शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

आत्मविश्वास

 


   

          एक बुजुर्ग दंपत्ति बोस्टन स्टेशन पर ट्रेन से उतरे। महिला साधारण सूती वस्त्र पहने थी और पुरुष भी एक हाथ से बुने सूते का साधारण सूट पहन रखा था। दोनों ही एक साधारण दंपत्ति से दिख रहे थे जिस पर किसी का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ। यह लगभग 1880 का समय था।

          वे दोनों हार्वर्ड विश्वविद्यालय पहुंचे और दरवाजे पर ठिठक कर खड़े हो गए। वे बिना किसी पूर्व सूचना के वहाँ पहुंचे थे। इमारत एवं आस-पास नजर डाल मंथर गति से चलते हुए विश्वविद्यालय के अध्यक्ष के कार्यालय में गये। एक नजर में, बिना किसी विलंब के सचिव समझ गई या कि ऐसे साधारण गाँव-गंवार लोगों का हार्वर्ड में कोई काम नहीं है और शायद वे वहाँ  रहने के भी लायक नहीं हैं।

"हम राष्ट्रपति से मिलना चाहते हैं," उस वृद्ध व्यक्ति ने बड़ी कोमलता से कहा।

सचिव ने बिना एक पल गँवाए कहा, "लेकिन वे तो आज पूरे दिन व्यस्त हैं। वे नहीं मिल पाएंगे।"

इस बार महिला ने जवाब दिया, "हम इंतज़ार करेंगे।"

          कई घंटे व्यतीत हो गए। सचिव उन्हें अनदेखा करती रही इस उम्मीद से कि शायद दंपत्ति अंततः हतोत्साहित हो कर चले जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सचिव समझ गई कि ये टस-से-मस होने वाले नहीं हैं। तब थक कर सचिव ने अंततः अध्यक्ष को सूचित करने का फैसला लिया।

          सचिव अध्यक्ष के पास पहुंची पूरी बात बताई और अनुरोध किया कि अगर वे उन्हें थोड़ा समय दे दें तो वे चले जायेंगे, उसे नहीं लगता के वे ज्यादा देर रुकेंगे। सचिव की बात को समझते हुए एक लंबी सांस लेते हुए अनिच्छा से सिर हिलाकर सहमति दे दी। जाहिर है कि उनके जैसे किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के पास उनके साथ समय बिताने का समय नहीं था।  लेकिन साथ ही उसे यह ज्यादा बुरा लग रहा था उसकी ऑफिस के बाहर ऐसे लोग बैठे थे। जब तक वह जोड़ा हाथ जोड़े उनके कमरे में दाखिल हुआ तब तक अध्यक्ष पूरी तरह तने हुए चेहरे और गरिमा के साथ बैठ गए थे। उनके चेहरे पर झुंझलाहट साफ दिख रहा था।

          महिला ने मृदु स्वर में अपनी बात कही, "हमारा एक बेटा था जो एक वर्ष हार्वर्ड में पढ़ा था। उसे हार्वर्ड बहुत पसंद था। वह यहाँ खुश था। लेकिन लगभग एक साल पहले, दुर्भाग्यवश एक दुर्घटना में वह मारा गया। मैं और मेरे पति विश्वविद्यालय के कैंपस में कहीं उसकी याद में एक स्मारक बनवाना चाहते हैं।"

          अध्यक्ष को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। अपने आप को संयत करते हुए उन्होंने रूखे स्वर में कहा, "मैडम, हम हार्वर्ड में पढ़ने वाले और मरने वाले हर व्यक्ति की मूर्ति नहीं लगा सकते। अगर हम ऐसा करेंगे, तो यह जगह कब्रिस्तान जैसी दिखने लगेगी और .....।"

"ओह, नहीं," महिला ने बीच में ही टोका और तुरंत समझाया, "हम कोई मूर्ति नहीं लगाना चाहते हैं। हम हार्वर्ड को एक इमारत देना चाहेंगे।"

          अध्यक्ष की आँखें चौड़ी हो गई। उनकी पोशाक पर नजर डाल, उनकी हैसियत का जायजा लिया और एक तिरस्कार और व्यंगात्मक आवाज में कहा, "एक इमारत! क्या आपको पता है कि एक इमारत की कीमत कितनी है? हार्वर्ड में हमारे पास भौतिक इमारतों की कीमत साढ़े सात मिलियन डॉलर से ज़्यादा हैं।"

          एक क्षण के लिए महिला चुप हो गई, उन्हें साहस विश्वास नहीं हुआ। और दुबारा पूछा, “कितनी?

