शनिवार, 16 अगस्त 2025

मैं सर्वस्व तेरा ! तेरा ही !...

 



(जन्मास्टमी पर अग्निशिखा के लिए वन्दना की विशेष रचना)

आज कृष्ण कन्हैया की वर्षगाँठ है। चारों तरफ़ उत्साह-ही-उत्साह उफन-उफन कर बह रहा है। कन्हाई के जन्मदिवस के अधिकांश संस्कार पूरे हो गये हैं। महर्षि शाण्डिल्य ब्राह्मणवर्ग के साथ यज्ञ-पूजन करवा चुके हैं। वे सभी प्रसन्न हृदय अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान कर गये हैं। गोप-गोपियाँ भी अपने-अपने उपहार अपने कुँवर कन्हाई को भेंट कर चुकी हैं। अब आयी है कृष्ण के सखाओं की बारी...

हाँ, कन्हाई के सखा भी उन्हें उपहार अवश्य देंगे, लेकिन देंगे अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार। उन बड़े-बड़े गोप-गोपियों में से तो किसी ने भेंट स्वरूप कान्हा को रत्नों का हार पहनाया, किसी ने मणियों के कंकण, कोई उसके लिए बहुमूल्य वस्त्रों का जोड़ा लाया तो कोई ले आया टोकनी-भर खिलौने !

लेकिन कृष्ण के सखाओं का उपहार इन सबसे एकदम भिन्न है-

सबसे पहले आया प्रिय सखा भद्र। छूटते ही बोला- 'कनूँ, मैं तुझे तिलक लगाऊँगा। मेरे पास तो कुछ है नहीं, तेरी ही चहेती गाय, कामदा के गोबर का टीका लगा दूँ तेरे भाल पर?'

'सच! हाँ, हाँ लगा भय्या।' अब नन्दनन्दन तो मानों हर्ष से विभोर हो उठा। कान्हा ने सोचा, अरे, इतनी महत्त्वपूर्ण बात तो महर्षि शाण्डिल्य तक को न सूझी, और उसका सखा भद्र कितना बुद्धिमान् है। भला गोपकुमार का तिलक गोमय के बिना कैसे सम्पूर्ण हो सकता है? भद्र ने अक्षतों के नीचे, ठीक भ्रूमध्य में अपनी अनामिका से गोबर का एक छोटा-सा बिन्दु सजा दिया। कृष्ण अब सब को दौड़-दौड़ कर अपने माथे का तिलक दिखला रहा है और हर्षातिरेक से कहता जा रहा है- 'भद्र ने लगाया है, मेरे भद्र ने!'

और इसके साथ ही सखाओं के अद्वितीय, अनुपम उपहारों का क्रम चल पड़ा... तोक कहीं से एक तिरंगा पुष्प ले आया है- श्याम-श्वेत-अरुण तीनों रंगों की आभा उस फूल की छटा को ऐसा निखार रही है कि कृष्ण उसे अपनी हथेली पर धरे सभी जगह चक्कर लगा-लगा कर अपने मित्र के द्वारा दिये अमोल उपहार के लिए प्रशंसा बटोरता फिर रहा है, झूम-झूम कर हर एक को उसके दर्शन करा रहा है। उसके नेत्र, उसका उल्लास मुखरित हो पूछ रहा है- 'ऐसी अद्भुत वस्तु है किसी के पास? क्या कोई भी रत्न इस अपूर्व निधि के सामने ठहर सकता है?' और उधर तोक... एक छोटे-से उपहार को दे उसने तो मानों सारा त्रिभुवन अपनी मुट्ठी में समेट लिया। हर्ष का पुतला बना वह भी अपने सखा, यानी अपने सर्वस्व के साथ परछाई की तरह फिर रहा है, क्या वही अकेला उनके साथ है? नहीं, नहीं... कान्हा के उतावले मतवाले सभी सखाओं में अपने-अपने उपहार देने की होड़ मची है, कुछ धक्कम-धक्का भी हो रही है, हर एक अपनी भेंट सखा को पहले थमाना चाहता है। कोई नयी-नयी किसलयों का हार पहना रहा है, किसी के हाथ में मोरपंख का गुलदस्ता है, किसी की हथेली यमुनाजी के तट की बालू से सने छोटे-छोटे पत्थरों से भरी है तो कोई और चित्र-विचित्र जंगली फूलों को थाली में सजाये खड़ा है - जितने सखा उतने उपहार और उससे भी सहस्रगुना प्रेम - कन्हाई तो उस बाढ़ में बह गया। सुध-बुध खो बैठा, प्रत्येक भेंट को सिर-आँखों से लगा, निहाल हो उठा।

