शुक्रवार, 11 अप्रैल 2025

क्षमा

 



महाभारत में द्रौपदी को एक उग्र, वीर और प्रतिशोधी महिला के रूप में दर्शाया गया है।  लेकिन श्रीमद्भागवतम् में द्रौपदी को अश्वत्थामा के प्रति, जिसने उसके पांच शिशु पुत्रों, "उप-पांडवों" की निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी थी, जो एक क्रूर और कायरतापूर्ण कृत्य था, के प्रति  बहुत दया और क्षमा रखने वाली नारी के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

          जब अश्वत्थामा ने पांच उप-पांडवों का नाश कर दिया, तब दुर्योधन भी दुखी हो गया था। उधर द्रौपदी ने कोई बदला लेने वाला शब्द नहीं कहा, बल्कि केवल रोई और दुख से अभिभूत हो गई। अर्जुन ने उसके दुख की गहराई को महसूस किया और उससे कहा कि वह अश्वत्थामा को मार देगा। अर्जुन और कृष्ण अश्वत्थामा का पीछा करते हैं, जिसने "ब्रह्मास्त्र" का प्रयोग किया हालांकि उसे इस अस्त्र के बारे में केवल आंशिक जानकारी है। अर्जुन को अपने ब्रह्मास्त्र मिसाइल से इसका मुकाबला करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप एक भयानक आग लग जाती है। कृष्ण के विचारों से सहमत होकर, अर्जुन दोनों मिसाइलों को वापस ले लेता है और द्रोण के बेटे को बंदी बना लेता है। कृष्ण अर्जुन से द्रौपदी को दिए गए वचन को पूरा करने के लिए अश्वत्थामा का सिर काटने का आग्रह करते हैं, लेकिन पांडव नायक सुझाव को अस्वीकार कर देता है और अश्वत्थामा को द्रौपदी के पास ले जाता है। यहाँ परिस्थिति बदल जाती है, अब जो होता है, उसे देखकर हम अवाक रह जाते हैं।

          अश्वत्थामा को उस अवस्था में - पशु की भाँति बँधा हुआ तथा अपने ही घृणित कृत्य पर लज्जित होकर सिर झुकाए हुए देखकर कुलीन पांचाली को दया आ गई। दौपदी  बंदी अश्वत्थामा, जो गुरु द्रोण का पुत्र था, को दण्डवत प्रणाम करती है। द्रोण के पुत्र को बंधुआ अवस्था में देखकर वह अत्यन्त व्याकुल होकर चिल्ला उठी, उसे छोड़ दो! उसे छोड़ दो! वह ब्राह्मण है तथा हमारे गुरु का पुत्र होने के कारण आदरणीय भी है। गुरु-पुत्र के रूप में, आप, स्वयं गुरु द्रोणाचार्य के सम्मुख खड़े  हैं.... मैं नहीं चाहती कि अश्वत्थामा की माता, द्रोण की पतिव्रता पत्नी, अपने पुत्र की मृत्यु के कारण मेरे समान आँसू-भरी हुई मुखाकृति बनाए।" अर्जुन अश्वत्थामा की शिखा और शिखा-मणि को काटने के बाद उसे छोड़ देते हैं।

          द्रौपदी की भावना की सुंदरता, कुलीनता और उदारता को देखिए, खासकर यह भावना कि अश्वत्थामा की माँ को वैसा दुःख न सहना पड़े जैसा उसे महसूस हो रहा है। यही है सच्चा परिष्कार और संस्कृति, न कि कला, कविता या संगीत।

          इसे कहते हैं क्षमा। जब अपराधी आपके सामने दयनीय अवस्था में हो, वह कुछ भी न करने की स्थिति में हो, आप उसके प्राण भी ले सकते हों और आप के प्रति उसने जघन्य अपराध किया है तब भी आप क्रोधित न हों, सही और गलत का भेद कर सकें, और इस अवस्था में भी जब आप उसे क्षमा करते हैं तभी क्षमा की शोभा है।

          शास्त्र कहते हैं - “क्षमा वीरस्य भूषणम”, यानि क्षमा वीरों का आभूषण है। गांधी ने भी कहा है – कमजोर व्यक्ति कभी क्षमा नहीं कर सकता। क्षमा करना शक्तिशाली व्यक्ति का गुण है।“ रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं - 

                    क्षमा शोभती उस भुजंग को,

                                                            जिसके पास गरल हो।

                              उसको क्या जो दंतहीन,

                                                            विषरहित विनीत सरल हो।

 

