शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

कायरता, वीरता या बहादुरी

 

          यह क्या हो गया हमें, हमें समझना चाहिए और धैर्य से काम लेना चाहिए। कानून को अपने हाथ में लेकर कानून की ताकत और प्रशासन के हाथों को कमजोर नहीं करना चाहिए। हमें वही करना चाहिए जो हम देखते आए हैं। अपने बच्चों को भी वही सिखाना है ताकि यह परंपरा कायम रहे, और हम सुरक्षित रहें। हमें पड़ोसियों और अंजान व्यक्तियों को बचाने के लिए अपने-आप को जोखिम में नहीं डालना चाहिए। हमें उनसे क्या मतलब, यहाँ यह भूल जाना चाहिए कि हम भी किसी के पड़ोसी हैं। ऐसे काम पुलिस के भरोसे ही छोड़ना चाहिए भले ही हम यह जानते हों कि पुलिस कुछ नहीं करेगी।  हाँ, हाथ पर हाथ धरे रखने से भी कुछ नहीं होगा। अतः हमें तो बस शांति से आंदोलन करना, सभा करना, जुलूस निकालना, बस यहीं  तक ही अपने को सीमित रखना चाहिए। बहुत हुआ सामाजिक संस्थाओं में, कॉलोनी और कॉम्प्लेक्स में सभा कर प्रस्ताव पारित करना चाहिए और नजदीक के थाने में उसकी एक प्रति भेजनी चाहिए।

          अभी कुछ दिन पहले अखबार में एक खबर पढ़ी जिसके सदमे से मैं अभी तक उबर नहीं पाया हूँ। दिल्ली के अखबार में एक खबर छपी। जिसका मजमून कुछ इस प्रकार का था -  

          दिल्ली के पश्चिम विहार इलाके में श्वेता शर्मा ने मोटर साइकिल के सवार को, जिसने उसकी सोने की चेन छीनने की कोशिश की, बहादुरी से धक्का दे कर गिरा दिया। और त्रासदी देखिये, आस-पास खड़े लोगों ने भी उसे पकड़ लिया और पुलिस के हवाले कर दिया।  इसी प्रकार दीपक दुआ ने रात 10.30 बजे मोडेल टाउन में एक 6 वर्ष की बच्ची को, एक संदिग्ध व्यक्ति द्वारा, अपहरण होने से बचा लिया। अवंतिका मित्तल ने देखा कि एक गाड़ी ने धक्का मार कर किसी राहगीर को बुरी तरह आहत कर दिया है उसने तुरंत एम्ब्युलेन्स को फोन किया, और धैर्य न रखते हुए एम्ब्युलेन्स के आने में देरी होते देख अवंतिका ने अपनी गाड़ी से,  पुलिस की कार्यवाही की चिंता न करते हुए उसे अस्पताल पहुंचाया। आस-पास खड़े लोगों ने समझ से काम लेते हुए उसका साथ नहीं दिया।  इनके अलावा तोशान्त मिलिंद ने जनकपुरी में फोन छीन कर भागते आदमी को पकड़ा। इसी प्रकार छोटे लाल, ऋषि कुमार, मनोज कुमार, रानी तामाङ, विनय सिंह सजवान, सुब्रता समानता, सुभम कुमार, उमेश कुमार आदि की भी ऐसी ही घटनाएँ हैं।

          यह तो एक शहर की ही है। अगर देश भर की ऐसी खबरें इकट्ठी की जाएँ तो अंदाज़ लगाएँ कितनी घटनाएँ जमा हो जाएंगी?

          दशकों पहले जब एक समुदाय के मुट्ठी भर लोग दूसरे समुदाय के मोहल्ले में जाकर तोड़-फोड़, आगजनी और लूट-पाट कर रहे थे, यही नहीं घरों में घुस कर महिलाओं को खींच-खींच कर सड़क पर लाकर उन्हें सरेआम जलील कर रहे थे और जाते समय कइयों को उठा कर भी ले गए तो तब भी हमलोग प्रतिवाद करने की हिम्मत नहीं कर सके। पुलिस और बाहरी सहायता का मुंह जोहते रहे। बाद में जब एक अहिंसा के पुजारी को इसकी खबर मिली तो दूसरे दिन उसने अपने अखबार में छापा कि अहिंसा को अपनाने के बजाय अगर वे आक्रमणकारियों को पकड़ कर वहीं मार डालते तो उन्हें ज्यादा खुशी होती।  पुजारी के साथियों ने इस खबर के लिए उनकी निंदा की और अपने इस सुझाव को वापस लेने का अनुरोध किया क्योंकि इससे दंगा भड़काने की गुंजाइश थी। लेकिन उन्होंने दूसरे दिन अपने साथियों की मुलाक़ात की चर्चा करते हुए फिर से छापा कि