यह सच नहीं कि अपने अग्रजों द्वारा दिये उपहारों से कान्हा कम आनन्दित हुए थे, लेकिन सखाओं के फूल-पत्ते, कंकड़-पत्थर, पंख आदि पाकर तो यह कन्हाई ऐसा नाचता-कूदता-फाँदता फिर रहा है जैसे धरती पर साक्षात् हर्षोल्लास मूर्तिमान् हो उठा हो! बड़ी देर बाद जब कृष्ण तनिक अपने-आपे में आया तो मैया और बाबा ने बड़े स्नेह से कहा- 'लाल, अब अपने सखाओं को भी उपहार देकर उनका सत्कार करो।'

और कन्हाई दौड़ आया उस राशि के समीप जो मैया ने सजा रखी थी। इस बार यशोदाजी ने अच्छी तरह समझा दिया था नन्द बाबा को इसीलिए बाबा ने महीनों लगाये हैं उपहारों के चयन में, बहुत प्रयत्न करके दूर-दूर से मँगवाये हैं। लेकिन कोई प्रयास सफल नहीं हुआ। उन बहुमूल्य उपहारों में से कोई भी कृष्ण को ऐसा नहीं लगता है जिसे वह अपने किसी भी सखा को दे सके, एक भी उसकी आँखों में नहीं जँचा, उसके हृदय को नहीं भाया। सखाओं के दिये पंखों, पत्थरों, पुष्पों के अतुल्य उपहारों के सम्मुख मणिरत्न-जटित वे सभी उपहार उसे तुच्छ प्रतीत हो रहे थे। बार-बार उसका हाथ अपने भाल पर भद्र द्वारा लगाये गोबर के तिलक पर पहुँच जाता और वह निहाल हो उठता, साथ ही बहुत खिन्न भी, क्योंकि... क्या दे वह अपने मित्रगण को ??? विशाल, अञ्जन रञ्जित कमल लोचन भर आये नन्दनन्दन के। प्रत्येक, प्रत्येक वर्षगाँठ पर ठीक यही दृश्य उपस्थित होता है

कन्हाई की भौहों पर बल पड़े, वह सोचने लगा, सोचता रहा... त्रिभुवन की कोई वस्तु उसे ऐसी न लगी जिसे देकर वह कृतकृत्य हो सके, सन्तोष से ओत-प्रोत हो जाये...। तब ?

कन्हैया ने बलदाऊ को निहारा। दाऊ की आँखों में झांकते ही श्यामसुन्दर हर्षातिरेक से विह्वल हो उठा। उन नयनों से सच्चे प्रेम की जो अजस्र कौंधें छिटक रही थीं उनमें कान्हा ने अपना उपहार पा लिया...। और फिर उसने सामने खड़े भद्र को अपने आलिंगन में जकड़ लिया वाणी नहीं फूट रही, लेकिन कान्हा का रोम-रोम पुकार रहा है, "सखे ! यही है मेरा प्रतिदान 'मैं तेरा, मैं तेरा'।"

तोक, सुबल, श्रीदाम एक-एक को अपने बाहुपाश में बाँध कर कन्हैया सुध-बुध खो बैठा है। प्रत्येक सखा उससे लिपट कर अन्तरतम में यही अनुभव कर रहा है कि साँवरा उसी का प्रियतम सखा है, क्योंकि हर एक को अंक में भर कर कृष्ण का रोम-रोम यही गुञ्जारित-प्रतिगुञ्जारित कर रहा है "मैं सर्वस्व तेरा हूँ, तेरा ही हूँ।"

भक्त को दिये भगवान् के इस उपहार के सम्मुख ब्रह्माण्ड का कौन सा उपहार टिक सकता है भला?

