शुक्रवार, 20 जून 2025

अपना उत्तरदायित्व निभाएँ

  


पश्चिम बंगाल में काला धुएँ को छोड़ने वाली टॅक्सी पर कार्यवाही हुई।  बंगाल में ही बेवजह प्रोविडेंट फ़ंड के वर्षों से अटके पैसों का भुगतान एक महीने के अंदर कर दिया गया। सांसदों द्वारा विदेश यात्रा पर किये जाने वाले अत्यधिक खर्चों पर रोक लगी।

मध्यप्रदेश में सरकार से इंडियन चाइल्ड लेबर प्रोजेक्ट के अंतर्गत 38,800 रुपयों में मिलने वाले  जिस किट्स को किसी ने  1,40,000 में खरीदा था, उसे 80,000 रुपए वापस मिले।

महाराष्ट्र के मुंबई जेल में 4 वर्षों से निलंबित पड़े मोबाइल जैमर्स, महीने भर के अंदर लगा दिये गये।  ठाणे जिले में महाराष्ट्र इम्प्लॉइमेंट गौरंटी स्कीम के अंतर्गत व्याप्त भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ हुआ। 

कर्नाटक में एक कॉलेज के प्राध्यापक को जिसे तीन वर्षों तक बिना एक भी कक्षा के, मासिक 27,490 रुपए का भुगतान किया जा रहा था अन्य कॉलेज में स्थानांतरित कर दिया गया। जीवन बीमा विभाग ने महीनों से अटकी बीमा राशि का भुगतान नामांकित व्यक्ति को कर दिया।

गुजरात में पंचायत सोशल जस्टिस कमेटी के गठन में वर्षों से लगाई जाने वाली बाधा दूर हुई, और अविलंब कमेटी का गठन हो गया।

छत्तीसगढ़ के एक नागरिक, जिसका नाम बीपीएल की सूची में शामिल नहीं किया जा रहा था, शामिल हुआ।

गुजरात में सरकार से अनुदान मिलने पर भी छात्रों को नि:शुक्ल शिक्षा न देकर उन्हे मासिक शुल्क देने के लिए बाध्य किये जाने वाले विद्यालय और शिक्षकों पर कार्यवाही हुई। 

छत्तीसगढ़ में गाड़ी विक्रेता और मोटर कार विभाग के मिलीभगत द्वारा चल रही जालसाजी का भंडाफोड़ हुआ।

दिल्ली के लोक निर्माण कार्यालय में व्याप्त अनियमिततायेँ प्रकाश में आईं।

          ये घटनाएँ हमारे देश की ही हैं। ये तो बस कुछेक उदाहरण हैं। इसे कराने वाले वे लोग थे जो मानते हैं कि यहाँ भी हो सकता है। लेकिन क्या हमने कभी प्रयास किया है?’ दुर्जन हमारे भय, स्वार्थ और निष्क्रियता पर जीता है। अपने  डर को बाहर निकाल कर फ़ेंक दीजिये और फिर देखिये कैसे मौसम बदलता है।

          तो हम करें क्या? हमें अपने अधिकारों का प्रयोग करना है। सही वक्त पर चुप्पी साधना अत्याचार को बढ़ावा देना है। यह समझना होगा कि अत्याचार करने वाले से अत्याचार सहने वाला ज्यादा गुनहगार है। अन्धकार काले बादलों के आने से नहीं, सूर्य के अस्त होने से होता है। अतः काले बादलों से बिना डरे सूर्य को अपना तेज बनाये रखना होगा। अगर हम ऐसा कर सके तो राम राज्य को कोई भी नहीं रोक सकता।

हम यह गाते हैं:

जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा,

यह भारत देश है मेरा, यह भारत देश है मेरा ।

 

क्या ऐसा है? नहीं! लेकिन इसके लिए हम कर क्या रहे है? हमारी नागरिकता केवल एक वोट डालने तक सीमित नहीं है। हम यह समझते क्यों नहीं कि हम 24 X 7 भारत के नागरिक हैं! हमारा अधिकार सिर्फ वोट देने तक सीमित नहीं है बल्कि उसकी निगरानी रखने की भी है।