वे अपने फैसले पर अडिग हैं। अहिंसा बहादुरों का हथियार है, बुज़दिलों का नहीं। ऐसी अवस्था में मैं हिंसा को अपना समर्थन दूँगा। यह अहिंसा नहीं कायरता है। वह कौम जो अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकती उसका यही हाल होना है। जो कौम कायर होती है उसका नमो निशान मिट जाता है

          कथा तो पूरी हो गई, लेकिन इसका सार क्या निकला?

अहिंसा के आवरण में अपनी कायरता को ढँकना? या, बहादुरों के रूप में सामना करना और अहिंसा की खुशबू फैलाना?

          आप क्या पसंद करेंगे? चुनाव आपको करना है।

          बहादुरों के रूप में अहिंसा की खुशबू फैलाना अच्छा है, लेकिन अत्याचार को सहने  वाला अत्याचार करने वाले से बड़ा दोषी है। अत्याचार कभी न सहें। 

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मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

आओ दीपक जलाएं

 दीपावली की शुभ कामनाओं के साथ आपको आमंत्रण है


          बहुत पुरानी बात है, वही अंधेरे वाली बात जिसमें कहा गया था कि दिवाली की रात में सब तरफ दीये जल रहे हैं, तुम भी एक दिया जलाओ। मैं हाथ में दीया लिए खड़ा था, लेकिन कहीं रखने की जगह नहीं थी। फिर ध्यान आया, हृदय के भीतर कहीं अंधेरा है, वहां उजाला करना बाकी है। वहीं रखता हूं अपने हाथ का दीया...

          आज सोच रहा हूं उस दिन परेशानी अंधेरा मिटाने की थी या उजाला करने की? क्या ज़्यादा महत्वपूर्ण था तब, अंधेरा मिटाना या उजाला करना? अंधेरा हटेगा तभी तो उजाला होगा। अर्थात अंधेरा हटे बिना उजाला नहीं हो सकता और उजाला होगा तो अंधेरा हटेगा ही।

          बात एक ही है, फिर भी अंतर है दोनों में। अंधेरा हटाने का मतलब गलत को सही करना और उजाला करने का मतलब सही को समझना, स्वीकारना। यह समझ या स्वीकार तभी सम्भव हो पाता है जब हम बाहर के उजाले के साथ-साथ भीतर कहीं उजाला करने की आवश्यकता को भी महसूस करें। जब भीतर उजाला करने की बात हो तो आवश्यकता उस सकारात्मकता की होती है जो जीवन में सार्थकता का अहसास कराती है। प्रकाश का अभाव अंधेरा नहीं है। अंधेरा वह अवस्था है जब हमें कुछ सूझता नहीं है। जब हम सही और उचित के पक्ष में खड़े नहीं हो पाते। जब हम गलत को गलत कहने से डरते हैं। असहाय बन कर अनुचित को स्वीकार कर लेते हैं, सह लेते हैं। घोर अंधेरे की अवस्था है यह।

          अब, जब घोर अंधेरा है तब दीपक रखने की जगह क्यों नहीं हैं? है, लेकिन दिख नहीं रही।

एक बार वैदिक काल से अब तक के भारतीय चिंतन के इतिहास पर दृष्टि डालें तब यह विदित होगा कि यहाँ विचारधाराओं का विकास उन के द्वारा किया गया है जिन्होंने अपने जीवन में साधना का और दूसरों की स्वार्थ रहित सहायता का मार्ग अपनाया था। समाज, देश और संसार की समस्याओं को सुलझाने के लिये हमारे इर्द-गिर्द विचारों और सुझावों का अंबार लगा है। लेकिन फिर भी समस्याएं सुलझने के बदले बढ़ती ही जा रही हैं क्योंकि उनमें प्रायः ही अहंकार, पक्षपात, अज्ञान और स्वार्थ किसी-न-किसी रूप में छिपा रहता है।