          अध्यक्ष प्रसन्न हुए, उन्हें लगा अब उनका उनसे छुटकारा मिल जाएगा और मुसकुराते हुआ कहा, “साढ़े सात मिलियन डॉलर।”

          महिला अपने पति की ओर मुड़ी और धीरे से बोली, "क्या विश्वविद्यालय खोलने में बस इतना ही खर्च आता है? क्यों न हम अपना खुद का विश्वविद्यालय खोल लें?" उसके पति ने स्वीकृति में सिर हिलाया।

          अध्यक्ष का चेहरा उलझन और घबराहट से मुरझा गया। इसके पहले कि वे कुछ कहते वृद्ध दंपत्ति हाथ जोड़ उठ खड़े हुए और निकल गए। 

          ये थे श्री और श्रीमती लेलैंड स्टैनफोर्ड। उन्होंने पालो ऑल्टो, कैलिफोर्निया की यात्रा की, जहाँ उन्होंने अपने बेटे के नाम पर विश्वविद्यालय की स्थापना की, स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय।

          हो सकता है कि इस घटना में कोई विशेष संदेश नज़र न आता हो, लेकिन यह समझने लायक है कि जीवन में चीजें कैसे घटित होती हैं। आत्म-विश्वास, दृढ़ निश्चय और पक्का इरादा एक महान शिक्षण संस्थान को जन्म देती है।

आपके चरित्र का अंदाजा इस बात से लगता है कि आप उनसे कैसा व्यवहार करते हैं जो  आपके लिये कुछ नहीं कर सकते।

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शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

फुटबॉल मैच

 


          कहानी और घटना, बहुत फर्क है दोनों में। जहां कहानी केवल कल्पना है घटना एक यथार्थ है। लेकिन सही अर्थों में क्या यह सत्य है। अनेक कहानियाँ ऐसी हैं जो घटना प्रतीत होती हैं तो कई घटनायें कपोल-कल्पना होने का आभास देती है। यह इस बात पर भी  निर्भर करता है कि कौन कह रहा है और कौन सुन रहा है। एक ही बात किसी के लिये घटना है तो किसी के लिए कहानी।

          ऐसी ही एक घटना एक माँ ने अपने बच्चे के लिये बताई। इस घटना के तीन ही साक्षी हैं – एक माँ खुद, दूसरे उसके पिता और तीसरी उस बच्चे की छोटी बहन जो इतनी छोटी है कि उसे यह समझ ही नहीं आई होगी। अतः इसका प्रमाण भी नहीं खोजा सकता है। खैर जो भी है उस माँ के ही शब्दों में मैं आपको बता रहा हूँ – आप ही बताइये कि यह कहानी मात्र है या घटना हो सकती है।   

          आज मेरे मुन्ने का पहला 'फुटबॉल' मैच था। शायद अपनी टीम में वह सबसे छोटा था। मात्र छह साल की उमर से ही मुन्ना काफी अच्छा फुटबॉल खेल लेता है। उसका मैच देखना का मेरा बड़ा मन था, पर मेरी छोटी बेटी को यह खेल बिलकुल पसन्द नहीं था, तो आखिरकार केवल मुन्ने के पापा ही जा सके।

          मैच के बाद, शाम को जब पिता-पुत्र घर लौटे तो मैं काफी उत्तेजित थी और पूछ बैठी, "मुन्ना, तेरा मैच  कैसा था? तू अच्छी तरह खेला न?"