          यह तो समझना ही होगा कि कुछ होगा तो किसी के वह कुछ करने से ही हो होगा। कहीं न कहीं, कोई न कोई तो पीछे लगा होगा तभी हमारे देश में हर खाने की सामग्री पर लाल और हरा का निशान लगाना शुरू हुआ, खुदरा विक्रय मूल्य का छापना प्रारम्भ हुआ। अनेक भ्रमित करने वाले विज्ञापनों पर रोक लगी। जन एवं लोक प्रिय व्यक्तियों द्वारा अंधाधुंध, बिना जाने-परखे, समर्थन देने वाले विज्ञापनों में कमी आई। ऐसी घटनायें एक दो नहीं बल्कि हजारों की संख्या में है। वर्ष में केवल एक ही ऐसा कार्य करें तो प्रशासक, विधायक, संरक्षक को अहसास कराने के लिए काफी है कि अब वैसे नहीं चलेगा जैसा चलता रहा है। हमें अपने जान-माल की परवाह होती है, इसलिए हम ऐसा कोई भी कदम उठाने में हिचकिचाते हैं। लेकिन ऐसे अनेक कार्य हैं जहां बिना जान-माल को खतरे में डाले हम जागरूक हो सकते हैं और परिस्थितियों को बदल सकते हैं।

          ऊपर लिखे सब कार्य सूचना के अधिकार (राइट टू इन्फॉर्मेशन एक्ट) के प्रयोग से हुआ। इसका प्रयोग बहुत ही सरल और आसान है। न तो जिद्दोजहद है और न ही विशेष खर्च। न जान-माल का खतरा। अब तो घर बैठे कम्प्युटर या मोबाइल फोन के जरिये भी आवेदन किया जा सकता है। हम अपने शहर में  बैठ कर देश के किसी भी कोने से सूचना के लिए आवेदन पर सकते हैं। यह सही है कि हमने कई बार अखबारों में पढ़ा है कि इस नियम का प्रयोग करने वालों को डराया, धमकाया और मारा भी गया है। यहाँ यह बात साफ समझ लेनी चाहिए कि ऐसी अवस्था केवल उन लोगों की हुई जिनका मकसद राजनीतिक लाभ उठाना, खबरों से सनसनी फैला कर टीआरपी-धन-नाम कमाना था, या फिर व्यापक सुधार में लगे थे। याद रखें उद्देश्य दोष को मिटाना है, दोषी को नहीं। जब हम दोष के बदले दोषी को मिटाने में लग जाते हैं तब मीठा और नमकीन दोनों ही चखने  के लिए तैयार रहना पड़ता है।

          सूचना के अधिकार का प्रयोग करें। अगर केवल 10 प्रतिशत जनता भी इसका प्रयोग करती है तो सालाना 15 करोड़ आवेदन होते हैं। इसका असर दिखने लगेगा। इसका प्रयोग आसान भी है और गूगल / इंटरनेट पर इसकी पूरी जानकारी उपलब्ध भी है। इंटरनेट के अलावा बाज़ार में इसकी विस्तृत जानकारी देने वाली पुस्तकें भी उपलब्ध हैं। केवल सूचना की मांग ही अनियमितता को दुरुस्त कर देती है। अगर इसका प्रयोग करें तब देख पाएंगे कि यहाँ भी काम सही ढंग से होने लगे हैं

          अगर हम बदलाव चाहते हैं, तब कुछ तो करना ही होगा। सबसे पहले अपनी नहीं किसी और की या सार्वजनिक समस्या को दुरुस्त करने का प्रयास कीजिये। यह उतना कठिन भी नहीं है जितना हमें लगता है। यह न सोचें कि मेरे अकेले के करने से क्या होगा? अणु-परमाणु के एक न दिखने वाले कण की ऊर्जा का हमें अंदाज़ है। कुछ समय पहले हमने कोरोना के न दिखने वाले वाइरस की लीला भोगी है। इस एक में अपूर्व शक्ति है  इस पर विश्वास रखें, अधिकार का समुचित प्रयोग करें।

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शुक्रवार, 13 जून 2025

तुझे हर मुश्किल से पार लगा दूँगा



(कहानी नहीं, उन सच्ची घटनाओं में से एक है यह, जिनमें जात-पाँत के होते हुए भी इन्सानों में सच्ची इन्सानियत का जज्बा उझक-उझक कर झलकता है और होठों पर बरबस मुस्कान और मोहब्बत की लकीरें खींच जाती है। इंसान इंसान होता है, वह न हिन्दू है न मुसलमान, न सिक्ख, न ईसाई। वह न गरीब है न धनवान। इंसान की पहचान सिर्फ और सिर्फ उसके कर्मों से होती है। जात-पांत से परे सब उसी एक ही कुम्हार की रचना है जिसने सब को गढ़ा है।)

          मैं एक किसान का लड़का हूँ, मगर मैंने खुद कभी हल नहीं चलाया। मेरे पिताजी खेती का काम अच्छी तरह से जानते थे। हमारे पड़ोसी भी खेती से ही अपना गुज़ारा करते थे। हमारे और उनके खेत पास-पास थे। अतः हमारे बीच अच्छा संबंध था। मेरे पिताजी उनको अपने भाई की तरह मानते थे। हम सब उन्हें चाचा कह कर पुकारते थे। वे दोनों अलग-अलग संप्रदाय के थे, लेकिन हमें इसकी जानकारी नहीं थी, न हमें बताया गया न हमने कभी महसूस किया। चाचा भी हमारे साथ अपने बच्चों का-सा ही बरताव करते थे। अक्सर, फसल के दिनों में मेरे पिता और चाचा बारी-बारी खेतों की रखवाली करते, और इस तरह पैसा और वक़्त दोनों बचा लिया करते थे।