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शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

समाज का रोग


 

(खलील जिब्रान के एक अर्थपूर्ण विचार पर आधारित।)

मेरी एक दाढ़ में लगा कीड़ा मुझे बहुत तकलीफ देता था। वह दिन की चहल-पहल में तो चैन से बैठा रहता लेकिन रात की खामोशियों में, जब दांत के चिकित्सक आराम से सो जाते तब वह बेचैन हो उठता। एक दिन मेरा धीरज पूरी तरह समाप्त हो गया और मैंने अपने दंत-चिकित्सक से उस दाढ़ को निकाल देने का अनुरोध किया और बताया कि उसने मेरी नींद का सुख छीन लिया है और मेरी रातें आहें भरते हुए कटती है।

लेकिन चिकित्सक सहमत नहीं था। उसने कहा, "जब दाढ़ का इलाज हो सकता है, तब उसे निकालना मूर्खता है।" उसने दाढ़ को इधर-उधर से खुरचना शुरू किया और उसकी जड़ों को साफ कर दिया। अजीब-अजीब तरीकों से रोग को दूर करने के बाद, जब उसे विश्वास हो गया कि दाढ़ में एक भी कीड़ा बाकी नहीं रहा है तो उसके छेदों को उसने एक विशेष प्रकार के सोने से भर दिया और गर्व के साथ कहा, "अब तुम्हारी यह दाढ़ नीरोग दाढ़ों से अधिक मजबूत हो गई है।"

मैं निश्चिंत होकर खुशी-खुशी वापस चला आया। लेकिन अभी एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि कमबख़्त दाढ़ में फिर से असहनीय तकलीफ शुरू हुई। इस बार मैं दूसरे डाक्टर के पास गया और साफ तौर पर उससे कहा, "इस खतरनाक सुनहरी दाढ़ को बिना किसी हिचकिचाहट के निकाल फेंकिये।" डाक्टर ने दाढ़ निकाल दी। वह घड़ी यद्यपि यातनाओं और कष्टों की दृष्टि से बड़ी भयंकर थी, डॉक्टर को भी बड़ी मेहनत करनी पड़ी फिर भी वास्तव में वह बहुत ही शुभ घड़ी थी।

          दाढ़ को निकाल देने और उसकी अच्छी तरह देखभाल कर लेने के बाद डाक्टर ने कहा, "आपने बहुत अच्छा किया। कीड़ों ने इस दाढ़ में मजबूती से जड़ पकड़ ली थी और उसके अच्छे होने की कोई आशा नहीं थी।" उस रात मैं बड़े आराम से सोया। अब भी आराम से हूं और दाढ़ निकल जाने पर भगवान को धन्यवाद देता हूं।

          हमारे मानव-समाज में बहुत-सी दाढ़ें ऐसी हैं, जिनमें कीड़े लगे हुए हैं और उनका रोग शरीर की हड्डी तक पहुंच गया है। परंतु मानव-समाज उसे निकालने की तकलीफ से बचने के लिए दाढ़ें नहीं निकलवाता, बल्कि महज लीपा-पोती कर संतोष मानता है। वह उन्हें हर बार साफ करवा कर उसके छेदों को चमकदार सोने से भर देता है, और बात वहीं-की-वहीं, बस!