          मुन्ने की आंखों में एक अलग ही रौनक थी। उसका चेहरा खुशी से लाल हो गया था। मेरा प्रश्न सुन कर ही वह मुझसे आकर लिपट गया। और बड़े उत्साह से बोला, "पता है माँ, मैंने एक 'गोल' दिया।"

          यह सुन कर मेरा दिल खुशी से पागल हो रहा था। तुरन्त मैंने फिर पूछा, "मुन्ना, मुझे पूरे विस्तार से बता। मुझे तेरी हर एक बात सुननी है।"

          तभी मुन्ने के पापा मेरे नजदीक आये, और शान्त और धीमी आवाज में बोले, "तुम्हारे मुन्ने ने एक 'सेल्फ गोल' दिया। मैं चकित रह गयी, ठगी सी बैठी रह गई। मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। मुन्ने से जरूर कोई गलती हो गयी होगी, जान-बूझ कर वह ऐसा कभी नहीं कर सकता। शायद गेंद गलती से मुन्ने को छूकर उसके ही गोल में घुस गयी होगी।

          मुझे शान्त और चिन्तित देख कर मुन्ना बोला, "मम्मा, आप खुश नहीं हो?" मैंने सच में एक गोल दिया। पता है, मेरे गोल के पहले हम ही जीत रहे थे, स्कोर था ३-२। फिर मैंने 'गोल' दिया और इसके बाद हम सब जीत गये।"

          मुन्ने के इन मासूम शब्दों ने मेरे दिल को छू लिया था। मेरी आँखों से अश्रु धारा फूट पड़ी। मैं उसे एकटक निहारती ही रह गयी और फिर अपने मुन्ने को बांहों में भर कर बोली, "हां मुन्ना, आज तूने सचमुच सब को जिता दिया!"

अब आप ही बताइये कि यह कहानी है या घटना!

          अगर कहानी है तो,

                              अपने बच्चों को ऐसे सु-संस्कृत कीजिये कि यह घटना बन जाये

          और अगर घटना है तो,

                              ऐसी घटनाएँ बार-बार, हर जगह दोहराई जाये   

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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

सूतांजली दिसम्बर 2024


 

स्वतंत्र विचारक वे लोग हैं जो बिना पक्षपात और पूर्वाग्रह के सोच सकते हैं और जिनमें उन चीजों को भी समझने का साहस होता है जिनकी

उनके अपने रीति-रिवाजों, विशेषाधिकारों के साथ टकराहट होती है।

सही चिंतन कर सकने के लिये यह बहुत आवश्यक है।

लियो टोल्स्तोय

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शुक्रवार, 22 नवंबर 2024

राष्ट्र के महानायक

  


रामायण और महाभारत के आख्यान केवल उन दो ग्रन्थों तक सीमित नहीं हैं। इनके पात्रों और आख्यानों के आधार पर अनगिनत रचनाएँ हुईं हैं और हो रही हैं। उनके माध्यम से साहित्यकारों ने अपनी बात जनमानस तक बड़ी  सुगमता से पहुंचाया। वैसे ही जनता ने भी उनके विचारों को आसानी से समझा और आत्मसात किया है। यह प्रसंग भगवान राम और शबरी का है। उनके संवाद के माध्यम से कितनी सहजता से अपनी बात स्पष्ट की गई है।

 

“कहो राम, शबरी की झोंपड़ी ढूंढने में अधिक कष्ट तो नहीं हुआ?

राम मुसकुराये, “यहाँ तो आना ही था माँ, कष्ट का क्या मोल...?”

“जानते हो राम, तुम्हारी प्रतीक्षा तब से कर रही हूँ जब तुम जन्मे भी नहीं थे। यह भी नहीं जानती थी कि तुम कौन हो? कैसे दिखते हो? क्यों आओगे मेरे पास? बस इतना ज्ञान था कि कोई पुरुषोत्तम आयेगा जो मेरी प्रतीक्षा का अंत करेगा।”

राम ने कहा, तभी तो मेरे जन्म के पूर्व ही तय हो चुका था कि राम को शबरी के आश्रम में जाना है।”