          जब कभी हम मुँह अँधेरे अपने खेत पर जाते, तो दूर से ही चिल्ला कर पुकारते- "चाचा, सो रहे हो या जाग रहे हो?" वे खेत में से जवाब देते– “आओ बेटा, आओ ! आज मैंने बहुत अच्छी-अच्छी ककड़ियाँ और मीठे-मीठे खरबूजे तोड़ी हैं। आओ, ले जाओ"। अक्सर  चाचा अपनी प्लेट में रोटी रख कर हमारे घर आते और मुझे आवाज देकर कहते “बेटा, जरा देखो तो तुम्हारे घर कोई साग तरकारी बनी है?" मैं दौड़ा-दौड़ा माँ के पास जाता और तरकारी, अचार और दूसरी अच्छी-अच्छी खाने की चीजें थाली में ले आता और उनकी प्लेट में रख देता। चाचा वहीं बैठ कर बड़े मजे से खाते। मेरे इस बरताव से अक्सर उनकी आँखों में प्यार के आंसू छलछला आते।

          इस तरह मेल-मोहब्बत वर्षों बीत गये, और दोनों परिवारों में आपसी भाईचारा बढ़ता  गया। इस बीच मेरे पिताजी गुज़र गये। अब तो चाचा हमें पहले से भी ज़्यादा प्यार करने लगे। मेरे बड़े भाई हमेशा उनकी सलाह से काम करते, और चाचा भी उन्हें सच्ची सलाह देते।

          एक बार, पहले संप्रदाय के जानवर चरवाहों की लापरवाही से दूसरे संप्रदाय के बगीचे में घुस गये और बहुत से पेड़-पौधे चर गये। उन्हें यह बात बहुत बुरी मालूम हुई और उन्होंने गाँव के चरवाहों की खासी मरम्मत की और जानवरों को हांक का अपनी ओर ले जाने लगे। चरवाहों ने यह खबर गांव में पहुंचायी। जानवरों के मालिक अपनी लाठियाँ संभाल कर मौकाये वारदात पर पहुंच गये। बात बिजली की तरह सारे गाँव में फैल गयी, और आसपास के दोनों संप्रदाय के लोग एक दूसरे से लड़ने के लिए मैदान में जमा होने लगे। घण्टों तू-तू, मैं-मैं होती रही और लाठियों के चलने की पूरी तैयारी हो गयी। समझौते की सब कोशिशें बेकार साबित हुई। सबों ने  लाठी, पत्थर, ईंट वगैरह जो भी चीज मिली, जमा कर ली। वे लड़ने और मरने मारने पर तुल गये। 

  चाचा भी अपने बेटों और पोतों के साथ वहां मौजूद थे। उन्होंने झगड़ा मिटाने की बहुत कोशिश की, मगर किसी ने उनकी न सुनी। उन मवेशियों में हमारे मवेशी भी थीं, इसलिए मेरे भाई भी वहाँ पहुंच गये थे। औरतों और बच्चों को छोड़ कर सारा गाँव वहाँ जमा हो गया था। औरतें  बेचारी हैरान थी और सोचती थी – मर्दों का क्या होगा?

          मुझे भी झगड़े का पता चल गया। मैंने किताबें एक कोने में पटकी, माँ मना करती रही, मगर मैं मैदान की तरफ भाग लिया, और तेज़ी से उस जगह पहुँच गया जहाँ लोगों की भीड़ जमा थी। देखा तो मालूम हुआ कि चाचा अपने बेटों और पोतों के साथ सामने वाले दल में सबसे आगे खड़े थे। मैंने बड़ी मासूमियत से उनसे पूछा- " चाचा, आप किस तरफ हैं?"

          चाचा ने फ़ौरन अपने एक बेटे के हाथ से लाठी ली, और वे मेरे पास आ खड़े हुए और मुझे गोद में उठा लिया। उन्होंने अपने बेटों से कहा- "इसका पिता आज ज़िन्दा नहीं है, इसलिए मैं इसके साथ रह कर ही लड़ूँगा। तुम उस तरफ़ रहो।" चाचा को दूसरी तरफ़ जाते देख कर सब लोग दंग रह गये। कुछ देर तक वहाँ सन्नाटा छाया रहा। सब शर्मिन्दा हो गये और बिना कुछ बोले अपने-अपने घरों की ओर चल पड़े। चाचा के पीछे-पीछे हम सब भी अपने-अपने घर लौट आये।