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

चैनल को  जरूर से

लाइक, सबस्क्राइब और शेयर

करें।

यू ट्यूब पर सुनें :

https://youtu.be/3kJ1RvB34wQ

शुक्रवार, 21 मार्च 2025

... सत्याद्पि हितं वदेत


           

हमारे प्राचीन ग्रन्थों के कई पात्र जिन्हें सदियों से हम आदर्श चरित्र के रूप में मानते रहे, प्रेरणा के स्त्रोत के रूप में जिनकी चर्चा करते रहे, आधुनिक युग में उन्हें कटघरे में बैठाया जाता है। और ठीक इसके उलट भी, त्याज्य चरित्रों के प्रति सहानुभूति दर्शाई जा रही है, उस ग्रंथ के रचयिताओं को कटघरे में बैठाया जाता है, कि उन्होंने उनके साथ अन्याय किया है। लेकिन वहीं जब किसी योग्य पात्र को समुचित सम्मान प्राप्त नहीं होता तब हमें उनकी जीवन यात्रा पर दृष्टिपात करना होता है। जब कोई  विद्वान इस पर विचार करता है तो वह कारण भी ढूंढ ही लेता है।

          कौरवों की सभा में भीष्म ने द्रौपदी का भयंकर अपमान देखकर भी जिस प्रकार मौन धरण किया था उसके लिए उन्हें आजतक क्षमा नहीं किया गया। हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि एक बार उनके परम-मित्र ने इस घटना का जिक्र करते हुए उन्हें कहा कि देश की दुर्दशा देखते हुए भी जिस प्रकार द्विवेदी जी और उन जैसे साहित्यकार चुप्पी साधे बैठे हैं तो भविष्य उन्हें क्षमा नहीं करेगा।  द्विवेदी जी अभिभूत हो गए, पापबोध से ग्रस्त हो गए। सोचने लगे भविष्य की कौन कहे वर्तमान ने भी तो क्षमा नहीं किया। और भविष्य की कोई सीमा भी नहीं है। पाँच हजार वर्ष बीत गये और बेचारे भीष्म को आज तक क्षमा नहीं किया गया। कमबख्त भविष्य बड़ा निर्दयी है। कई दिनों तक बेचैन रहने के बाद उन्हें अहसास हुआ कि वे हिन्दी साहित्य के भीष्म नहीं हैं, उनसे ज्यादा ज्ञानी-गुणी, बुजुर्ग, प्रतिभा सम्पन्न लोग हैं, तब उन्हें इस भविष्य से कोई डर नहीं है। यह सोच कर कि वे न तीन में हैं न तेरह में, यथार्थ बोध हुआ और राहत मिली। लेकिन भीष्म उनके दिलो-दिमाग पर छाए रहे।


          एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा। मित्र का उलाहना द्विवेदी जी के दिलो-दिमाग पर छाया हुआ था ही कि उन्हें एक बहुत पुरानी शांतिनिकेतन की घटना स्मरण हो आई। वे और आचार्य  क्षितिमोहन प्रातः टहल रहे थे कि उनकी नजर गुरुदेव, रवीन्द्र नाथ ठाकुर पर पड़ी। दोनों लपकते हुए उनके पास जा पहुँचें। अभिवादन का दौर समाप्त होते ही गुरुदेव ने द्विवेदी जी से पूछ लिया, “तुमने कभी विचार किया है, भीष्म को कभी अवतार नहीं माना गया और श्री कृष्ण को ही अवतार क्यों माना गया?” द्विवेदी जी क्या जवाब देते, सकपकाते हुए बोल पड़े – नहीं कभी सोचा नहीं है, लेकिन आज जब आप ने पूछ लिया तो सोचूंगा।  लेकिन इस संबंध में क्या सोचूँ?’ कुछ सुझाव दें। गुरुदेव हँसते हुए बोले, “शर-शय्या पर पड़े-पड़े उन्होंने नर-संहार देखा होगा, अपना पूरा जीवन उनकी आँखों के सामने से गुजरा होगा, उस पर विचार भी  किया होगा।“