          अतः आपको अपने संकुचित दृष्टि और उसके पूर्वाग्रहों से मुक्त होने का प्रयास करना होगा।  इसका सबसे सरल उपाय है कि अपनी आय का एक प्रतिशत समाज को दें, समय का भी एक प्रतिशत। धन देना आसान है लेकिन समय नहीं। अगर समय नहीं देते तब, दिये हुए धन का सदुपयोग नहीं होता, दुराचारी के हाथ में पड़ कर दुरुपयोग ही होता है। अनेक, अपने समय की प्रतिष्ठित, समाजसेवी संस्थाएं बर्बाद हो गईं हैं। अथर्ववेद में कहा गया है शतहस्त समाहर, सहस्रहस्त संकिरसौ हाथों से जोड़ो और हज़ार हाथों से बिखेरो। एक प्रतिशत, यानि सप्ताह में लगभग दो घंटे। इतना समय और कुछ पैसे लेकर आप समान विचार वाले  कुछ मित्रों के साथ घर से बाहर निकलकर देखिए। आपको अपने आप दिखने लगेगा कि समाज में क्या-क्या किया जा सकता है, दीपक कहाँ रखा जा सकता है।

          यदि आप किसी भी पेशे यथा स्वास्थ्य, कानून, तकनीक, हिसाब-किताब आदि से जुड़े हैं तब तो आपके पास अथाह संभावनाएं हैं।  याद रखें दीपक रखने के लिए केवल गरीब का झोपड़ा नहीं हैं। वंचित, असहाय, लाचार, परेशान लोगों के पास भी दीपक रखने की जगह मिल जाएगी। धनवानों की चमकती कोठियों के इर्द-गिर्द भी घोर अंधेरा है।

          पड़ोस में वाचनालय (library) प्रांरभ करना, बेकार पड़ीं फटती पुस्तकों को उसके पाठकों तक पहुंचाना, निःशुल्क विद्या-दान देना, किसी गरीब, असहाय बुजुर्ग  की इलाज के लिए उसे हॉस्पिटल, डॉक्टर, परीक्षण केंद्र  तक ले जाने और लाना ... कहीं से एक कोना पकड़िये  और फिर ... काम बहुत हैं। लेकिन केवल तभी संभव है जब स्वार्थ रहित होकर काम कर रहे होंगे। आप समझेंगे कि आपका जीवन एक विशालतम चेतना के महासागर में एक लहर मात्र है। वास्तव में सतही जीवन की दौड़‌-भाग में लगे हुए व्यक्ति के अंदर जीवन को समझने के लिये  अवकाश नहीं होता। बाधा हर काम में है, लेकिन उसका हल भी है।

          और जब समाज के लिए कुछ करें तो किसी-पर-किसी भी प्रकार के अहसान की भावना से नहीं, वैसा करने से आप एक सीमित क्षुद्र दृष्टि से घिर जाएँगे। उस काम को अपनी वैयक्तिक साधना के रूप में लीजिए। मानो विश्व एक आश्रम हो और वहाँ आपको साधना करने का काम दिया गया है

          आप एक प्रतिशत से प्रारंभ कीजिए। धीरे-धीरे आप पायेंगे कि आप समाज के लिये और अधिक करना चाहते हैं क्योंकि केवल वही काम, जो आप दूसरों के लिए करते हैं, आपको वह सब देगा जिसके लिए आप अपनी जिंदगी खपाते रहते हैं - सच्चा सुख, शांति और आत्मिक प्रसन्नता।

          आप यह समझ नहीं पाएंगे कि अपने हाथ के दीपक को कहाँ-कहाँ रखूँ? जगह नहीं,  दीपक कम पड़ जाएंगे।

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रविवार, 21 सितंबर 2025

हम कहाँ खड़े हैं?