          उस दिन तो मैं समझ ही न पाया कि इतना बड़ा झगड़ा एकदम कैसे ठण्डा पड़ गया। लेकिन आज मैं इस चीज़ को अच्छी तरह समझता हूँ, क्योंकि आज मैं इन्सानियत से परिचित हो गया हूँ

          चाचा अब इस दुनिया में नहीं रहे। लेकिन मैं उन्हें कभी नहीं भूलूँगा। किसी भी दो संप्रदाय में मार-पीट, दंगे की खबर सुनता हूँ तो आँखों में आँसू आ जाते हैं और बरबस बड़बड़ा उठता हूँ " चाचा! आप किस तरफ हैं?" और मुझे अपने प्यारे चाचा की मानों सदियों से सुनी आ रही वही भीनी-भीनी ख़ुशबू लिये आवाज़ सुनायी देती है— “बेटा, तेरा चाचा दुनिया की नज़रों में भले सो चुका हो, लेकिन तेरी हर पुकार पर हमेशा की तरह दौड़ कर, तुझे अपनी बाँहों में भर, तुझे हर मुश्किल से पार लगा देगा।"

          अगर हवा देनी ही है तो इंसानियत को हवा दीजिये, हैवानियत को नहीं।

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शुक्रवार, 23 मई 2025

आत्मविश्वास का झरना

           पानी के झरने तो  बहुत देखे-सुने होंगे आपने,  लेकिन क्या है आत्मविश्वास का झरना? ऐसा नहीं है कि आपने देखा या सुना नहीं है। लेकिन आंख और कान के साथ दिमाग भी खोलें तभी दिखे भी और सुने भी।

          रामायण भी सुनी है आपने और महाभारत भी। बुद्ध, महावीर और गांधी का नाम भी सुना है आपने। लेकिन अमिट को नहीं जानते और न ही मुरलीकांत पेटकर को जानते हैं? नहीं जानते हैं न?

          राम ने लंकापति रावण पर आक्रमण किया और सीता को छुड़ा लाये। लेकिन क्या आपने इस बात पर कभी विचार किया कि न तो अयोध्या से कोई सहायता ली और न ही मिथिला से कोई सहायता मांगी? कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अपनी पूरी चतुरंगिणी सेना शत्रुओं को सौंप दी। क्या मिला राम और कृष्ण को? अपना पूरा राज्य त्याग कर बुद्ध और महावीर अहिंसा का पाठ पढ़ाते रहे – किस लिये? गांधी – दक्षिण अफ्रीका में रेल से प्लेटफ़ार्म पर फेंक दिये जाने के बाद दूसरे दिन ही वापस उसी मुद्दे पर बग्गी वाले से भिड़ गए। उनकी एक आवाज पर करोड़ों भारतवासी डंडों के सामने अपना सर और गोलियों के सामने अपना सीना तान कर खड़े हो गए। ये हैं वे लोग जिनके अंदर से आत्मविश्वास का  झरना फूट कर बहता था।

          भारतीय नायक ने पुलवामा हमले के बाद, किसी की चिंता और परवाह किये बिना आतंकियों के ही घर में घुस कर उन्हें मारा। और आज फिर पहलगाम के बाद निडर होकर फिर से बहुत दूर तक उनके घर में घुसा, मारा और लौट आया। दहाड़ता रहा कि  पड़ोसियों से हमारी कोई दुश्मनी नहीं, लेकिन अगर मेरे दुश्मनों को कोई पनहा देगा, तो  हम उन्हें छोड़ेंगे नहीं। उनकी गोद से छीन कर उन्हें मारेंगे।

          हम इनकी प्रशंसा तो करते हैं, कुछ को अवतार मानते हैं लेकिन वैसा बनने की कल्पना नहीं करते। अनेक साधारण लोग भी हैं, अमिट और मुरली की तरह। हमारे जैसे ही, बल्कि हमारी तुलना में बेहद कमजोर। लेकिन इनमें से भी फूटता था आत्मविश्वास का झरना। उन्होंने भी वह कर दिखाया जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते।

          अमिट खुद बताते हैं कि बचपन में एक भयानक सड़क हादसे में अपने दोनों हाथ गँवा कर ही बच पाया था। महीने भर 'आई.सी.यू' में रहना पड़ा, तीन-चार महीने अस्पताल में और फिर शुरू हुई जीवन से उनकी जंग। शायद हादसे के साथ-साथ विधाता ने उनके  दिल और दिमाग़ पर आत्म-विश्वास का रोगन लगा दिया। अमिट ने ठान ली - ज़िन्दगी न केवल जीऊँगा, बल्कि शान से, मस्ती से झूमते हुए, जीवन का सफ़र तय करूँगा। उन्होंने अपने हृदय में एक मन्त्र का जाप करना शुरू किया, "अमिट, मिटेगा नहीं।"

