाकियों के चेहरे पर भी
उदासी की छाप स्पष्ट नजर आ रही थी। एक लड़की जो शायद दीपक के मोहल्ले में ही रहती
है, कुछ कहते-कहते रुक गई।
“क्या बात है बेटी? तुम कुछ कह रही थी?”
“अंकल जी, इसके भाई का भी काम कुछ एक महीने पहले छूट गया है। इसकी मम्मी बीमार रहती
है,” अपने आँसुओं को बड़ी मुश्किल से रोकते हुए वह इतना ही बोल
पाई।
नज़र दीपक के चेहरे पर गई। उसकी आँखों में जिम्मेदारी के आँसू थे, जिसे वह अपने हँसमुख चेहरे से छुपा रहा था। मैं कुछ बोलता
कि तभी एक और दूसरी लड़की बोल पड़ी, “अंकल, बुरा ना माने तो एक बात बोलूं?”
“हाँ हाँ बोल ना।”
“किसी को निकालने से अच्छा है, आप हमारे सबों के पैसे कुछ कम कर दो।”
मैंने बाकियों को तरफ देखा।
“हाँ अंकल! हम कम में काम चला लेंगे।”
बच्चों ने मेरी परेशानी को आपस में बांटने का सोच मेरे मन के बोझ को कम कर
दिया था।
“पर तुम लोगों को ये कम तो नहीं पड़ेगा न?”
“नहीं अंकल! कोई साथी भूखा रहे ... इससे अच्छा है, हम सब अपना निवाला थोड़ा कम कर दें।’
मेरी आँख में आंसू छोड़ ये बच्चे अपने काम पर लग गये, मेरी नजर में मुझसे कहीं ज्यादा बड़े बनकर।
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