          

हम भारतीय बिना जाने समझे अपने आप पर बहुत गर्व करते हैं, अभिमान और घमंड की हद तक। न हमने विश्व भ्रमण किया और न ही हम कुछ पढ़े, व्हाट्सअप्प-फेसबूक आदि के अलावा। हाँ यह सही है कि अनेक बातों में, रहन-सहन में, सोच-विचार में हमारी श्रेष्ठता है, लेकिन उसे बनाए रखना और उसे नित नई ऊंचाइयों पर पहुंचाना  हमारा ही उत्तरदायित्व है। हम “सनातन” कहने और जानने से नहीं बल्कि वैसा होने से हैं। पॉण्डिचेरी की श्री माँ ने कहा भी है –

                              जानना अच्छा है,

                                        समझना बेहतर है,

                                                  लेकिन होना सर्वोत्तम है। 

दुनिया बड़ी तेजी से प्रगति कर रही है और हम उसके साथ कदम मिला कर नहीं चल रहे हैं।  मैथिली शरण गुप्त ने दशकों पहले लिखा था –

हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी

आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएँ सभी।

          हिन्दी के साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने दुनिया का सफर किया, हिंदुस्तान में भी अनेक विदेशियों के संपर्क में रहे। उनके संस्मरण चौंकने वाले हैं और एक नई खिड़की खोलते हैं। एक बार रूस की यात्रा के दौरान रूसी भाषा से अंजान उनका परिचय वहाँ की एक दुभाषिया वेरोनिका से हुआ और जल्द ही वे आपस में घुल-मिल गए। वे बताते हैं कि  एक दिन बातों-ही-बातों में चर्चा उसके परिवार पर पहुँच गई। उसने बताया कि उसके पिता द्वितीय महायुद्ध में मारे गए थे। माँ, भाई-बहनों का परिवार चलाती है, क्योंकि उन्होंने अभी शादी नहीं की।

          "आपकी माँ ने शादी नहीं की?" पूछने पर एक क्षण के लिए जैसे वह गंभीर हो उठी और बताया, "मेरी माँ मुझसे बहुत ज़्यादा सुंदर है। बहुत बुद्धिमान और चतुर है। उनके लिए दूसरा पति पाना बहुत आसान था, परंतु फिर भी उन्होंने शादी नहीं की।"

"लेकिन क्यों?" विष्णुजी की जिज्ञासा चरम सीमा पर पहुँच गई।

वह उसी गंभीरता से बोली,

"वे अपने लिए अच्छा पति पा सकती थीं, पर संतान के लिए अच्छा पिता पाना आसान नहीं है। हमारे लिए, उन्होंने अपने सुख का बलिदान कर दिया।"

          और कहते-कहते दुभाषिया वेरोनिका जैसे भीग गई। विष्णु प्रभाकर जी यह स्वीकार करते हैं कि क्षण-भर के लिए वे स्तब्ध रह गये। विदेशियों के जीवन को लेकर हम अभिमानी भारतवासी क्या नहीं कहते, कौन-सा लांछन नहीं लगाते, पर यह एक घटना क्या इस बात का प्रमाण नहीं है कि अपने दायित्व के लिए जीवन के बड़े-से-बड़े सुख का बलिदान करने में उनमें हिचकिचाहट नहीं है!

          हम भारतवासी अविवाहित माँ को सह ही नहीं सकते। भ्रूण-हत्या, गर्भपात, वेश्यावृत्ति-सब कुछ सह सकते हैं, पर 'माँ' अविवाहित भी हो सकती है, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन यह विदेशी महिला कह रही थी-

"हम अविवाहित माँ का अपमान करने की कल्पना नहीं कर सकते। उसने कौन-सा पाप किया है? क्या संतान पैदा करना गुनाह है? हमारे समाज में उसकी वही प्रतिष्ठा है, जो किसी भी कुलीन नारी की हो सकती है। उसकी संतान का वही सम्मान है, जो किसी विवाहित स्त्री-पुरुष की संतान का हो सकता है...।"

          हम में से बहुतों को यह पाप जान पड़ सकता है, पर किसका पाप? विदेशियों के लिए यह एक सहज प्रक्रिया है। इसपर बहस न करना ही उचित है। विष्णु प्रभाकर तो विदेशी नर-नारी की एक झलक भर देना चाहते हैं। उनकी सेवा-परायणता, उनका स्नेह, उनका देश-प्रेम, नारी के स्वाभिमान और अपने दायित्व के प्रति ममता और सब से ऊपर उसकी निर्बाध उन्मुक्तता; क्या ये नारी का परिचय नहीं देते? क्या ये गुण आज की नारी के लिए गर्व और गौरव का कारण नहीं हैं? भले ही वह नारी पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण-कहीं की भी हो।

          विचार करें, इसकी तुलना में हम कहाँ खड़े हैं?