          द्विवेदी जी ने देखा भीष्म पड़े हैं और उनकी आँखों के सामने उनका पूरा जीवन एक चलचित्र के समान घूमने लगा। एक विकट प्रतिज्ञा जिसके कारण देवव्रत से भीष्म बन गये। लेकिन वह प्रतिज्ञा क्यों की? अपने पिता की गलत आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए! और उस प्रतिज्ञा से जिंदगी पर चिपटे रहे! सही दृष्टिकोण से विश्लेषण किया जाए तो चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य के बाद कुरुवंश  का रक्त तो समाप्त हो गया, वह रहा ही कहाँ? केवल कानूनी तौर और मान्यता के आधार पर ही तो! जब अपने भाइयों के लिए कन्याओं का अपहरण कर लाये और एक कन्या को केवल अविवाहित रहने पर मजबूर ही नहीं किया बल्कि उसे समझाने तक सीमित नहीं रहे उससे युद्ध भी किया। कर्तव्य छूट गया लेकिन अपनी प्रतिज्ञा में बंधे रहे।

          “सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्याद्पि हितं वदेत”  यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो

लेकिन भीष्म चूक गए। भीष्म ने दूसरे पक्ष, सत्याद्पि हितं वदेत, की उपेक्षा की।  वह 'सत्यस्य वचनम्' को 'हित' से अधिक महत्व दे गये। श्रीकृष्ण ने ठीक इससे उलटा आचरण किया। प्रतिज्ञा में 'सत्यम वचनम्' की अपेक्षा 'हितम्' को अधिक महत्व दिया। सबके हित या कल्याण को अधिक जरूरी समझा। क्या भारतीय सामूहिक चित्त ने भी उन्हें पूर्वावतार मानकर इसी पक्ष को अपना मौन समर्थन दिया है? एक बार गलत-सही जो कह दिया, उसी से चिपट जाना 'भीषण' हो सकता है, हितकर नहीं।  भीष्म ने 'भीषण' को ही चुना था, हितकर को नहीं।

          भीष्म ही नहीं द्रोण भ, द्रोपदी का अपमान देखकर चुप रह गये? द्रोण गरीब अध्यापक थे, बाल-बच्चे वाले थे। गरीब ऐसे कि गाय भी नहीं पाल सकते थे। बेचारी ब्राह्मणी को चावल का पानी देकर दूध मांगने-वाले बच्चे को फुसलाना पड़ा था। उसी अवस्था में फिर लौट जाने का साहस कम लोगों में होता है। लेकिन भीष्म तो पितामह थे। उन्हें धन की क्या फिक्र? भीष्म को क्या परवाह थी। भीष्म की चुप्पी समझ में नहीं आती।  इतना सच जान पड़ता है कि भीष्म में कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमज़ोरी थी।  वह उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे। यद्यपि वह जानते बहुत थे, तथापि सही निर्णय लेने में चूक जाते थे। उन्हें अवतार न मानना ठीक ही हुआ।

          आज भी ऐसे विद्वान मिल जाएंगे, ज्ञानी मिल जाएंगे जो जानते बहुत हैं, करते कुछ भी नहीं।  करने वाला इतिहास निर्माता होता है, सिर्फ सोचते रहने वाला इतिहास के भयंकर रथ-चक्र के नीचे पिस जाता है।

इतिहास का रथ वह हांकता है, जो सोचता है और सोचे को करता भी है।



~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

चैनल को  जरूर से

लाइक, सबस्क्राइब और शेयर

करें।

यू ट्यूब पर सुनें :

https://youtu.be/A2MkkAOYmhI

शुक्रवार, 14 मार्च 2025

प्रबुद्ध निर्णय


 

(सुरेन्द्र लाल मेहता, अध्यक्ष भारतीय विद्या भवन के लेखन पर आधारित)

गेहूं की बाली में लगते रहे कीड़े

हम खामोश रहे

सफेद कपड़ों में कांपते रहे गांव

हम खामोश रहे

समुद्र में तूफान आया

हम खामोश रहे

ज्वालामुखी विस्फोट हुए

हम खामोश रहे

बादलों से आग की वर्षा हुई

हम खामोश रहे

उसने ली खींच म्यान से तलवार

हम खामोश रहे

कैसे लोग थे हम

हमें बोलने की छूट दी गयी

हम खामोश रहे !


विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कितना सटीक लिखा है। हम अभी भी “खामोश” ही हैं। क्या हमने खामोश रहने का निर्णय ले रखा है?  नहीं। फिर, ऐसा  हुआ क्यों? अभी भी ऐसा क्यों हो रहा है? क्योंकि हम कोई भी प्रबुद्ध निर्णय लेने में असफल रहे। ऐसा क्यों?