          एक बात बताऊँ प्रभु! भक्ति के दो भाव होते हैं। पहला मर्कट (बंदर) भाव, और दूसरा माजर (बिल्ली) भाव। बन्दर का बच्चा अपनी पूरी शक्ति लगाकर अपनी माँ का पेट पकड़े रहता है ताकि गिर न जाये। उसे सबसे अधिक भरोसा माँ पर ही होता है। यही भक्ति का भी एक भाव है। जिसमें भक्त अपने ईश्वर को पूरी शक्ति से पकड़े रहता है। पर मैंने यह भाव नहीं अपनाया। मैं तो उस बिल्ली के बच्चे की भाँति थी जो अपनी माँ को पकड़ता ही नहीं, बल्कि निश्चिन्त बैठा रहता है कि माँ स्वयं ही उसकी रक्षा करेगी, और माँ सचमुच उसे अपने मुंह में टांग कर घूमती है। मैं भी निश्चिन्त थी कि तुम आओगे ही, तुम्हें क्या पकड़ना।”

          राम मुसकुरा कर रह गये।

          भीलनी ने पुनः कहा, सोच रही हूँ बुराई में भी तनिक अच्छाई छिपी होती है न। कहाँ सुदूर उत्तर के तुम और कहाँ दक्षिण में मैं, तुम प्रतिष्ठित रघुकुल के भविष्य और मैं वन की भीलनी, यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो तुम क्यों आते यहाँ?

 

          राम गम्भीर हुए, कहा, भ्रम में न पड़ो माँ। राम क्या रावण का वध करने आया है? अरे रावण का वध तो लक्ष्मण अपने पैर से बाण चला कर कर सकता है। राम हजारों कोस चल कर इस गहन वन में आया है तो केवल तुमसे मिलने आया है माँ, ताकि हजारों वर्षों बाद जब कोई भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने गढ़ा था। जब कोई भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो काल उसका गला पकड़ कर कहे कि नहीं, यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है जहाँ एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक दरिद्र वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है। राम वन में बस इसलिए आया है ताकि जब युगों का इतिहास लिखा जाये तो उसमें अंकित हो कि सत्ता जब पैदल चल कर समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे तभी वह रामराज्य है। राम वन में इसलिये आया है ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतीक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं। राम रावण को मारने भर के लिए नहीं आया माँ।

           शबरी एकटक राम को निहारती रहीं।

           राम ने फिर कहा, राम निकला है ताकि विश्व को बता सके कि माँ की अवांछनीय इच्छाओं को भी पूरा करना ही राम होना है। राम निकला है कि ताकि भारत को सोच दे सके कि किसी सीता के अपमान का दण्ड असभ्य रावण के पूरे साम्राज्य के विध्वंस से पूरा होता है। राम आया है ताकि युगों को सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी  समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाये और खर-दूषण का घमंड तोड़ा जाये। राम आया है ताकि युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि वन में बैठी शबरी के आशीर्वाद से जीते जाते हैं। राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता, राम की यात्रा प्रारंभ हुई है भविष्य के लिये आदर्श की स्थापना के लिये। राम आया है ताकि भारत को बता सके कि अन्याय का अंत करना ही धर्म है।

     

शबरी की आँखों में जल भर आया था, उसने बात बदलकर कहा, “बेर खाओगे राम?”

          राम मुस्कुराये, बिना खाये जाऊंगा भी नहीं माँ।

          शबरी अपनी कुटिया से बेंत की टोकरी में बेर ले कर आई और राम के समक्ष रख दिया। राम और लक्ष्मण खाने लगे तो पूछा, “मीठे हैं न प्रभु!”  

          यहाँ आकर मीठे और खट्टे का भेद भूल गया हूँ माँ, बस इतना समझ रहा हूँ कि यहाँ अमृत है। शबरी मुसकुराई, बोली, “सचमुच तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो राम, भारत राष्ट्र के महानायक!”

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शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

कहाँ गया वो भाईचारा?