          बहुत से ऐसे डॉक्टर हैं, जो मानवता की दाढ़ों का इलाज आंखों को लुभाने वाले सोने के पानी और चमकदार वस्तुओं से करते हैं, और बहुत-से रोगी ऐसे हैं, जो अपने को इन सुधार-प्रिय चिकित्सकों के हवाले कर देते हैं और रोग के कष्टों को सहते-सहते अपने को धोखा देकर मर जाते हैं। वह समाज, जो एक बार बीमार होकर मर जाता है, दोबारा जीवित नहीं होता। वह संसार के सामने अपने आत्मिक रोगों के कारणों और सामूहिक दवाओं की वास्तविकता नहीं बता सकता, जिनका प्रयोग करने से समाज पतन और विनाश की खाई में गिर जाते हैं।

          हमारे समाज के मुंह में भी जीर्ण-शीर्ण, काली, गंदी और बदबूदार दाढ़ें हैं। चिकित्सकों ने चाहा भी कि उन्हें साफ करके उनके छेदों को चमकदार चीजों से भर दें और ऊपर सोने का पानी चढ़ायें। पर रोग दूर नहीं हुआ और तब तक दूर नहीं हो सकता जब तक इन दाढ़ों को उखाड़ फेंक न दिया जाये। फिर जिस समाज की दाढ़ में कोई रोग हो तो उसका पेट भी कमजोर हो जाता है। और बहुत-से समाज ऐसे हैं, जो पाचन-शक्ति के खराब हो जाने से मौत के मुंह में जा पहुंचे हैं।

          अगर कोई कीड़ा लगी दाढ़ें देखना चाहता है तो उसे पाठशाला में जाना चाहिए, जहां हमारे बच्चों को घिसी-पिटी बातों को ही सिखाया जा रहा है, जिनका उन्हें उनके जीवन में आगे चलकर कोई उपयोग होने वाला नहीं है। या फिर उसे अदालत में जाना चाहिए, जहां मार्ग भ्रष्ट बुद्धि कानून के आदेशों से इस प्रकार खेलती है, जिस प्रकार बिल्ली अपने शिकार से। 

          और उसके बाद उन नरम और नाजुक उंगलियों वाले दांतों के वैद्यों के पास भी जाना चाहिए, जिनके पास सूक्ष्म उपकरण और बेहोश करने वाली दवाएं हैं और जो कीड़ा लगी दाढ़ों के छेदों को भरने और उनकी सड़ी-गली जड़ों को साफ करने में अपना समय बिताते हैं। जब कोई उनसे बातें करता है, तो वे धारावाहिक भाषण देते हैं, सभा सम्मेलन आयोजित करते हैं, और ऐसे जोरदार लेख लिखते हैं, जिनसे आग की चिनगारियां निकलती हैं। उनके भाषणों में एक गीत होता है, जो चक्की के पाटों के गीत से ऊंचा और बरसात की रातों में मेंढक की टर्राहट से अधिक आकर्षक होता है।

          पर जब कोई ऐसे चिकित्सक से कहता है कि, "हमारा समाज अपने जीवन का भोजन कीड़ा लगी दाढ़ों से चबाता है, इसलिए उसके हर निवाले में जहरीली लार मिली होती है, उस विषैली लार ने उसकी आंतें लगभग बेकार कर दी है।" तो वह उत्तर में कहता है, "जी हां। आप चिंता मत कीजिये उसके लिए हमने एक नई दवा की खोज ली है, जिससे यह दुरुस्त हो जाएगा।" जब कोई इन दाढ़ों को निकलवाने के बारे में बात करता है तो वे सहमत नहीं होते, क्योंकि उन्होंने दांतों का अच्छा इलाज नहीं सीखा है। अपने आप को बचाए रखने वे नाराजगी के स्वर में चिल्ला कर कहते हैं, "कैसे हैं दुनिया में इस विचार के बंदे और कितने बेबुनियाद हैं इनके विचार!"