          जिस प्रकार जीवन के लिये सामान्य श्वास लेना एक आवश्यक प्रक्रिया है वैसे ही सफल जीवन के लिये प्रबुद्ध निर्णय लेना एक आवश्यक प्रक्रिया है।

          अधिकांश लोग सामान्य जीवन इसलिये जीते हैं क्योंकि वे अपने अधिकांश निर्णय प्रबुद्ध रूप से लेने से बचना चाहते हैं या लेना नहीं जानते। सामान्य तौर पर वे यह तय किये बिना ही, जीवन-रूपी नदी में कूद पड़ते हैं कि उन्हें जाना कहां है। उन्हें अपने लक्ष्य का पता ही नहीं होता। वे अपना कोई भी लक्ष्य निर्धारित करने में असफल रहते हैं। परिणामस्वरूप शीघ्र ही वर्तमान समय की घटनाओं, भय और चुनौतियों में फंस जाते हैं। जब वे जीवन-नदी में किसी चौराहे पर पहुँचते हैं, तब वे प्रबुद्ध रूप से यह तय नहीं कर पाते कि वे किधर जाना चाहते हैं या उनके लिये सही दिशा कौन-सी है। प्रायः वे धारा प्रवाह के साथ चलते हुए उन लोगों के समूह का हिस्सा बन जाते हैं जो स्व-निर्धारित मूल्यों के बजाय परिस्थितियों द्वारा निर्देशित होते हैं। परिणामस्वरूप, वे भ्रमित हो जाते हैं। वे इस अचेतन अवस्था में तब तक रहते हैं जब तक कोई तीव्र जल-प्रवाह की ध्वनि उन्हें जगा नहीं देती और उन्हें यह पता नहीं चलता कि वे एक झरने के कगार पर खड़े है। तब वे किसी ऐसे उपाय की तलाश करने लगते हैं जो उन्हें इस अशांत पानी में डूबने से बचा सके। लेकिन, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वे अपने जीवन में जिन भी संकटों का सामना कर रहे हैं, उन्हें कुछ सावधानी और समय पर लिये गये निर्णयों से टाला जा सकता था, जब ये संकट उनसे बहुत दूर थे।

          उन्हें इसकी अनुभूति ही नहीं है कि हमारा मस्तिष्क निर्णय लेने के लिए एक आंतरिक प्रणाली विकसित करता है। यह प्रणाली एक अदृश्य शक्ति की तरह काम करती है, जो हमारे जीवन के हर पल में, हमारे सभी विचारों, कार्यों और भावनाओं को अवचेतन रूप से निर्देशित करती है। यह प्रणाली विविध वंशावली, साथियों, शिक्षकों, जनसंचार माध्यमों और बड़े पैमाने पर जातीय संस्कृति जैसे स्रोतों से भी प्रभावित होती है। धीरे-धीरे हम इस सम्पर्क के अभ्यस्त हो जाते हैं। यह वह अनुकूलन है जो आगे का रास्ता तैयार करने या जानबूझकर किसी निर्णय के निलंबन हेतु, निर्धारित करने और प्रेरित करने के लिए उत्तरदायी होता है। हालांकि, हम जीवन में किसी भी क्षण, प्रबुद्ध निर्णय लेकर, इस प्रणाली को नष्ट भी कर सकते हैं। इसके लिये हमें सबसे पहले गलत निर्णय लेने के अपने डर पर काबू पाना होगा। क्योंकि साधारणतया डर ही वह कारण है जिसकी छाया में हम कोई निर्णय लेने से बचते हैं और अपने जीवन को परिस्थितियों द्वारा संचालित होने के लिये बिना किसी लगाम और दिशा-निर्देश के खुला छोड़ देते हैं।

          इसमें कोई संदेह नहीं है कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी-न-कभी गलत निर्णय लेगा ही। हमें लचीला होने की आवश्यकता है, परिणामों को देखकर उनसे सीखना होगा। सफलता वास्तव में अच्छे निर्णय का परिणाम है। अच्छा निर्णय अनुभव का परिणाम होता है और अनुभव अक्सर बुरे निर्णय का परिणाम होता है। जब हम जीवन रूपी नदी में बह रहे हैं तो हम निश्चित रूप से कुछ उभरी हुई चट्टानों से टकराएंगे भी। यही यथार्थवाद है। जब कोई किसी चट्टान से टकराता है, तो असफलता हेतु स्वयं को दोषी मानने के बजाय, स्मरण रखें कि जीवन में असफलता जैसा कुछ नहीं होता, केवल परिणाम होते हैं। आशानुकूल परिणाम सफलता कहलाती है और विपरीत परिणाम, कभी-कभी तो आशा से कम परिणाम भी, असफलता कहलाती है। यदि वह परिणाम नहीं मिलता जो हम चाहते हैं, तो हमें इस अनुभव से सीखना चाहिये ताकि हम भविष्य में सटीक निर्णय लेने में समर्थ हो सकें।