          जब हम सकारात्मक सोच से लबरेज़ हो जाते हैं तो भगवान् भी आ खड़े होते हैं हमारा हाथ थामने, भले ही वे हाथ साबुत न हों। पहले अपने पैरों की उँगलियों में क़लम पकड़ कर छठी कक्षा की पढ़ाई की। जब हाथों के घाव भर गये तो अपनी बायीं कोहनी के ठूंठ से लटकते दो लोथड़ों के बीच क़लम पकड़ कर लिखने का अभ्यास शुरू कर दिया... महीने भर में सफल हो गया और क़लम पैर से निकल कर हाथों में आ गई। आज अमिट अंग्रेज़ी-साहित्य के सहायक प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। वैसे उनकी जिंदगी का संग्राम अभी बाकी है।

             जीवन को देखने का सब का अपना नज़रिया है - अँधेरे-से-अँधेरे घण्टे में भी बस साठ मिनट ही होते हैं। संसार में भगवान् ने असम्भव नाम की कोई चीज़ ही नहीं बनायी... नामुमकिन, कठिन, इत्यादि बिल्ले तो हम मनुष्य यहाँ-वहाँ टाँगते फिरते हैं। जिसकी जरूरत है वह है, सच्चा-निष्कपट, एकनिष्ठ, समर्पण-भरा प्रयास कि हम सफल होकर रहेंगे।

          दूसरा नाम है मुरली का - मुरलीकांत पेटकर। जहां अन्य खेलों में करोड़पति खिलाड़ियों पर सरकार और कंपनियाँ, इनाम और रुपयों की वर्षा कर अपने आप को गौरवान्वित अनुभव करती हैं वहाँ जिंदगी से लड़-लड़ कर मील का पत्थर साबित करने वालों को कोई नहीं पूछता।



          बचपन में ओलंपिक में स्वर्ण-पदक जीतने का सपना देखा था मुरलीकांत पेटकर ने। इस सपने ने उन्हें कुश्ती के दंगल में उतार दिया। और फिर शुरू हुआ जीवन-संग्राम। सबसे पहले अपने ही परिवार से। पिता चाहते थे बच्चा स्कूल जाए लेकिन वह पहुँच जाता था अखाड़े में। घर से भाग कर पहुँच गए सेना के प्रशिक्षण शिविर में और उसके साथ ही कुश्ती के अखाड़े से बॉक्सिंग रिंग में। लेकिन शायद यह भी उनकी फिदरत में नहीं था। 1965 में भारत-पाकिस्तान की जंग में बुरी तरह घायल हुए। रीड़ की हड्डी में फंसी गोली नहीं निकल सकी। परिणाम - पैरों से लाचार हो गये। जब कहीं रास्ता नहीं सूझता तब दिव्य रोशनी, मंजिल दिखाती है। पता चला कि पैरालंपिक्स (विकलांगों का ओलिंपिक्स) में तैराकी में उम्मीद है। बस फिर क्या था। लग गए इसकी तैयारी में। लेकिन कठिनाइयों ने अभी पीछा नहीं छोड़ा था। आतंकवादियों के हमले के कारण उस वर्ष प्रतियोगिता स्थगित हो गई। इसका मतलब था और एक वर्ष की प्रतीक्षा। मुरलीकांत ने हिम्मत नहीं हारी, आत्मविश्वास बनाए रखा और अगले वर्ष 1972 में जर्मनी में आयोजित पैरालंपिक्स में तैराकी में स्वर्ण-पदक जीत कर अपने सपनों को पूरा किया। 2018 में पद्मश्री और 2025 में अर्जुन पुरस्कार से नवाजा गया। यह था उनके आत्मविश्वास के झरने से बहता मीठा पानी। 2024 में मुरलीकांत के जीवन पर कबीर खान ने बनाई बायोपिक चंदू चैम्पियन



          अपने  बच्चों से यह कभी मत कहिए कि वे कुछ नहीं कर सकते। उनमें अपार ऊर्जा है। सफलता की निशानी केवल पढ़ाई में अव्वल आना नहीं है, मंज़िलें और भी हैं, अगर  आत्मविश्वास बरकरार है।   

          जीवन जीने के दो ही तरीके हैं -

                    पहला, यह मानना कि कोई चमत्कार नहीं होता

                              और दूसरा यह मानना कि हर वस्तु एक चमत्कार है।

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शुक्रवार, 9 मई 2025

कैसे बने बेहतर दुनिया?