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शनिवार, 16 अगस्त 2025

मैं सर्वस्व तेरा ! तेरा ही !...

 



(जन्मास्टमी पर अग्निशिखा के लिए वन्दना की विशेष रचना)

आज कृष्ण कन्हैया की वर्षगाँठ है। चारों तरफ़ उत्साह-ही-उत्साह उफन-उफन कर बह रहा है। कन्हाई के जन्मदिवस के अधिकांश संस्कार पूरे हो गये हैं। महर्षि शाण्डिल्य ब्राह्मणवर्ग के साथ यज्ञ-पूजन करवा चुके हैं। वे सभी प्रसन्न हृदय अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान कर गये हैं। गोप-गोपियाँ भी अपने-अपने उपहार अपने कुँवर कन्हाई को भेंट कर चुकी हैं। अब आयी है कृष्ण के सखाओं की बारी...

हाँ, कन्हाई के सखा भी उन्हें उपहार अवश्य देंगे, लेकिन देंगे अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार। उन बड़े-बड़े गोप-गोपियों में से तो किसी ने भेंट स्वरूप कान्हा को रत्नों का हार पहनाया, किसी ने मणियों के कंकण, कोई उसके लिए बहुमूल्य वस्त्रों का जोड़ा लाया तो कोई ले आया टोकनी-भर खिलौने !

लेकिन कृष्ण के सखाओं का उपहार इन सबसे एकदम भिन्न है-

सबसे पहले आया प्रिय सखा भद्र। छूटते ही बोला- 'कनूँ, मैं तुझे तिलक लगाऊँगा। मेरे पास तो कुछ है नहीं, तेरी ही चहेती गाय, कामदा के गोबर का टीका लगा दूँ तेरे भाल पर?'

'सच! हाँ, हाँ लगा भय्या।' अब नन्दनन्दन तो मानों हर्ष से विभोर हो उठा। कान्हा ने सोचा, अरे, इतनी महत्त्वपूर्ण बात तो महर्षि शाण्डिल्य तक को न सूझी, और उसका सखा भद्र कितना बुद्धिमान् है। भला गोपकुमार का तिलक गोमय के बिना कैसे सम्पूर्ण हो सकता है? भद्र ने अक्षतों के नीचे, ठीक भ्रूमध्य में अपनी अनामिका से गोबर का एक छोटा-सा बिन्दु सजा दिया। कृष्ण अब सब को दौड़-दौड़ कर अपने माथे का तिलक दिखला रहा है और हर्षातिरेक से कहता जा रहा है- 'भद्र ने लगाया है, मेरे भद्र ने!'

और इसके साथ ही सखाओं के अद्वितीय, अनुपम उपहारों का क्रम चल पड़ा... तोक कहीं से एक तिरंगा पुष्प ले आया है- श्याम-श्वेत-अरुण तीनों रंगों की आभा उस फूल की छटा को ऐसा निखार रही है कि कृष्ण उसे अपनी हथेली पर धरे सभी जगह चक्कर लगा-लगा कर अपने मित्र के द्वारा दिये अमोल उपहार के लिए प्रशंसा बटोरता फिर रहा है, झूम-झूम कर हर एक को उसके दर्शन करा रहा है। उसके नेत्र, उसका उल्लास मुखरित हो पूछ रहा है- 'ऐसी अद्भुत वस्तु है किसी के पास? क्या कोई भी रत्न इस अपूर्व निधि के सामने ठहर सकता है?' और उधर तोक... एक छोटे-से उपहार को दे उसने तो मानों सारा त्रिभुवन अपनी मुट्ठी में समेट लिया। हर्ष का पुतला बना वह भी अपने सखा, यानी अपने सर्वस्व के साथ परछाई की तरह फिर रहा है, क्या वही अकेला उनके साथ है? नहीं, नहीं... कान्हा के उतावले मतवाले सभी सखाओं में अपने-अपने उपहार देने की होड़ मची है, कुछ धक्कम-धक्का भी हो रही है, हर एक अपनी भेंट सखा को पहले थमाना चाहता है। कोई नयी-नयी किसलयों का हार पहना रहा है, किसी के हाथ में मोरपंख का गुलदस्ता है, किसी की हथेली यमुनाजी के तट की बालू से सने छोटे-छोटे पत्थरों से भरी है तो कोई और चित्र-विचित्र जंगली फूलों को थाली में सजाये खड़ा है - जितने सखा उतने उपहार और उससे भी सहस्रगुना प्रेम - कन्हाई तो उस बाढ़ में बह गया। सुध-बुध खो बैठा, प्रत्येक भेंट को सिर-आँखों से लगा, निहाल हो उठा।