          सफलता या असफलता कोई अनुभवहीन तथ्य नहीं है। मार्ग में आने वाले सभी छोटे-छोटे निर्णय ही समग्र रूप से लोगों के असफल होने का कारण बनते हैं। इसके विपरीत, सफलता भी छोटे-छोटे निर्णय लेने, स्वयं को उच्च मानक पर रखने के लिए प्रतिबद्ध होने, योगदान करने का संकल्प लेने और परिस्थितियों के अधीन होने के बजाय अपनी बुद्धि को जाग्रत करने की प्रतिज्ञा का परिणाम है। ये छोटे निर्णय ही जीवनानुभव बनाते हैं जिसे हम सफलता कहते हैं।

          चाहे हम अभी कितने ही गर्त में क्यों न हों, हमें ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिये। ईश्वर की ओर से देरी उनका अस्वीकार नहीं है। दीर्घकालिक लक्ष्य रखना और प्रयासरत रहना उचित है। जीवन में कोई भी मौसम हमेशा नहीं रहता क्योंकि पूरा जीवन रोपण, कटाई, आराम और कायाकल्प का चक्र है। सर्दी अनंत नहीं है। भले ही आज हमारे सामने चुनौतियां हों, हम वसंत-आगमन की आशा कभी नहीं छोड़ सकते।

          अगर आप 70-80 के भी हैं तो ऐसा मत सोचिये कि अब समय निकल चुका है, जब जागे तभी सवेरा। जो समय बचा है उस पर ध्यान केन्द्रित कीजिये। आज ही संकल्प लीजिये और प्रबुद्ध निर्णय लीजिये। असफलता का डर मन से निकाल दीजिये, जगत का सफलतम व्यक्ति भी अनेक बार असफल हुआ है। ईश्वर पर पूरा भरोसा रखिये, परिणाम न मिलने पर भी पूर्ण विश्वास से निर्णय लीजिये।

          अगर निर्णय लेना नहीं सीखे तो ऐसे ही गेहूं की बाली में कीड़े लगते रहेंगे, गाँव कांपते रहेंगे, तूफान आते रहेंगे, विस्फोट होते रहेंगे, आग की वर्षा होती रहेगी, म्यान से तलवार खींचती रहेगी और हम खामोशी से देखते-देखते मिट जायेंगे।  

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

चैनल को  जरूर से

लाइक, सबस्क्राइब और शेयर

करें।

यू ट्यूब पर सुनें :

 https://youtu.be/6tJyqjD_4yM

ब्लॉग  पर पढ़ें :  


शुक्रवार, 7 मार्च 2025

सूतांजली मार्च 2025

 


चाहे कोई सफलता की किसी भी हद तक क्यों न पहुंचे,

जमीन से जुड़े रहना जरूरी है।

जब आप आसमान छूएँ, शांत रहें। मितव्ययी बनें। विनम्र रहें।

अमीर और मशहूर सम्मान पाते हैं।

कीमती और महंगी गाड़ियों से कृत्रिम नशा मिलता है।

लेकिन ओला / उबर से आपको निश्चित रूप से शांति मिलती है।

दिखावे से ज़्यादा सादगी को महत्व दें।

-    वेलुमनी (थायरोकेयर के संस्थापक)

------------------ 000 ----------------------

यू ट्यूब पर सुनें :

https://youtu.be/7hA_eKc6zE0

ब्लॉग  पर पढ़ें :  

https://sootanjali.blogspot.com/2025/03/2025.html


शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

कार्यरत अदृश्य शक्तियाँ

  