  


क्या आपने हास (HAAS) स्कूल ऑफ बिज़नेस का नाम सुना है? यह कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के अंतर्गत अमेरिका का दूसरा सबसे पुराना बिजनेस स्कूल है जिसकी स्थापना 1898 में हुई थी। आज यहाँ विशेष चहल-पहल है। सत्र की समाप्ति के बाद पुराने छात्रों का बिदाई समारोह है। लेकिन विशेष बात यह है कि समारोह के समापन के बाद गहमा-गहमी कम होने के बजाय बढ़ गई है। लोग प्रस्थान करने के बजाय दल बना कर चर्चा में मशगूल हैं। चर्चा का विषय एक ही है  - भारतीय मूल के छात्र अंगद सिंह पड्डा द्वारा बिदाई समारोह में दिया गया भाषण। इस भाषण ने केवल वहाँ के छात्रों में ही नहीं बल्कि वहां के शिक्षा-जगत में हलचल मचा दी है।  

          पड्डा ने उपस्थित समुदाय से “शांत होकर पूरे ध्यान से उस एक समस्या के बारे में विचार करने” कहा  जो उन्हें “सबसे गम्भीर लगती है... जिसके निदान से हमारी यह दुनिया कुछ बेहतर हो जायेगी।” 

          सभा कक्ष में सन्नाटा छा गया। उन्होंने बताया कि वे अमेरिका में एक सपना लेकर आए थे कि एक दिन सफलता पाकर अपने देश जाकर नशे की समस्या का समाधान कर सकें। सच, यही था उनका सपना। किशोरावस्था में नशे का शिकार होकर अपने दो सबसे अच्छे दोस्तों को मरते देखा था। इसलिए उन्हें इस समस्या का समाधान ढूंढ़ना था। जिन-जिन वे से मिले उनसे एक समस्या के बारे में पूछा जो उनको परेशान कर रही है। उनके सामने समस्याओं का अंबार लग गया।

          उदाहरण के लिए, ओकलैण्ड में एक बच्चा जो स्कूल नहीं जा पा रहा, किसी मुस्लिम महिला को हिजाब के कारण परेशान किया जाता है, एक यहूदी को उसकी टोपी के लिए कठिनाई झेलनी पड़ती है, किसी सिख को पगड़ी के कारण प्रताड़ित किया जाता है, सीरिया में एक पिता मिसाइल हमले से अपने पूरे परिवार को समाप्त होते देखता है, ये समस्याएँ हैं। उन्होंने कहा कि ये वे समस्याएँ हैं, जिनका निराकरण उन्हें करना है।

          वे आगे कहते हैं कि हम सब जानते हैं वह क्या है जो हमें औरों से अलग करता है? हम सब हर एक की सम्पन्नता के बारे में सोचते हैं। यही हमारी पहचान है। हम अपनी शिक्षा का उपयोग सिर्फ अपने हित के लिए नहीं करना चाहते, हम चाहते हैं जो शिक्षा हम पायें, वह इस दुनिया को, जीवन को, बेहतर जगह बनाने के लिए काम आनी चाहिए। हम इस दुनिया को एक करना चाहते हैं। इस समय यहां उपस्थित हर विद्यार्थी की यही भावना है। यही हमारी पहचान है।

          पर दुनिया को एक करने की बात एक अजूबा-सी लगती है, अव्यावहारिक लगती है क्योंकि आज तक दुनिया को एक नहीं किया जा सका। कोई कह सकता है कि दुनिया में कहीं भी लोगों को इस तरह से एक नहीं किया जा सका है? एक क्षण रुकने के बाद वे आगे जोड़ते हैं यदि मैं कहूं कि ऐसा हुआ है तो?

          कल्पना करिये, एक गांव है, भारत का एक सुंदर गांव। वहां के खेतों की कल्पना करें, वहां के घरों के बारे में सोचें। अब एक चीज़ की कल्पना और करें - उन घरों में कोई दरवाज़ा नहीं है, क्या यह सम्भव है? लेकिन हां, ऐसा है। भारत में शनि शिंगनापुर नाम का एक गांव है जहां एक भी घर में कभी ताला नहीं लगता। और यह इसलिए कि वहां के लोगों की मान्यता है कि सीमाओं की कोई आवश्यकता नहीं है, जीवन में भेद-भाव के लिए कोई स्थान नहीं है। सब एक हैं। यही कारण है कि इस गांव में आज तक चोरी की कोई वारदात नहीं हुई। कोई डाका नहीं पड़ा। हिंसा की एक भी घटना नहीं हुई। इसी भारत में एक और गाँव है – कतरा। राज्य के डीजीपी को भी विश्वास नहीं हुआ। लेकिन जब वे भी वहाँ का दौरा कर आए तब उन्हें भी मानना पड़ा। यहाँ के थाने में, आजादी के 73 सालों में एक भी फ़ौजदारी शिकायत नहीं हुई, एक भी एफ़.आइ.आर. दाखिल नहीं हुई। क्यों? एक बहुत ही सीधा और सरल सा कारण है ‘मैं नहीं हम