 

बचपन में किये हुए ट्रेन के सफर कभी-कभी बहुत याद आते हैं। ट्रेन में सफर का मतलब होता था, आज का स्लीपर क्लास। न इतनी सुविधा थी और न ही ऐसे ऐशो-आराम। बिस्तर के अलावा रास्ते में खाने की पूरी सामग्री और पीने का पानी भी साथ लेकर ही चलते थे। आईआरसीटीसी, केटरिंग, ऑन-लाइन ऑर्डर (IRCTC, catering, online order) आदि जैसी कोई सुविधा नहीं थी, और-तो-और पानी की बोतलें भी नहीं मिलती थीं। लंबे सफर में कई बार प्लेटफॉर्म पर ही मंजन-ब्रश ही नहीं, स्नान किया हुआ भी याद है। साथ-साथ सफर करने वालों से अनेक बातें होतीं, खाना आपस में बंटता और कई बार तो अच्छी-ख़ासी दोस्ती और परिचय हो जाता जो  वर्षों तक चलता। हमसफर पर हमें पूरा भरोसा और विश्वास होता। आज की तरह नहीं कि एक-दूसरे का खाना नहीं लेते-देते। शंका से देखते हैं कि पता नहीं क्या होगा, क्या मिलाया होगा? पूरी इंसानियत और भाई-चारे के साथ पूरा सफर तय होता।

          यह वह वक्त था जब हम सभी ज़्यादातर ट्रेन में ही सफर करते थे। हवाई सफर बहुत महंगा था और सिर्फ अमीर और बड़े लोगों को ही नसीब था। हम लोगों का कोलकाता से इलाहाबाद जाने की कार्यक्रम बना, त्रिवेणी संगम में स्नान करने के लिये। हमारे माता-पिता, हमारे दो भाई और एक बहन। मेरी उम्र शायद उस वक्त 12 साल की रही होगी। डिब्बे में ज़्यादा भीड़ नहीं थी, एक मंडली थी जो शादी के बाद दूल्हे-दुल्हन  के साथ जा रही थी। सभी गाड़ी में बैठते ही नाश्ता पानी करने और कराने में लग गये थे। वो नाश्ता हम लोगों के पास भी भेजा गया लेकिन पापा ने “भैया हम भी खाना लाये हैं खराब हो जायेगा”, कह कर मना कर दिया। धीरे-धीरे लगा हम सब भी उसी बारात का हिस्सा बन गये हैं बिना किसी आमंत्रण के। तब भाईचारा दिलों में ज़्यादा था, कौन क्या है कैसा है ये आंकड़े नहीं लगाये जाते थे। वैसे भी एक साथ सफ़र करने वाले सब हमसफर से बन जाते थे – सोच-सोच का फर्क है, कभी जोड़ता है कभी तोड़ता है।