          हम मानते हैं कि अपने स्वार्थ के लिये मनुष्य बड़ी चालाकी व होशियारी से दूसरों के साथ अपना काम निकाल लेता है। दूसरों की तकलीफ, उनके दु:खों की परवाह न करके अपनी क्षणिक प्रसन्नता के लिये, किसी का भी अहित करने में यह ईश्वर की सर्वोच्च कृति, जो मानवजाति के नाम से जानी जाती है – कोई संकोच नहीं करती। लेकिन ऐसा करने वालों ने क्या कभी सोचा है कि यही स्थिति उनकी खुद की भी है? अनेक हैं जो उनकी गिनती भी इन्हीं दूसरों में करते हैं? ऐसी चालाकी करने वाले ये स्वार्थी लोग यह क्यों नहीं सोचते कि ऐसी भी स्थिति आ सकती है जब दु:ख दूसरों पर न जाकर असफलताओं के फलस्वरूप स्वयं पर ही आ पड़े और दु:खी होना पड़े? तब तो सारी चालाकी, सारा स्वार्थ अपने ही जीवन के लिये अभिशाप सिद्ध होगा। सारे कर्म अपने सुख के लिये करने पर भी हमें बार-बार दु:ख क्यों भोगना पड़ता है? हमें हर समय दूसरों की चालाकी से सावधान और अपनी चालाकी से दूसरों को तकलीफ देने का जुगाड़ बैठाते रहना होगा! 

अभी कुछ समय पहले ही, वार्ता के दौरान किसी ने टिप्पणी की, गाँव वासी भी अब सीधे-सादे नहीं रहे, बड़े चालक हो गये हैं। उनसे भी संभल कर रहना जरूरी है। उन्हें चालाक किसने बनाया? अरे! ये हम शहरवासियों का ही तो काम है। उन भोले-भाले ईमानदार ग्रामीणजन को चालाक हमने ही तो बनाया है? है कि नहीं! इस दयनीय दशा में कौन हमारा साथ दे सकता है? हम स्वयं विचार करें। वही और केवल वही सर्वशक्तिमान जिसके नियमों को हम भुला बैठे हैं। 

          यह हम सबों के जीवन का अपना अनुभव है। अनेक बार हम बहुत मेहनत से अच्छी योजना बनाते हैं, उस पर पूरी ईमानदारी से कार्य करते हैं लेकिन लगन से काम करने और आशानुकूल मेहनत करने के बाद भी हमें सफलता नहीं मिलती और कई बार तो असफलता ही हाथ लगती है। हाँ या ना! लेकिन कई बार इसके विपरीत ऐसा भी होता है कि हमारी योजना उतनी अच्छी नहीं बनती, इस पर कार्य भी अच्छी तरह नहीं होता, मेहनत भी ज्यादा नहीं करते लेकिन फिर भी अप्रत्याशित सफलता मिलती है। यानि कभी अच्छी योजना और मेहनत के बावजूद हमें कम सफलता मिलती है और कभी जल्दी में बनाई योजना और बिना मन के किये गये काम में हमें ज्यादा सफलता मिलती है।

          यानि हमारी मेहनत, लगन और सफलता के बीच कहीं कुछ है जो न तो हमें दिखता है और न ही जिस पर हमारा कोई अधिकार होता है। यानि हम से अंजान कोई दैवीय शक्ति हमारी सफलता और मेहनत के मध्य हमारे कार्य में सहायता कर रही है या बाधा डाल रही है। ये हमारे अपने कर्म ही हैं जो हमें दिखते नहीं।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

चैनल को  जरूर से

लाइक, सबस्क्राइब और शेयर

करें।

यू ट्यूब पर सुनें :

https://youtu.be/aQWgRzOTEuU

 

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2025

सूतांजली फरवरी 2025

                  बस अंत नहीं, बसंत है यह, गूँजे दिक-दिगंत यह,

                वनदेवी आज शृंगार करे, हम मिल कर यह निनाद करें

माँ अज्ञान हमारा दूर करे।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

यू ट्यूब पर सुनें :

https://youtu.be/V8blI9vNYjw

ब्लॉग  पर पढ़ें :  

https://sootanjali.blogspot.com/2025/02/2025.html

 


शुक्रवार, 24 जनवरी 2025

जीतने का इरादा


             

जी हाँ, ये प्रश्न कीजिये अपने जीवन से और उत्तर दीजिये आप खुद। जीवन को साफ-साफ बता दीजिये कि तेरा इरादा चाहे कुछ भी हो मेरा इरादा पक्का है कि मैं हार नहीं मानूँगा। फिर देखिये राह में कैसे भी रोड़े आयें सब चकनाचूर हो जाएंगे। अपने सीमित दायरे में मैंने लेखिका सूर्यबाला का नाम नहीं सुना था। लेकिन जब उनका संस्मरण पढ़ा तो मुझे लगा कि इसे साझा करना चाहिए, आप लोगों के साथ, विशेष कर उन लोगों से जो जीवन से हताश हो जाते हैं, उस युवा वर्ग से जो थोड़ी सी असफलता नहीं झेल पाते हैं, निराश हो जाते हैं, आत्म-हत्या तक की चरम सीमा तक चले जाते हैं। शायद वे समझें कि असफलता एक चुनौती है, घुटने टेक दिये तो टूट गये, स्वीकार कर लिया तो बन गये। लेखिका की ही कलम से-