यह सच नहीं कि अपने अग्रजों द्वारा दिये उपहारों से कान्हा कम आनन्दित हुए थे, लेकिन सखाओं के फूल-पत्ते, कंकड़-पत्थर, पंख आदि पाकर तो यह कन्हाई ऐसा नाचता-कूदता-फाँदता फिर रहा है जैसे धरती पर साक्षात् हर्षोल्लास मूर्तिमान् हो उठा हो! बड़ी देर बाद जब कृष्ण तनिक अपने-आपे में आया तो मैया और बाबा ने बड़े स्नेह से कहा- 'लाल, अब अपने सखाओं को भी उपहार देकर उनका सत्कार करो।'

और कन्हाई दौड़ आया उस राशि के समीप जो मैया ने सजा रखी थी। इस बार यशोदाजी ने अच्छी तरह समझा दिया था नन्द बाबा को इसीलिए बाबा ने महीनों लगाये हैं उपहारों के चयन में, बहुत प्रयत्न करके दूर-दूर से मँगवाये हैं। लेकिन कोई प्रयास सफल नहीं हुआ। उन बहुमूल्य उपहारों में से कोई भी कृष्ण को ऐसा नहीं लगता है जिसे वह अपने किसी भी सखा को दे सके, एक भी उसकी आँखों में नहीं जँचा, उसके हृदय को नहीं भाया। सखाओं के दिये पंखों, पत्थरों, पुष्पों के अतुल्य उपहारों के सम्मुख मणिरत्न-जटित वे सभी उपहार उसे तुच्छ प्रतीत हो रहे थे। बार-बार उसका हाथ अपने भाल पर भद्र द्वारा लगाये गोबर के तिलक पर पहुँच जाता और वह निहाल हो उठता, साथ ही बहुत खिन्न भी, क्योंकि... क्या दे वह अपने मित्रगण को ??? विशाल, अञ्जन रञ्जित कमल लोचन भर आये नन्दनन्दन के। प्रत्येक, प्रत्येक वर्षगाँठ पर ठीक यही दृश्य उपस्थित होता है

कन्हाई की भौहों पर बल पड़े, वह सोचने लगा, सोचता रहा... त्रिभुवन की कोई वस्तु उसे ऐसी न लगी जिसे देकर वह कृतकृत्य हो सके, सन्तोष से ओत-प्रोत हो जाये...। तब ?

कन्हैया ने बलदाऊ को निहारा। दाऊ की आँखों में झांकते ही श्यामसुन्दर हर्षातिरेक से विह्वल हो उठा। उन नयनों से सच्चे प्रेम की जो अजस्र कौंधें छिटक रही थीं उनमें कान्हा ने अपना उपहार पा लिया...। और फिर उसने सामने खड़े भद्र को अपने आलिंगन में जकड़ लिया वाणी नहीं फूट रही, लेकिन कान्हा का रोम-रोम पुकार रहा है, "सखे ! यही है मेरा प्रतिदान 'मैं तेरा, मैं तेरा'।"

तोक, सुबल, श्रीदाम एक-एक को अपने बाहुपाश में बाँध कर कन्हैया सुध-बुध खो बैठा है। प्रत्येक सखा उससे लिपट कर अन्तरतम में यही अनुभव कर रहा है कि साँवरा उसी का प्रियतम सखा है, क्योंकि हर एक को अंक में भर कर कृष्ण का रोम-रोम यही गुञ्जारित-प्रतिगुञ्जारित कर रहा है "मैं सर्वस्व तेरा हूँ, तेरा ही हूँ।"

भक्त को दिये भगवान् के इस उपहार के सम्मुख ब्रह्माण्ड का कौन सा उपहार टिक सकता है भला?