          गाड़ी हमारी हावड़ा  से चलकर रास्ते में बखतियारपुर में भी रुकती थी। माँ पूरी-सब्जी लेकर आयी ही थी, हम लोगों ने खाना शुरू किया। बखतियारपुर से हमारी ट्रेन आगे बढ़ने लगी तभी एक बूढ़ी माई जो पैसा मांगने वाली फ़कीर थी, चुपचाप हर सीट के पास जाकर कुछ मांग रही थी। कोई मना कर देता था तो आगे बढ़ जाती थी कोई कुछ दे देता तो सुखी रहो कह कर आगे बढ़ जाती। वो हमारी सीट के पास भी आयीं तो माँ ने उनको कुछ पूरी और सब्जी खाने को दे दी, तो उन्होंने चैन से वहां बैठकर खाई और माँ को बहुत सारी दुआएं भी दीं, हमारे पास पानी भी था। उस समय मिट्टी की सुराही लेकर हम लोग चलते थे, पानी ठंडा हो जाता था। माँ ने पीतल के गिलास में माई को पानी दिया जिसे उन्होंने अपने लोटे में डाल के पी लिया। वो, हमारी सीट से लग कर बैठ गयी थी, माँ से बोली - बिटिया हम अगले स्टेशन पे उतर जे हैं और फिर पूछा बिटिया कहां जा रही हो?’ माँ ने उन्हें बताया कि हम लोग इलाहाबाद जाएंगे त्रिवेणी, गंगा स्नान करने। तो बूढ़ी माई बहुत खुश हो गयी। अच्छा-अच्छा गंगा मैया के पास। भगवान भला करे। कहते-कहते वो उठीं और आगे बढ़ गयीं। थोड़ी देर बाद वह वापस हमारे पास आयी और उन्होंने जितने पैसे लोगों से पाये थे उनको कागज़ की पुड़िया में लपेट कर माँ को दिया और बोलीं,  बिटिया त्रिवेणी में जब जाओ तो गंगा मैया को दे दियो और कह दियो सरस्वती ने भेजो है। बिटिया हम तो कभी जा ना पाएंगे हमें कौन लेकर जा है। हम तो अकेले हैं ऐसे ही चलत-फिरत ट्रेन मेंई मर जे हैं। हम तो ना पहुंच पाएंगे गंगा मैया तक, तो बिटिया तुम हमाई तरफ से उनखों जे भेंट पहुंचा दियो और  प्रसाद लेकर के चढ़ा दैयो।  माँ ने उनको पैसे लौटा दिये, उनसे कहा,  नहीं नहीं अम्मा हम चढ़ा देंगे प्रसाद और कह देंगे कि सरस्वती ने भेजा है प्रसाद। माई फ़कीर तो थीं लेकिन स्वाभिमानी थी बोली,  नहीं-नहीं बिटिया ऐसे तो पाप पड़ जाएगो, सरस्वती ने पैसा नई भेजो, गंगा मैया को तुरंत पता चल जे है। बिटिया हम झूठे बन जे हैं। बिटिया देखो तुम जे पैसा ले लो। इनको प्रसाद ले के  गंगा मैया को भेंट करियो और तब बोल दियो कि सरस्वती ने भेजो है, पांव हम अबै पड़ ले रए। बूढ़ी माई ने सर पे पल्लू ठीक करके हाथ में पल्लू का छोर पकड़ के ज़मीन को तीन बार सर रख के नमन किया। माँ की आंखों में आंसू आ चुके थे उन्होंने बूढ़ी माई की दी हुई पैसों की पुड़िया को अपने बटुए में अच्छे से रख लिया और बोली कि हां-हां माँजी हम ज़रूर गंगा मैया तक पहुंचा देंगे। प्रसाद भी चढ़ा देंगे और बोल भी देंगे कि सरस्वती ने भेजा है। बूढ़ी माई रोने लगी,  हां हां बिटिया आज तो भाग खुल गये हमाये। हम सोचेंगे कि हमने त्रिवेणी नहा लई। भगवान भला करे तुम्हार बिटिया सदा सुहागन रहो। अगले स्टेशन पर वह माँ के पांव छू, उतर गयीं।



          माँ खिड़की से हाथ निकाल कर उनको आवाज़ दे रही थी कि चिंता ना करना माँजी हम ज़रूर प्रसाद चढ़ा देंगे। माई ने चलती गाड़ी से माँ के हाथ छूते हुए कहा, सरस्वती-सरस्वती। बिटिया नाम ना भूल जाना, उनको बोल देना सरस्वती ने भेजो है। चलती ट्रेन से उनका हाथ छूट गया था।

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शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

सूतांजली नवंबर 2024


 


मानवता में कुछ गिने चुने, थोड़े से व्यक्ति

शुद्ध सोने में बदलने

के लिए तैयार हैं और

ये बिना हिंसा के शक्ति को,

बिना विनाश के वीरता को और

बिना विध्वंस के साहस को

अभिव्यक्त कर सकेंगे। 

श्री मां 

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शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2024

क्या कभी भगवान् से मिलने का कार्यक्रम बनाया?


           

हाँ, बनाया है न, पिछले साल बद्रीनाथ और केदारनाथ हो आये। उसके पहले बनारस काशी विश्वनाथ जी गये थे और अभी-अभी अयोध्या घूम आए हैं। बारह ज्योतिर्लिंग में दस कर लिये हैं बाकी दो भी जाएंगे। जगन्नाथ पूरी, द्वारका .......। न...न...न...न... आप गलत समझ रहे हैं, मैं मंदिर और तीर्थ में जाने की बात नहीं कर रहा। मैं ने तो सिर्फ पूछा है - भगवान से मिलने का कार्यक्रम? जैसे आप बैंक नहीं बैंक मैनेजर से मिलने जाते हैं, दिल्ली नहीं उद्योग मंत्री से मिलने जाते हैं। आप तो तीर्थाटन के बहाने घूमने जाने की बातें बता रहे हैं। भगवान से मिलने का कार्यक्रम तो सिर्फ वही बना सकते हैं जिनका हृदय अत्यंत निर्मल होता है। अब देखिये एक छोटे से बच्चे ने कैसे भगवान से मिलने का कार्यक्रम बनाया और उनसे मिलने पूरी तैयारी के साथ निकल पड़ा। देखें क्या हुआ उसके साथ?