          दुर्भाग्य से हमारा समाज ऐसे वैद्यों से भरा पड़ा है। वे अनेक ओहदों पर विराजमान हैं। अपने लिए और समाज के लिए अलग-अलग मापदंड बना रखे हैं। जब भी कोई उन दांतों को उखाड़ फेंकने की बात करता है सब एक हो कर इन दांतों, बीमारों और वैद्यों को बचा लेते हैं।

          लेकिन अब इनका दर्द इलाज करने से नहीं इन्हें उखाड़ फेंकने से ही होगा।  समाज से ऐसे डॉक्टरों को, जिनके मापदंड अपने लिए और समाज के लिए अलग-अलग हैं, उखाड़ फेंके और सामाजिक उत्थान और सौहार्द का हिस्सा बनें।

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शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

युद्ध का सच

  


(शशिकांत ने गिद्ध परिवार के माध्यम से युद्ध का मर्मस्पर्शी चित्र बनाया है। चित्रित दृश्य की कल्पना कर घिन सी आई, उल्टी होते-होते बची लेकिन सच्चाई भी यही है। आँखें बंद कर लेने मात्र से सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता।  विश्व में देशों के मध्य चलने वाले युद्धों के बारे में ही नहीं बल्कि शहर, गाँव, मुहल्ले में चलने वाले “युद्धों की बाबत भी सोचिए! हकीकत यही है। जगह-जगह अंतहीन युद्ध चल रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद युद्धों को रोकने के लिए बनी वैश्विक संस्थाओं को विश्व के शक्तिशाली देश अपनी जेब में लिए घूमते हैं और शांति के नाम पर एक-दूसरे के विरोधी पक्ष का सहयोग कर युद्ध को बढ़ावा देते हैं। विश्व की शक्तियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसमें शामिल हैं और अपनी-अपनी गोटियाँ चल रहे हैं। सबों ने नकाब पहन रखे हैं, लेकिन खोजी आँखें सब देख लेती हैं।

 

नर गिद्ध के साथ उसका बेटा मांस नोच रहा था। उसकी मादा गिद्ध मांस नोचने नहीं आयी थीउसने युद्ध के लम्बा चलने की कामना की सिद्धि के लिए उपवास रखा था और सरदार गिद्धों की पूजा करने गयी थीयुद्ध और शांति दोनों उन्हीं के हाथ में था। बालक गिद्ध मानव को धन्यवाद दे रहा था जो एक दूसरे पर बम मारकर उनके लिए महाभोज का आयोजन कर रहे थे। वह सोच रहा था कि मानव कितना दयालु होता जो धन, ज़मीन, भाषा, रंग, नस्ल, धर्म, जाति सबके लिए लड़ता है, कत्लेआम करता है ताकि दूसरे जीवों का पेट भर सके। बेटा बोल रहा था - 'पापा, आदमी नहीं होते तो हमें खाने को नहीं मिलता, कितने अच्छे होते हैं वे। हम तो फिर भी चोंच और पंजों से लड़ते हैं लेकिन वे बेचारे तो बम मारते हैं एक दूसरे के घरों परबहुत अक्लमंद होते हैं, है न पापा ?'


          नर कुनमुनाया और बोला- 'तू फिर सोचने लगा? अक्ल एक बीमारी है, इससे दूर रहा कर। इस अक्ल के कारण ही ये एक दूसरे को मारने के नित-नए अजूबे तैयार करते हैं। जो ज्यादा अक्लमंद था पहले से ज्यादा विनाशकारी बंदूक, गोली, बम बना गया। ताकि आसानी से दूसरे का ज्यादा-से-ज्यादा खून बहा सके। जो ज्यादा दिमागधारी होते हैं खुद को तो बचा कर रखते हैं लेकिन दूसरों की बस्तियों पर बम उनके इशारे से ही बरसाए जाते हैं।

          बेटे ने हंसते हुए कहा- 'पापा बेचारे आदमियों ने अपनी जान दे दी हमारा पेट भरने के लिएउन्हें एक बार थैंक यू तो बोल दोतुम तो आदमियों की तरह भाषण देने लगे'

          बाप ने गुर्राकर कहा- 'आदमियों का खून पिया है तो उनकी ही भाषा बोलूंगालाशों पर खड़े होकर भाषण देने का रिवाज है बेवकूफतुम देखना अभी जो लोग जंग को जारी रखने के लिए जोशीले भाषण दे रहे हैं, वही लोग अमन पर भाषण देने भी आयेंगेदुनिया पर जब उनका दबदबा कायम हो जायेगा तो उन्हें खून-खराबे से नफरत हो जायेगीजंग कराने वाले ही जंग रोकने की अपील करेंगेआदमियों की दुनिया अजीब है बेटा, यहां मारने वालों की पूजा होती है'