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शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

समाज का रोग


 

(खलील जिब्रान के एक अर्थपूर्ण विचार पर आधारित।)

मेरी एक दाढ़ में लगा कीड़ा मुझे बहुत तकलीफ देता था। वह दिन की चहल-पहल में तो चैन से बैठा रहता लेकिन रात की खामोशियों में, जब दांत के चिकित्सक आराम से सो जाते तब वह बेचैन हो उठता। एक दिन मेरा धीरज पूरी तरह समाप्त हो गया और मैंने अपने दंत-चिकित्सक से उस दाढ़ को निकाल देने का अनुरोध किया और बताया कि उसने मेरी नींद का सुख छीन लिया है और मेरी रातें आहें भरते हुए कटती है।

लेकिन चिकित्सक सहमत नहीं था। उसने कहा, "जब दाढ़ का इलाज हो सकता है, तब उसे निकालना मूर्खता है।" उसने दाढ़ को इधर-उधर से खुरचना शुरू किया और उसकी जड़ों को साफ कर दिया। अजीब-अजीब तरीकों से रोग को दूर करने के बाद, जब उसे विश्वास हो गया कि दाढ़ में एक भी कीड़ा बाकी नहीं रहा है तो उसके छेदों को उसने एक विशेष प्रकार के सोने से भर दिया और गर्व के साथ कहा, "अब तुम्हारी यह दाढ़ नीरोग दाढ़ों से अधिक मजबूत हो गई है।"

मैं निश्चिंत होकर खुशी-खुशी वापस चला आया। लेकिन अभी एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि कमबख़्त दाढ़ में फिर से असहनीय तकलीफ शुरू हुई। इस बार मैं दूसरे डाक्टर के पास गया और साफ तौर पर उससे कहा, "इस खतरनाक सुनहरी दाढ़ को बिना किसी हिचकिचाहट के निकाल फेंकिये।" डाक्टर ने दाढ़ निकाल दी। वह घड़ी यद्यपि यातनाओं और कष्टों की दृष्टि से बड़ी भयंकर थी, डॉक्टर को भी बड़ी मेहनत करनी पड़ी फिर भी वास्तव में वह बहुत ही शुभ घड़ी थी।

          दाढ़ को निकाल देने और उसकी अच्छी तरह देखभाल कर लेने के बाद डाक्टर ने कहा, "आपने बहुत अच्छा किया। कीड़ों ने इस दाढ़ में मजबूती से जड़ पकड़ ली थी और उसके अच्छे होने की कोई आशा नहीं थी।" उस रात मैं बड़े आराम से सोया। अब भी आराम से हूं और दाढ़ निकल जाने पर भगवान को धन्यवाद देता हूं।

          हमारे मानव-समाज में बहुत-सी दाढ़ें ऐसी हैं, जिनमें कीड़े लगे हुए हैं और उनका रोग शरीर की हड्डी तक पहुंच गया है। परंतु मानव-समाज उसे निकालने की तकलीफ से बचने के लिए दाढ़ें नहीं निकलवाता, बल्कि महज लीपा-पोती कर संतोष मानता है। वह उन्हें हर बार साफ करवा कर उसके छेदों को चमकदार सोने से भर देता है, और बात वहीं-की-वहीं, बस!

          बहुत से ऐसे डॉक्टर हैं, जो मानवता की दाढ़ों का इलाज आंखों को लुभाने वाले सोने के पानी और चमकदार वस्तुओं से करते हैं, और बहुत-से रोगी ऐसे हैं, जो अपने को इन सुधार-प्रिय चिकित्सकों के हवाले कर देते हैं और रोग के कष्टों को सहते-सहते अपने को धोखा देकर मर जाते हैं। वह समाज, जो एक बार बीमार होकर मर जाता है, दोबारा जीवित नहीं होता। वह संसार के सामने अपने आत्मिक रोगों के कारणों और सामूहिक दवाओं की वास्तविकता नहीं बता सकता, जिनका प्रयोग करने से समाज पतन और विनाश की खाई में गिर जाते हैं।