          पड्डा आगे कहते हैं, 2017 की कक्षा के मेरे साथियों, मैं आप सबसे पूछता हूं क्या हम अपनी शिक्षा का उपयोग भारत के इस गांव जैसा विश्व बनाने के लिए नहीं कर सकते? आप जानते हैं वह दुनिया कैसी होगी? धर्म के नाम पर कोई बंधन नहीं होगा। हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई जैसा बंटवारा नहीं होगा। कोई किसी की बुराई नहीं करेगा। ऐसी दुनिया बनानी है हमें।”

 

          “कहते हैं, सपने वे नहीं होते जो हम रात को सोते में देखते हैं। सपने वे होते हैं जो हमें सोने नहीं देते। जो मार्टिन लूथर किंग को सोने नहीं देता था। वह था सपना। हम सब जो यहां हैं, सबके पास ऐसा एक सपना है। हमें ऐसा सपना देखना चाहिए। हमारा सपना है कि हम एक ऐसी दुनिया बनायें जहां किसी प्रकार का भेद-भाव न हो। जहां हम सब एक हों। मैं दुनिया को यह बताना चाहता हूं कि बर्कले के हर छात्र के दिल की आवाज़ है यह। हम एक ऐसी दुनिया बनाना चाहते हैं जहां 'मैं' के लिए कोई जगह नहीं है। वहां सिर्फ 'हम' और 'हमारा' के लिए जगह है। यह है हमारी पहचान, यह हैं हम।”

          अंत में, मैं यह कहना चाहता हूं, आइए, हम सबके लिए समृद्धि कमाएं। आइए, हम सारी दुनिया को एक बनाएं। यही हमारी पहचान है। यही बर्कले की आवाज़ है - 'स्व' से ऊपर उठ कर 'सर्व' की बात करने वाली आवाज़, जो इस दुनिया को बेहतर बनाना चाहती है। हर कोई कुछ धरोहर छोड़ जाने की बात करता है। हमारी धरोहर है ऐसी कक्षा साबित होना जो अच्छा व्यापार ही नहीं जानती थी, बल्कि कुछ अच्छा करने के व्यापार में विश्वास करती थी।

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शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

तोड़ो मन की बेड़ी


           

आज प्रारम्भ करते हैं रोम की एक पुरानी, लेकिन प्रेरणादायक कहानी से -           

एक बार, पड़ोसी राष्ट्र ने रोम पर आक्रमण किया। युद्ध में रोम के शासक बुरी तरह से पराजित  हुए। सम्राट को बंदी बना कर कारावास में डाल दिया गया और शहर के धनाढ्य लोगों को हथकड़ियों में जकड़ दिया गया। इन बंदियों में एक धनी लुहार भी था। बर्बर जंगली जानवरों के सामने फेंक देने के लिए, जब इन सभी बंदियों को घने जंगल में ले जाने लगे तो सभी रोने और दया की भीख मांगने लगे। केवल लुहार ही शांतचित्त बैठा हुआ था। उनमें से किसी ने लुहार से पूछा, 'क्या तुम्हें डर नहीं लगता है? आखिर तुम इतने धैर्य के साथ कैसे बैठे सकते हो?'

          लुहार ने धैर्यपूर्वक जवाब दिया, 'मैं, जीवन भर हथकड़ियां ही बनाता रहा हूं, यही मेरा  पेशा रहा है। आज तक दुनिया की ऐसी कोई हथकड़ी नहीं बनी, जिसे मैं नहीं तोड़ सकता। जब हमारे दुश्मन, हम सब को जंगल में छोड़कर वापस लौट जायेंगे तब मैं अपनी और फिर, तुम सब की हथकड़ियां तोड़ दूंगा।' दुश्मन सैनिकों के वापस चले जाने के पश्चात लुहार पल भर की देर किये बिना हथकड़ी तोड़ने में जुट गया। लेकिन, काफी कोशिशों के बावजूद भी, वह हथकड़ी तोड़ नहीं पाया। थोड़ी देर में ही मृत्यु को करीब जानकर, घोर उदासी और हताशा का भाव उसके चेहरे पर, साफ नज़र आने लगा। साथी बंदियों के द्वारा उसकी इस विचित्र मनोदशा के बारे में पूछे जाने पर लुहार ने घबराते हुए कहा, 'इस हथकड़ी पर मेरा नाम लिखा है, अर्थात इसे खुद मैंने बनाया है। मैं दुनिया की किसी भी हथकड़ी को तोड़ सकता हूं किंतु खुद, अपनी बनाई हथकड़ी मैं नहीं तोड़ सकता। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिन हथकड़ियों को मैं बना रहा हूं, वही एक दिन मेरी मौत का सबब बन जायेंगी।

          कहानी तो यहाँ समाप्त हो गई, लेकिन इसमें प्रेरणादायक क्या है?