          बेटा एक बच्चे की लाश पर बैठकर उसे नोचने लगा। बाप को गर्व था कि बेटा लाशों में फर्क नहीं करता, उसने आवाज़ दी, 'आराम से, अभी लड़ाई लम्बी चलेगी'

          'पापा, बम बच्चों को भी नहीं छोड़ता?', बेटे ने पूछा

          बाप ने घूरते हुए कहा- 'जब बम मारने वालों को बच्चों पर दया नहीं आयी तो तेरी छाती क्यों फट रही है? बम किसी को नहीं पहचानता, अपने मालिक को भी नहीं।

 

          बेटा अभी भी आदमियों के आभार से दबा जा रहा थाउसने एक और सवाल किया- 'पापा, बम मारने वाला मिले तो हम उसको धन्यवाद ज़रूर बोलेंगेमगर पता ही नहीं चलता कि मारता कौन है और मरता कौन ?'

          'बेटा, मरता तो वही है जो हर मौसम में, हर हाल में मरने के लिए बना हैबाढ़, सूखा, महामारी, बीमारी, भुखमरी, इन सबसे जो संयोग से नहीं मरा वह जंग में मारा जाता हैएक गरीब के हाथ में बंदूक पकड़ाकर दूसरे गरीब को गोली मरवाई जाती हैबंदूक और गोली तीसरे की होती है जो जंग में कहीं नहीं दिखतामारने वाला हर जगह होता हैकोई भी मारने वाले की बात नहीं करता'

          बेटे पर अचानक आदमियत का दौरा पड़ गया, 'जो मारे गये उनकी क्या गलती थी ?'

          'कमाल हैअभी तू आदमियों को थैंक यू बोल रहा था, अभी उन्हें कोसने लगाबाघ पकड़ने के  लिए पिंजरे के बाहर बकरी बांध दी जाती है कि नहीं? बकरी की क्या गलती? उसकी गलती यही है कि वह बकरी हैशिकारी और बाघ के बीच में उसका केवल इस्तेमाल होता है, मरती है तो मरे'

          बच्चा बेचैन था, बोला- 'पापा,  एक बात समझ में नहीं आयी युद्ध होते ही क्यों हैं?'

          पापा गिद्ध को पता था कि जानबूझकर सवाल उठाना इस पीढ़ी को पसंद है जबकि सवाल उठाना खतरनाक खेल होता हैउसने हंसते हुए कहा- 'युद्ध नहीं पुत्र मेला कहो, मौत का मेलामेले का आयोजन व्यापारी लोग करते हैं जिसमें उनके माल की खपत हो जाती हैबंदूक, बारूद, बम, मिसाइल, टैंक, तोप, प्लेन इनके व्यापार में अरबों की पूंजी फंसी होती हैखरीदने के लिए कोई तभी तैयार होगा जब उसकी खपत होगीमेला इसीलिए लगाया जाता है कि व्यापारियों का माल बिक जायेमौत का मेला लगाकर पुराना माल खपाया जाता है ताकि नये माल बने, नया घपला हो, नये अवसर पैदा किये जा सकें'

 

          सुनते-सुनते बच्चा थक गया, उसका दिमाग सुन्न होने लगा और उसे नींद आ गई।



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शुक्रवार, 20 जून 2025

अपना उत्तरदायित्व निभाएँ

  


पश्चिम बंगाल में काला धुएँ को छोड़ने वाली टॅक्सी पर कार्यवाही हुई।  बंगाल में ही बेवजह प्रोविडेंट फ़ंड के वर्षों से अटके पैसों का भुगतान एक महीने के अंदर कर दिया गया। सांसदों द्वारा विदेश यात्रा पर किये जाने वाले अत्यधिक खर्चों पर रोक लगी।