          छोटा सा नरेन, मात्र छह साल का, लेकिन उसकी योजनाएँ बड़ों के जैसी हुआ करती थीं। घर, बाहर बात-बात पर लोग भगवान् की दुहाई दिया करते थे, माँ ने तो उससे कई बार कहा भी था कि भगवान् को ढूँढ़ने कोई स्वर्ग तक थोड़े ही जाना होता है, वे हमारे बहुत पास होते हैं, कहीं भी मिल सकते हैं। एक बार तो यह भी कहा था कि सबके अन्दर भगवान् रहते हैं, ज़रा अन्दर झाँको, मिल जायेंगे। लेकिन नरेन को यह विचार बहुत पसन्द न आया, अपने अंदर! कहाँ झाँके, कैसे झाँके? तो एक दिन उसने उन्हें अपने मोहल्ले में ही ढूँढ़ने की ठान ली। 'शुभस्य शीघ्रम्'- उसी दिन नरेन ने अपना छोटा थैला उठाया,  पावरोटी ली, सूखा मेवा रखा और कुछ फल भी डाल लिये - अगर मोहल्ले से कुछ दूर निकलना पड़े तो? सोच कर नरेन ने खाना-पीना संग रख लिया। जूते-मोजे पहन, टोपी लगा, अपना थैला कन्धे पर टाँग, वह माँ के पास आया तो वे उसे निहराती ही रह गयीं। “माँ, मैं ज़रा भगवान् से मिल कर आया। सवेरे-सवेरे तो कहीं आस-पास ही मिल जायेंगे।"

          माँ ने उसे गोदी में उठा कर चूमते हुए हिदायत दी, “वाह मेरे छोटे कोलम्बस! लेकिन कहीं दूर न निकल जाना, आस-पास ही रहना, ठीक है?"

नरेन ने हामी भर ली, “ठीक है माँ, आज नहीं मिले तो कल तुम्हारे साथ दूर जाकर खोजूंगा।” माँ ने बेटे की बलैयाँ लीं और वह नन्हा कोलम्बस अपने अभियान पर निकल पड़ा।

          दस मिनट की पैदल यात्रा तय कर वह अपने घर से तीन सड़क दूर पार्क के सामने आ पहुँचा। नरेन को भूख और प्यास सताने लगीं। “कुछ खा-पीकर आगे बढ़ूँगा।" सोच कर वह पास ही बेंच पर सुस्ताने के लिए बैठ गया। थैला खोला, पावरोटी निकाल कर पहला कौर लेने ही वाला था कि उसकी नज़र सामने की बेंच पर बैठी ग़रीब वृद्धा पर चली गयी। दोनों एक-दूसरे की तरफ़ देख कर अनायास मुस्कुरा उठे। नरेन अपना सामान उठा उसी के पास जाकर बैठ गया, उसे पावरोटी दी। स्त्री ने कृतज्ञता भरी आँखों से ले ली और ऐसी सुन्दर मुस्कान बिखेरी कि नरेन मुग्ध हो गया। दोनों चुपचाप खाते रहे। पावरोटी के बाद सूखा मेवा, फल इत्यादि बारी-बारी से निकले और बालक और वृद्धा दोनों आत्म-सन्तोष से भरे हुए धीमे-धीमे खाते रहे। दोनों के बीच बातचीत नहीं के बराबर हुई, केवल मुस्कानों के दौर ही चलते रहे। धीरे-धीरे सारा खाना खत्म हो गया। भरे पेट का सन्तोष दोनों के चेहरों पर खिल उठा। दोपहर का सूरज चढ़ रहा था। नरेन को अचानक महसूस हुआ कि माँ को न देखे काफ़ी समय गुज़र गया है, उसे माँ की याद सताने लगी। वह उठा, दोनों ने अभिवादन किया और नरेन घर की ओर बढ़ चला। चार क़दम चलने के बाद पलट कर उसने वृद्धा को देखा, और उसके चेहरे पर छायी अपूर्व मुस्कान से नरेन गदगद हो उठा, दौड़ कर वृद्धा से जा लिपटा और दोनों चुपचाप कुछ क्षणों तक उसी तरह आलिंगनबद्ध रहे। न नरेन को कुछ कहने की ज़रूरत जान पड़ी, न वृद्धा को, बस दोनों की आँखों की चमक ही आपस में बोली रही थीं।