          क्या यह सही है कि अपनी बनाई वस्तु हम नहीं तोड़ सकते? या यह हमारी-आपकी मानसिक हथकड़ी है जिसका निर्माण हम ने ही किया है और यह मान बैठे हैं कि यह हमारी ही बनाई हुई है, तो तोड़ नहीं पाएंगे। हमारे इस विश्वास ने हमें एक लंबे समय से अंधकार में डाल रखा है, काल कोठारी में बंद कर रखा है, गुलाम बना रखा है। भय की हथकड़ी, अज्ञानता की हथकड़ी, सांप्रदायिकता की हथकड़ी, जाँत-पांत, ऊंच-नीच, भाषा की हथकड़ी। और इनके अलावा लोभ, तृष्णा, पाप की हथकड़ियाँ हमने खुद बना कर पहन रखी हैं। यही नहीं अन्याय, हिंसा और पाप को सहने की हथकड़ियाँ भी। और ऐसी ही अनेक खुद की बनाई हथकड़ियों से हमने अपने-आप को जकड़ रखा है जिन्हें हम, उम्र भर तोड़ने में असफल रहे। किसी दूसरे का मुंह जोहते रहे कि कहीं से कोई आयेगा, कोई अवतरित होगा और हमें इनसे मुक्त करेगा। यही नहीं बल्कि विरासत के रूप में आने वाली पीढ़ी को ये हथकड़ियाँ सौंपते रहे। और यह कार्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता जा रहा है।

          हम यह मानते रहे कि हम पिछड़े लोग हैं। हमारा ज्ञान, हमारी विद्या, निम्न कोटि की  है। हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति, हमारा धर्म, भाषा, कला, ग्रंथ, प्रशासन, व्यवस्था, शिक्षा पद्धति हेय हैं और विश्व के मापदंड पर कहीं नहीं टिकती। हम पिछड़े हुए लोग हैं और शायद वैसे ही रहेंगे। और यह सब इस सच्चाई को जानते हुए कि हमारा अतीत महान रहा है और वर्तमान में भी हम सूचना, प्रौद्योगिकी और विज्ञान के अलावा अन्य अनेक क्षेत्रों में तीव्रता से विकास के परिणामस्वरूप साल-दर-साल हैरत अंगेज़ उपलब्धियों और कालजयी प्रगति की इबारत लिख रहे हैं।

          इन मानसिक समस्याओं का स्थायी और अचूक समाधान हमारे मन में ही बसा है। लुहार के द्वारा निर्मित हथकड़ी और उसको तोड़ नहीं पाने की विवशता और नाकामी का अक्स किसी आईने की तरह साफ-साफ़ हममें परिलक्षित होता है। अपने जीवन की इन बेड़ियों को ही हम अपनी नियति मान बैठे हैं और घोर हताशा और निराशा के साथ जीवन बिता रहे है।


          सच्चाई तो यह है कि मानव जीवन की सारी समस्याएं यहीं से शुरू होती हैं। वास्तविकता यही है कि हथकड़ी कभी भी उसे बनाने वाले से अधिक मज़बूत नहीं हो सकती। जिस वस्तु को हम खुद बनाते हैं उसे हम तोड़ भी सकते हैं, बिगाड़ भी सकते हैं और पुनः निर्मित भी कर सकते हैं। हमें इस सत्य का अहसास होना चाहिये। इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि समस्यारूपी हथकड़ियों को तोड़ने में सबसे बड़ी बाधा, हमारा अपना मानसिक अवरोध (मेंटल ब्लॉक) ही है।  अवरोध विचार का होता है, कल्पना का होता है, सोच का होता है, नज़रिये का होता है और स्वयं द्वारा रचित उस मिथ्या संसार का होता है जहां हम खुद को समस्याओं के समक्ष अक्षम, पंगु, विवश और असफल मानते हैं।

          लिहाजा अपने जीवन की कठिनाइयों और मुसीबतों की बेड़ियों को तोड़ने के लिए हमें हठी के हद तक दृड़ निश्चयी  बनना होगा। बिना हठ किये हुए और बिना मन की दृढ़ता के जीवन से स्वयं के प्रति हीन भावना कभी नहीं जाएगी। जिस दिन हम यह ठान लेंगे कि हमें इन बेकार की बाधाओं से मुक्त होना है, ये कड़ियां धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ती जाएंगी और शीघ्र ही हम उसे आसानी से तोड़ उठ खड़े होंगे।

          तब देर किस बात की, साथियों उठ खड़े होओ, अपने को पहचानो, और विश्व को बता दो कि हम किसी की संतान हैं, हम किस के वंशज हैं। हम विश्व के पीछे नहीं उससे दो कदम आगे हैं।

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