          हमारे समाज के मुंह में भी जीर्ण-शीर्ण, काली, गंदी और बदबूदार दाढ़ें हैं। चिकित्सकों ने चाहा भी कि उन्हें साफ करके उनके छेदों को चमकदार चीजों से भर दें और ऊपर सोने का पानी चढ़ायें। पर रोग दूर नहीं हुआ और तब तक दूर नहीं हो सकता जब तक इन दाढ़ों को उखाड़ फेंक न दिया जाये। फिर जिस समाज की दाढ़ में कोई रोग हो तो उसका पेट भी कमजोर हो जाता है। और बहुत-से समाज ऐसे हैं, जो पाचन-शक्ति के खराब हो जाने से मौत के मुंह में जा पहुंचे हैं।

          अगर कोई कीड़ा लगी दाढ़ें देखना चाहता है तो उसे पाठशाला में जाना चाहिए, जहां हमारे बच्चों को घिसी-पिटी बातों को ही सिखाया जा रहा है, जिनका उन्हें उनके जीवन में आगे चलकर कोई उपयोग होने वाला नहीं है। या फिर उसे अदालत में जाना चाहिए, जहां मार्ग भ्रष्ट बुद्धि कानून के आदेशों से इस प्रकार खेलती है, जिस प्रकार बिल्ली अपने शिकार से। 

          और उसके बाद उन नरम और नाजुक उंगलियों वाले दांतों के वैद्यों के पास भी जाना चाहिए, जिनके पास सूक्ष्म उपकरण और बेहोश करने वाली दवाएं हैं और जो कीड़ा लगी दाढ़ों के छेदों को भरने और उनकी सड़ी-गली जड़ों को साफ करने में अपना समय बिताते हैं। जब कोई उनसे बातें करता है, तो वे धारावाहिक भाषण देते हैं, सभा सम्मेलन आयोजित करते हैं, और ऐसे जोरदार लेख लिखते हैं, जिनसे आग की चिनगारियां निकलती हैं। उनके भाषणों में एक गीत होता है, जो चक्की के पाटों के गीत से ऊंचा और बरसात की रातों में मेंढक की टर्राहट से अधिक आकर्षक होता है।

          पर जब कोई ऐसे चिकित्सक से कहता है कि, "हमारा समाज अपने जीवन का भोजन कीड़ा लगी दाढ़ों से चबाता है, इसलिए उसके हर निवाले में जहरीली लार मिली होती है, उस विषैली लार ने उसकी आंतें लगभग बेकार कर दी है।" तो वह उत्तर में कहता है, "जी हां। आप चिंता मत कीजिये उसके लिए हमने एक नई दवा की खोज ली है, जिससे यह दुरुस्त हो जाएगा।" जब कोई इन दाढ़ों को निकलवाने के बारे में बात करता है तो वे सहमत नहीं होते, क्योंकि उन्होंने दांतों का अच्छा इलाज नहीं सीखा है। अपने आप को बचाए रखने वे नाराजगी के स्वर में चिल्ला कर कहते हैं, "कैसे हैं दुनिया में इस विचार के बंदे और कितने बेबुनियाद हैं इनके विचार!"

          दुर्भाग्य से हमारा समाज ऐसे वैद्यों से भरा पड़ा है। वे अनेक ओहदों पर विराजमान हैं। अपने लिए और समाज के लिए अलग-अलग मापदंड बना रखे हैं। जब भी कोई उन दांतों को उखाड़ फेंकने की बात करता है सब एक हो कर इन दांतों, बीमारों और वैद्यों को बचा लेते हैं।

          लेकिन अब इनका दर्द इलाज करने से नहीं इन्हें उखाड़ फेंकने से ही होगा।  समाज से ऐसे डॉक्टरों को, जिनके मापदंड अपने लिए और समाज के लिए अलग-अलग हैं, उखाड़ फेंके और सामाजिक उत्थान और सौहार्द का हिस्सा बनें।

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कायरता, वीरता या बहादुरी

             यह क्या हो गया हमें , हमें समझना चाहिए और धैर्य से काम लेना चाहिए। कानून को अपने हाथ में लेकर कानून की ताकत और प्रशासन के हाथो...