          खुशी से झूमता नरेन घर पहुँचा। माँ ने पूछा, “वाह बेटे कोलम्बस, कुछ हाथ लग गया क्या?...।" बच्चे ने माँ को बोलने नहीं दिया बीच में ही उसकी बात काटते हुए बोल पड़ा, अरे सुनो तो माँ, मुझे भगवान् मिल गये। अभी-अभी मैं उन्हीं के साथ ही नाश्ता करके आ रहा हूँ। वे एक बूढ़ी, ग़रीब स्त्री बन कर मुझसे मिलने, पार्क में आकर बैठ गये थे। तुम्हीं तो कहा करती हो न कि वे कोई भी रूप ले सकते हैं।" नरेन बोलता गया, “अब पूछोगी, कैसे पहचाना मैंने उन्हें? माँ, पहचाना उनकी मुस्कान से, हम आपस में कुछ बोले तो नहीं लेकिन वे बार-बार मुझे देख मुस्कुरा रही थीं, जब-जब मुस्कुरातीं, चारों तरफ़ एक रौशनी फैलती जाती...। माँ, भगवान् से ही मिला न मैं?" बच्चे ने माँ से अपनी बात की पुष्टि करवानी चाही। माँ ने उसे अपने सीने से लगा कर कहा, “बिलकुल बेटा, उन्हीं से मिल कर, उन्हीं के साथ नाश्ता करके आये हो तुम।" फिर धीरे से उसके कान में फुसफुसाया- "बेटे, अब राज़ की यह बात गाँठ बाँध लो कि भगवान् अपनी इस दुनिया से इतना प्यार करते हैं कि सचमुच वे यहीं बस गये हैं और उन्हें देखने और अनुभव करने के लिए बस हमें अपनी इन आँखों को सजग रखना और अपने हृदय को पूरी तरह से खुला रखना होता है।"

       उधर वह वृद्धा जब अपने घर पहुँची तो उसका बेटा उसे देख ठगा सा खड़ा रह गया- "माँ, क्या बात है, हमेशा परेशानी और दुःख से लटका तुम्हारा चेहरा आज अपूर्व कान्ति और शान्ति से दमक कैसे रहा है? कितनी सुन्दर लग रही हो आज तुम।"

          वृद्धा अपने पुत्र का हाथ थाम ख़ुशी से चहक उठी, "पता है बेटे, आज सचमुच मैं भगवान् के साथ नाश्ता करके आ रही हूँ। जीवन में ऐसी ख़ुशी मुझे पहली बार मिली।" माँ ने अपनी बात जारी रखी, “पार्क की बेंच पर मेरे साथ आकर बैठ गया था वह। हाँ, मैंने जितना सोचा था इससे कहीं ज़्यादा छोटा निकला ईश्वर। कितनी सरलता से बच्चे के रूप में आया, मेरे पास बैठ कर, नाश्ता कर चला गया!"

          जब आप भगवान से मिलने जाते हैं तब आपके आँखों के सामने केवल भगवान होते हैं, मंदिर नहीं। आँखें केवल उन्हें ही ढूंढती है, उनके अलावा और कुछ नहीं। और समाने आते ही उसे तुरंत पहचान लेते हैं।

-वन्दना (अग्निशिखा)

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