मध्यप्रदेश में सरकार से इंडियन चाइल्ड लेबर प्रोजेक्ट के अंतर्गत 38,800 रुपयों में मिलने वाले  जिस किट्स को किसी ने  1,40,000 में खरीदा था, उसे 80,000 रुपए वापस मिले।

महाराष्ट्र के मुंबई जेल में 4 वर्षों से निलंबित पड़े मोबाइल जैमर्स, महीने भर के अंदर लगा दिये गये।  ठाणे जिले में महाराष्ट्र इम्प्लॉइमेंट गौरंटी स्कीम के अंतर्गत व्याप्त भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ हुआ। 

कर्नाटक में एक कॉलेज के प्राध्यापक को जिसे तीन वर्षों तक बिना एक भी कक्षा के, मासिक 27,490 रुपए का भुगतान किया जा रहा था अन्य कॉलेज में स्थानांतरित कर दिया गया। जीवन बीमा विभाग ने महीनों से अटकी बीमा राशि का भुगतान नामांकित व्यक्ति को कर दिया।

गुजरात में पंचायत सोशल जस्टिस कमेटी के गठन में वर्षों से लगाई जाने वाली बाधा दूर हुई, और अविलंब कमेटी का गठन हो गया।

छत्तीसगढ़ के एक नागरिक, जिसका नाम बीपीएल की सूची में शामिल नहीं किया जा रहा था, शामिल हुआ।

गुजरात में सरकार से अनुदान मिलने पर भी छात्रों को नि:शुक्ल शिक्षा न देकर उन्हे मासिक शुल्क देने के लिए बाध्य किये जाने वाले विद्यालय और शिक्षकों पर कार्यवाही हुई। 

छत्तीसगढ़ में गाड़ी विक्रेता और मोटर कार विभाग के मिलीभगत द्वारा चल रही जालसाजी का भंडाफोड़ हुआ।

दिल्ली के लोक निर्माण कार्यालय में व्याप्त अनियमिततायेँ प्रकाश में आईं।

          ये घटनाएँ हमारे देश की ही हैं। ये तो बस कुछेक उदाहरण हैं। इसे कराने वाले वे लोग थे जो मानते हैं कि यहाँ भी हो सकता है। लेकिन क्या हमने कभी प्रयास किया है?’ दुर्जन हमारे भय, स्वार्थ और निष्क्रियता पर जीता है। अपने  डर को बाहर निकाल कर फ़ेंक दीजिये और फिर देखिये कैसे मौसम बदलता है।

          तो हम करें क्या? हमें अपने अधिकारों का प्रयोग करना है। सही वक्त पर चुप्पी साधना अत्याचार को बढ़ावा देना है। यह समझना होगा कि अत्याचार करने वाले से अत्याचार सहने वाला ज्यादा गुनहगार है। अन्धकार काले बादलों के आने से नहीं, सूर्य के अस्त होने से होता है। अतः काले बादलों से बिना डरे सूर्य को अपना तेज बनाये रखना होगा। अगर हम ऐसा कर सके तो राम राज्य को कोई भी नहीं रोक सकता।

हम यह गाते हैं:

जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा,

यह भारत देश है मेरा, यह भारत देश है मेरा ।

 

क्या ऐसा है? नहीं! लेकिन इसके लिए हम कर क्या रहे है? हमारी नागरिकता केवल एक वोट डालने तक सीमित नहीं है। हम यह समझते क्यों नहीं कि हम 24 X 7 भारत के नागरिक हैं! हमारा अधिकार सिर्फ वोट देने तक सीमित नहीं है बल्कि उसकी निगरानी रखने की भी है।