          अभाव का समय था लेकिन क्या मजाल जो किसी को हमारे अंदर का कोई सुराग लग पाता। हम सब भाई-बहन सब कुछ जी जान से एक दूसरे से भी छुपाये रहते थे और बाहर की शान तो हमारा तीन मंज़िला, सफेद जालियों वाला मकान कायम ही रखे रहता था।

       जीवन की चुनौती ने हमें मनहूसियत को छू मंतर करने का रास्ता सीखा दिया था। हम बहनें साथ-साथ गाने गातीं... साथ-साथ टीचरों की नकलें करतीं, गानों की पैरोडी, नाटक, अंताक्षरी (चलती रहती)... यही तो हमें हमारे अंदरूनी धक्कों को झेलने की ताकत देती थी, हमारे दुखों, अभावों के अंतहीन अंधेरे में जुगनू-सी झिलमिलाती थी...

          स्कूल में भी कम चुनौतियां नहीं थीं... और पिछड़ना मुझे मंजूर नहीं था। लेकिन खुद को पिछड़ने से बचाये रखने के अपने तरीके थे मेरे... अपनी  प्रतिस्पर्धी लड़की के साथ पूरे अपनेपन और सद्भाव बनाये रखते हुए अंदर के ईर्ष्या-द्वेष को गलाते हुए उससे अच्छे अंक लाने की कोशिश... उपाय... समाधान... ।  पढ़ाई, डिबेट, नाटक आदि सभी में स्कूल भर की चार-पांच अग्रणी लड़‌कियों में शुमार होने के बावजूद मैं घर पर शास्त्रीय संगीत नहीं सीख सकती थी, राग शंकरा और भैरवी की वे बंदिशें नहीं गा सकती थी।

          एक बार सचमुच कानों पर विश्वास नहीं हुआ... कक्षाध्यापिका ने घोषणा की - मुफ्त में संगीत सीखने की सुविधा। मैंने बड़े उत्साह से नाम दे दिया। संगीत के घोष माट्सा'ब मुझे बिल्कुल नहीं जानते थे। जब हम पंद्रह बीस लड़कियां पहली बार उनकी क्लास में पहुंची तो सबसे पहले उन्होंने हर लड़की से सरगम गवाया और गलत गाने वाली लड़कियों को एक तरफ अलगाते गये जिनमें मैं भी थी। शेष लड़कियों ने शायद ही जाना, समझा हो... लेकिन मैं कहीं न कहीं अपमानित, उपेक्षित, अयोग्य प्रमाणित हुई थी। अगले दिन चुपचाप नाम कटा दिया था मैंने। फिर कभी-संगीत की क्लास में नहीं गयी।  मेरा अवचेतन जब-तब मुझे ठकठकाता रहता था, सिद्ध करो कि तुममें 'सुर' की समझ है।

          अब मेरी अपनी चुनौती मेरे सामने थी... बगैर किसी को भनक लगे, अपने आपको सिद्ध करने की। बिना किसी की लाइन काटे, एक बड़ी लाइन खींचने की

       जुट गयी, अपनी पाठ्य पुस्तक से ही बसंत ऋतु पर एक कविता चुनी फूल, हवा, हरियाली, और सुरभि के बाद बसंत... कुछ छोटी दिखती लड़कियों को फूल बनाया और अपने साथवालियों में क्रमशः हरियाली, हवा, बसंत और मैं स्वयं सुरभि... बंगाली लड़कियों से मिल कर खुद अपनी बनायी ट्यून हारमोनियम पर ठीक करायी और छुट्टी के बाद आधे घंटे तक प्रैक्टिस। रवींद्र-संगीतनुमा मेरी बनायी  ट्यून और नृत्य की अवधारणा... साथ की बंगाली लड़कियों ने मेरी बतायी नृत्य-मुद्राएं, थोड़ी परिमार्जित कर ठीक कर लीं सब को 'मेरी' आइडिया बहुत पसंद आयी।

       लेकिन उसी बीच पूरे एक हफ्ते बुखार में पड़ी रही।  ठीक होने पर पहुंची तो पाया कि लड़कियों ने कॉस्ट्यूम वगैरह भी लगभग तय कर प्रैक्टिस पूरी कर ली है। बस मुझे ही अपनी प्रैक्टिस ठीक करनी थी ...