          यह तो समझना ही होगा कि कुछ होगा तो किसी के वह कुछ करने से ही हो होगा। कहीं न कहीं, कोई न कोई तो पीछे लगा होगा तभी हमारे देश में हर खाने की सामग्री पर लाल और हरा का निशान लगाना शुरू हुआ, खुदरा विक्रय मूल्य का छापना प्रारम्भ हुआ। अनेक भ्रमित करने वाले विज्ञापनों पर रोक लगी। जन एवं लोक प्रिय व्यक्तियों द्वारा अंधाधुंध, बिना जाने-परखे, समर्थन देने वाले विज्ञापनों में कमी आई। ऐसी घटनायें एक दो नहीं बल्कि हजारों की संख्या में है। वर्ष में केवल एक ही ऐसा कार्य करें तो प्रशासक, विधायक, संरक्षक को अहसास कराने के लिए काफी है कि अब वैसे नहीं चलेगा जैसा चलता रहा है। हमें अपने जान-माल की परवाह होती है, इसलिए हम ऐसा कोई भी कदम उठाने में हिचकिचाते हैं। लेकिन ऐसे अनेक कार्य हैं जहां बिना जान-माल को खतरे में डाले हम जागरूक हो सकते हैं और परिस्थितियों को बदल सकते हैं।

          ऊपर लिखे सब कार्य सूचना के अधिकार (राइट टू इन्फॉर्मेशन एक्ट) के प्रयोग से हुआ। इसका प्रयोग बहुत ही सरल और आसान है। न तो जिद्दोजहद है और न ही विशेष खर्च। न जान-माल का खतरा। अब तो घर बैठे कम्प्युटर या मोबाइल फोन के जरिये भी आवेदन किया जा सकता है। हम अपने शहर में  बैठ कर देश के किसी भी कोने से सूचना के लिए आवेदन पर सकते हैं। यह सही है कि हमने कई बार अखबारों में पढ़ा है कि इस नियम का प्रयोग करने वालों को डराया, धमकाया और मारा भी गया है। यहाँ यह बात साफ समझ लेनी चाहिए कि ऐसी अवस्था केवल उन लोगों की हुई जिनका मकसद राजनीतिक लाभ उठाना, खबरों से सनसनी फैला कर टीआरपी-धन-नाम कमाना था, या फिर व्यापक सुधार में लगे थे। याद रखें उद्देश्य दोष को मिटाना है, दोषी को नहीं। जब हम दोष के बदले दोषी को मिटाने में लग जाते हैं तब मीठा और नमकीन दोनों ही चखने  के लिए तैयार रहना पड़ता है।

          सूचना के अधिकार का प्रयोग करें। अगर केवल 10 प्रतिशत जनता भी इसका प्रयोग करती है तो सालाना 15 करोड़ आवेदन होते हैं। इसका असर दिखने लगेगा। इसका प्रयोग आसान भी है और गूगल / इंटरनेट पर इसकी पूरी जानकारी उपलब्ध भी है। इंटरनेट के अलावा बाज़ार में इसकी विस्तृत जानकारी देने वाली पुस्तकें भी उपलब्ध हैं। केवल सूचना की मांग ही अनियमितता को दुरुस्त कर देती है। अगर इसका प्रयोग करें तब देख पाएंगे कि यहाँ भी काम सही ढंग से होने लगे हैं

          अगर हम बदलाव चाहते हैं, तब कुछ तो करना ही होगा। सबसे पहले अपनी नहीं किसी और की या सार्वजनिक समस्या को दुरुस्त करने का प्रयास कीजिये। यह उतना कठिन भी नहीं है जितना हमें लगता है। यह न सोचें कि मेरे अकेले के करने से क्या होगा? अणु-परमाणु के एक न दिखने वाले कण की ऊर्जा का हमें अंदाज़ है। कुछ समय पहले हमने कोरोना के न दिखने वाले वाइरस की लीला भोगी है। इस एक में अपूर्व शक्ति है  इस पर विश्वास रखें, अधिकार का समुचित प्रयोग करें।

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  (जन्मास्टमी पर अग्निशिखा के लिए वन्दना की विशेष रचना ) आज कृष्ण कन्हैया की वर्षगाँठ है। चारों तरफ़ उत्साह-ही-उत्साह उफन - उफन कर बह रहा ...