          प्रैक्टिस के समय मैंने बिना तैयारी के कुछ पोज देने की कोशिश की ही थी कि कक्षा की ही एक बंगाली लड़की आगे आ मेरी मुद्राएं ठीक करने और स्वयं नृत्य करके मुझे दिखाने लगी। उसका ऐसा करना था कि देखने वाली लड़कियां एक साथ कह उठीं- 'अरे तुम तो बहुत अच्छा कर रही हो अंजली! सुनो तुम ही क्यों नहीं कर देतीं...?’ और मैंने एक सफल अभिनेत्री की तरह उत्साह से भर कर, 'बिल्कुल... और क्या' कुछ इस तरह कहा जैसे अंजली ने आड़े वक्त पर मेरी मदद की हो और मैं हल्की हो गई होऊं...

          लेकिन 'सच' कोई नहीं जान सका... कि इतने श्रम और मनोयोग से बनायी अपनी ही योजना से निष्कासित थी मैं! एक हताशा को भुलाने के लिए जी जान से किया गया उपाय, अंदर-अंदर दूसरी, और दुगनी हताशा से लथपथ कर गया। लेकिन लड़कियों के सामने मैं एकदम हल्की... उत्फुल्ल प्रसन्नचित्त वही सूर्यबाला थी। बार-बार हाथ आयी हताशा के ऊपर बेफिक्री के अभिनय में मैं उसी उम्र में निष्णात हो गयी थी।

लेकिन मेरा अवचेतन ऐसी हर हार के बाद कुछ नया कर गुजरने की तरकीबें तलाशता ही रहता। ध्वस्त हुए खंडहर के ऊपर एक नयी निर्मिति का सपना कभी मुझसे छूट नहीं पाया...

तो अब !... स्वयं ही एक वर्षा गीत लिखा, धुन भी बनायी, बना कर, पहले जीजी को सुनायी। फिर स्कूल में हारमोनियम पर पक्की करवाने के बाद, अकेले ही घर में गीत की हर पंक्ति की मुद्राएं और स्टेप्स भी स्वयं ही पक्के फाइनल किये। अन्य से राई-रत्ती सलाह लिये बिना, सिर्फ जीजी से ही सलाह ली। सब से संतुष्ट होने के बाद, स्वयं अपने क्लास की सात और लड़कियों को चुना और हर शाम छुट्टी के बाद जमकर प्रैक्टिस शुरू हो गयी।

          कार्यक्रम शानदार रहा। एक स्वर से नृत्य बहुत सराहा गया। धानी रंग की अभ्रक छिड़की साड़ियों से लेकर गीत, संगीत तक। लेकिन सबसे ज़्यादा रोमांचित कर रहा था, टीचरों, लड़कियों का बार-बार एक दूसरे से कहना, 'पता है राइटर, कम्पोजर, डाइरेक्टर एंड डांसर आलइनवन शॉऽऽब.... एइ शुज्जि बाला......... यानि सूर्यबला। अब सरेआम प्रमाणित हो गया था कि मेरे पास 'सुर', हुनर है।

          यह थी मेरे अवचेतन की, मेरी हताशाओं पर ठंडी रूई का फाहा लगाने की तरकीब... अपने ढंग से अपने नुक़सानों की भरपायी करने का शायद नशा था मुझे।

          यह प्रसंग छोटी उम्र में ही अपनी असफलताओं की भरपाई करने के तरीके का 'फंडा' बताने भर के लिए... क्योंकि आज की पीढ़ी बहुत जल्दी बेसब्र हो आत्महत्या तक पर उतारू हो जाती है...

          तब आपने क्या इरादा किया, हारने का या जीतने का?

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

चैनल को  जरूर से

लाइक, सबस्क्राइब और शेयर

करें।

यू ट्यूब पर सुनें :

https://youtu.be/pjqSR717Xpw


क्षमा

  महाभारत में द्रौपदी को एक उग्र , वीर और प्रतिशोधी महिला के रूप में दर्शाया गया है।   लेकिन श्रीमद्भागवतम् में द्रौपदी को अश्वत्थामा के प...